प्रश्न: आपने लिखा है -
पदार्थावस्था + श्रम = प्राणावस्था
प्राणावस्था + श्रम = जीवावस्था
जीवावस्था + श्रम = भ्रमित ज्ञानावस्था
भ्रमित ज्ञानावस्था + श्रम = जागृत ज्ञानावस्था
यहाँ "+ श्रम" से क्या आशय है?
उत्तर: इसका आशय है - पदार्थावस्था में धनात्मक विधि से श्रम का नियोजन पूर्वक प्राणावस्था का प्रकटन है. किसी अवस्था में धनात्मक विधि से श्रम नियोजन पूर्वक ही अगली अवस्था का प्रकटन है. पूरकता के लिए श्रम नियोजन को "+ श्रम" कहा. यह नियति विधि है.
पदार्थावस्था में श्रम पूर्वक ही यौगिक विधि से रसायन संसार में परिवर्तन है. रसायन संसार में परिवर्तित होने से ही प्राणकोशाओं के रूप में प्राणावस्था की बुनियाद बनी. प्राणावस्था अपने यथास्थिति में कार्य करते समय में उत्सवित हो कर ही जीवावस्था के शरीरों की प्राणकोशाओं के स्वरूप में प्रकट हुआ. जीवावस्था के स्थापित होने के उपरान्त पुनः पूरकता के लिए श्रम नियोजन हुआ. प्राणकोशाओं में गुणात्मक परिवर्तन पूर्वक ही मानव शरीर का प्रकटन हुआ. यह उन्नति क्यों हुई? ताकि जीवन अपनी जाग्रति को परंपरा में व्यक्त कर सके. अवस्थाओं में क्रमशः उन्नति मानव शरीर के प्रकटन के लक्ष्य से चला है.
प्रश्न: मानव में श्रम का क्या स्वरूप है? श्रम का क्षोभ क्या है?
उत्तर: आज हम जिस स्थिति में हैं, जैसा जी रहे हैं - उससे अधिक की हम अपेक्षा करते हैं, उसके लिए श्रम करते हैं, वह हमको नहीं मिलना ही "श्रम का क्षोभ" है, वह हमको मिलते रहना ही "श्रम का विश्राम" है.
श्रम पूर्वक आवश्यकता से अधिक उत्पादन करने में तृप्ति, समाधान है. श्रम करने पर आवश्यकता से अधिक हो गया तो हम तृप्त हो गए. श्रम करने पर भी आवश्यकता पूरा नहीं हुआ, यह श्रम का क्षोभ है.
श्रम का क्षोभ ही विश्राम (समाधान) की तृषा है. यथास्थिति से अधिक की आवश्यकता का पूरा नहीं होने से जो रिक्तता है - वही अभाव या समस्या है. इस अभाव या समस्या की स्वीकृति ही श्रम का क्षोभ है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
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