ANNOUNCEMENTS



Friday, January 17, 2020

संवेदनाओं का नियंत्रण-बिंदु न मिलने से मानव जाति का इतना भटकाव हुआ



संवेदना = शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों का क्रियाकलाप.  जीवन और शरीर का योग होने से संवेदना व्यक्त होता ही है.  आदिमानव में भी यह रहा, आज भी है.  अभी तक संवेदनाओं को पहचान सकने को जागृति माना गया, संवेदनाओं को नहीं पहचान सकने को मरा हुआ माना गया. 

अब यहाँ (मध्यस्थ दर्शन में) प्रस्तावित है - मानव चेतना पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित रहते हैं, जीव चेतना पूर्वक संवेदनाएं अनियंत्रित रहते हैं.  नियंत्रित संवेदनाओं के साथ मानव व्यवस्था में जीता है,  अनियंत्रित संवेदनाओं के साथ मानव अव्यवस्था में जीता है.

विज्ञान (भौतिकवाद) ने संवेदनाओं के अनियंत्रित होने को ही सच्चाई मान लिया.  आदर्शवाद ने संवेदनाओं के अनियंत्रण का विरोध तो किया, पर संवेदनाओं का नियंत्रण कैसे हो - इसकी पूर्ति नहीं कर पाया.

विज्ञान (भौतिकवाद) शरीर को ही चैतन्य मानता है. आदर्शवाद शरीर को चैतन्य मानने का विरोध तो किया है, लेकिन "आत्मा" नाम से जो कुछ उन्होंने चैतन्यता के बारे में बताया वो रहस्य में फंस गया.  उसके बारे में बात नहीं कर पाए, समझा नहीं पाए, प्रमाणित नहीं कर पाए - चुप हो कर चले गए.  चैतन्यता को बताने के लिए उत्तर भारत में दस अवतारों को माना, दक्षिण भारत में तीन आचार्यों को माना.   तीनो आचार्यों की परम्परा में आदर्शवाद ही रहा, किन्तु उनकी ध्यान और उपासना विधियों में भेद रहा.  इन सभी ने शुभ का आशय व्यक्त किया, पर शुभ के प्रमाणित होने से रह गए.  जहाँ तक अवतारों की बात है, सभी अवतार बल (वध-विध्वंस) के आधार पर प्रतिष्ठित हुए, और उसके साथ ज्ञान को भी जोड़े कि उनमे ऋषित्व होना चाहिए.  ऋषित्व के मूल में "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" ही बताया.  अब इस तरह अवतारों का जितना भी युद्ध हुआ मिथ्या के साथ ही हुआ!  फिर उसका क्या आशय हुआ?  अवतारों ने जो लड़ाइयाँ की और आज जो लड़ाइयाँ हो रही हैं - आदर्शवाद के अनुसार मिथ्या के साथ ही हैं! 

लड़ाइयों को लेकर यहाँ अवधारणा दिए हैं - पशुमानव और राक्षसमानव ही लड़ाई (युद्ध) करता है.  राक्षस मानव ज्यादा वध-विध्वंस करता है, पशु मानव वध-विध्वंस की आहुति होता है.

इस ढंग से आदर्शवादी विधि से मानव परम्परा में भय और प्रलोभन ही संप्रेषित हुआ.  स्वर्ग के प्रति प्रलोभन, नर्क के प्रति भय.  पुण्य के प्रति प्रलोभन, पाप के प्रति भय.  आदर्शवाद के सारे भाषण और उपदेश का अर्थ इतना ही है.  सारे अवतार राक्षसों को नष्ट करने के स्वरूप में रहे.  अलग अलग अवतार कई प्रकार के राक्षसों का संहार करने के लिए सम्मान पाए.  इसके साथ-साथ वे उपदेशात्मक ज्ञान भी दिए कि आदमी को राक्षस नहीं होना चाहिए, नैतिक होना चाहिए, ज्ञानी होना चाहिए, विवेकी होना चाहिए.  आदमी को ज्ञानी होना चाहिए - यह सभी अवतार कहे.  राम भी कहे, कृष्ण भी कहे.  ज्ञान के पास गए तो अव्यक्त-अनिर्वचनीय हो गए.  अब कौनसा ज्ञान है?  जो वचन में आना ही नहीं है, व्यक्त होना ही नहीं है - फिर प्रमाण क्या होगा?  इस प्रकार आदर्शवाद प्रमाणित होने से किनारा कर लिया.

उधर भौतिकवाद सुविधा-संग्रह के चक्कर में आदमी को फंसा दिया.  सुविधा-संग्रह का तृप्ति-बिंदु मिलना ही नहीं है.  सकल अपराध को वैध मानने के बाद भी सुविधा-संग्रह का तृप्ति-बिंदु नहीं मिला.  इस बीच धरती ही बीमार हो गयी.

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों का नियंत्रण-बिंदु न मिलने से इतना भटकाव हुआ.  मानव चेतना पूर्वक संवेदनाओं के नियंत्रण-बिंदु को पाते हैं.  इस नियंत्रण-बिंदु का स्वरूप है - समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व.  मानव चेतना को संवेदनाओं द्वारा व्यक्त करने से "मानव संचेतना" कहलाया.  संचेतना का अर्थ है - पूर्णता के अर्थ में चेतना.  पूर्णता का अर्थ मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना ही होता है.  मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना सहज पूर्णता को पाने के लिए "समझदारी" चाहिए.  उसके लिए ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय को स्पष्ट किया.  पहले आदर्शवाद में ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय तीनो को ब्रह्म ही बताया था, अब यहाँ कह रहे हैं - जीवन ज्ञाता है, सहअस्तित्व ज्ञेय है, ज्ञान तीन भाग में है - सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान.  इस ज्ञान को विकल्प विधि से लाये. 

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)

No comments: