सम्मान किसका करना है, यह अभी तक मानव जाति में तय नहीं हो पाया। लफंगाई का सम्मान हुआ है। तलवार का सम्मान हुआ है। जो चुपचाप बैठ गए - उनका पूजा हुआ ही है। जो नंगे हो गए -उनका पूजा हुआ है। जो बहुत बढ़िया वस्त्र पहन लिए - उनका भी पूजा हुआ है। इस तरह बहुरूपियों का सम्मान हुआ है। हम अभी तक यह तय नहीं कर पाए कि पूजा योग्य क्या है? यहाँ आ कर हम यह समीक्षा कर सकते हैं - रूप से, पद से, धन से और बल से जो हम सम्मान पाना चाहते हैं, उससे व्यवस्था नहीं है। समझदारी के आधार पर समाधान और श्रम के आधार पर समृद्धि पूर्वक जीने से सम्मान-जनक स्थिति बनती है, इसके पहले नहीं। समाधान-समृद्धि पूर्वक जी सकते हैं, इस बात का प्रमाण एक व्यक्ति से शुरू होना था - वह एक व्यक्ति मैं हूँ। अब कई व्यक्तियों के इस प्रकार जी कर प्रमाणित होने की हम बात कर रहे हैं।
अभी तक हम अपने को समझदार माने थे, पर उससे प्रमाण नहीं हुआ। उससे व्यापार ही प्रमाणित हुआ, नौकरी ही प्रमाणित हुआ। व्यापार और नौकरी में अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति और अव्याप्ति दोष होता ही है। इस तरह हम कई गलतियों को सही मान कर के चल रहे हैं। इसका आधार रहा - भय और प्रलोभन। अब भय और प्रलोभन चाहिए या समाधान-समृद्धि चाहिए - ऐसा पूछते हैं, तो समाधान-समृद्धि स्वतः स्वीकार होता है। समाधान के लिए कोई भौतिक वस्तु नहीं चाहिए। हर अवस्था में, हर व्यक्ति समझदार हो सकता है। चाहे वह एक पैसा कमाता हो, एक लाख कमाता हो, या ख़ाक कमाता हो। समझदार होने का अधिकार सबमे समान है, उसको प्रयोग करने की आवश्यकता है।
पहला घाट है - हमको समझदार होना है। फिर दूसरा घाट है - हमको ईमानदार होना है। समझदारी के अनुसार हमको जीना है, यह ईमानदारी है। तीसरा घाट है - हमको जिम्मेदार होना है। हर सम्बन्ध में जिम्मेदार होना है। चौथा घाट है - हमको अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था में भागीदारी करना है। मानव के जीने का कुल मिला कर योजना और कार्यक्रम इतना ही है।
श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)
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