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Thursday, July 5, 2012

न्याय, धर्म, सत्य

 

(समझ पूर्ण होने से पहले) न्याय, धर्म, सत्य के अनुसार तुलन करने के लिए वृत्ति में वस्तु नहीं है, शब्द है। शब्द है - तभी मनुष्य यह कह पाता है कि यह "न्याय" है, यह "अन्याय" है; यह "धर्म" है, यह "अधर्म" है; यह "सत्य" है, यह "असत्य" है। शब्द से इतना तो उपकार हुआ कि सत्य "होने" के रूप में वृत्ति में स्वीकार हो जाता है. लेकिन शब्द पर्याप्त नहीं हुआ। अब "रहने" के रूप में सत्य को स्वीकार करने की बात आयी। शरीर मूलक विधि से न्याय, धर्म, सत्य समझ में आता नहीं है। विगत में कहा गया - "सत्य अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है - इसको समाधि में देखना होगा।" समाधि में कोई सत्य मिला नहीं। सत्य संयम करने पर मिला। उस सत्य तक शिक्षा विधि से कैसे पहुँचते हैं - वह सीढ़ी यहाँ बता रहे हैं। "

"सत्य" शब्द से सह-अस्तित्व इंगित है। इसको परिशीलन करने पर चित्त में ही "सह-अस्तित्व" शब्द से इंगित अर्थ साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार होने के बाद बोध होता ही है। बोध होने के बाद अनुभव होता ही है। अनुभव ही प्रमाण है। अनुभव होने पर बुद्धि में पुनः अनुभव-प्रमाण बोध होता है। जिसको बुद्धि चिंतन के लिए परावर्तित कर देती है, फलस्वरूप उसके अनुरूप चित्त में चित्रण होना शुरू हो गया। इससे वृत्ति में न्याय, धर्म, सत्य वस्तु समाहित हो गयी। जिसके अनुसार मन में मूल्यों का आस्वादन होने लगा, जिसको प्रमाणित करने के लिए हम चयन करने लगे। प्रमाणित करने के लिए एक ओर बुद्धि में संकल्प, दूसरी और मन में चयन - ये दोनों मिल करके प्रमाण परंपरा बनती है।

 - श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

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