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Thursday, July 12, 2012

अनुभवगामी विधि


ज्ञान और प्रमाण

ज्ञान स्थिति में रहता है, इन्द्रियगोचर विधि से प्रमाण होता है। मानव परंपरा में ज्ञान इन्द्रियगोचर विधि से ही प्रमाणित होता है। इन्द्रियां न हो, और ज्ञान एक से दूसरे को संप्रेषित हो जाए - ऐसा होता नहीं है। हर मनुष्य में जीवन क्रियाशील रहता है। इन्द्रियों से जो सूचना मिलती है उसके मूल तक जाने की व्यवस्था जीवन में बनी हुई है। उसके लिए पहले कल्पनाशीलता प्रयोग होता है। साक्षात्कार होने तक कल्पनाशीलता का सहयोग रहता है। वस्तु का साक्षात्कार होने के फलस्वरूप बोध और अनुभव होता है, फिर प्रमाणित होने की व्यवस्था आती है। यह इसका पूरा स्वरूप है - श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)

Wednesday, July 11, 2012

अपराध-मुक्ति का रास्ता



सह-अस्तित्व साक्षात्कार हो जाए, जीवन साक्षात्कार हो जाए, जीवन जागृति साक्षात्कार हो जाए - इन तीन चीजों के स्पष्ट होने पर अपराध-मुक्ति का रास्ता बना है।

- श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)

अनुक्रम से अनुभव


ज्ञानगोचर वस्तुओं का जीने में ही परीक्षण होता है।  इन्द्रियगोचर सभी वस्तुएं प्रयोग में आ जाते हैं।  प्रयोग सभी यांत्रिक है, जीना प्रयोग नहीं है। प्रयोग सामयिक होते हैं, जीना निरंतर होता है।  इन्द्रियगोचर जो है, उसका कुछ भाग जीने से जुड़ता है।

सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान - यह ज्ञानगोचर है।  जीवन का स्वरूप ज्ञान - यह ज्ञानगोचर है।  मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान - यह ज्ञानगोचर है।  इन तीनो ज्ञान को जब हम व्यवहार में लाते हैं तो अनुभव का प्रमाण मिलता है।

एक से एक जुड़ करके "होने" के स्वरूप का नाम है अनुक्रम।  विकासक्रम-विकास, जागृतिक्रम-जागृति, और सह-अस्तित्व - ये तीन मुद्दे अनुक्रम हैं।  ये मुद्दे ज्ञानगोचर हैं - जो एक दूसरे से जुड़े हैं।  अनुक्रम से अनुभव होता है।  अनुभव शाश्वत होने के स्वरूप में है।

- श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक) 

ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर


ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर के संयुक्त रूप में मानव की पहचान है।  सह-अस्तित्व अपने में ज्ञानगोचर है।  सह-अस्तित्व समझे बिना मानव अपने में ज्ञानगोचर पक्ष को पहचान ही नहीं सकता.  सह-अस्तित्व समझना, सह-अस्तित्व में जीवन को समझना, सह-अस्तित्व में शरीर को समझना और फिर शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में मानव को समझना।  

मानव में ज्ञानगोचर विधि से हर निश्चयन है।  मानव का हर कार्य और हर व्यवहार इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर के संयुक्त रूप में होता है।  ज्ञान के बिना न हम कोई उत्पादन कर सकते हैं, न व्यवहार कर सकते हैं।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)

Saturday, July 7, 2012

व्यवस्था को पहचानने का आधार





सामान्य बातें ही व्यवस्था को पहचानने का आधार है. असामान्य कुछ भी व्यवस्था को पहचानने का विधि नहीं है. व्यवस्था में जीने से परस्पर विश्वास होना स्वाभाविक हो जाता है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Friday, July 6, 2012

निष्ठा का प्रमाण



इस बात में सहमति होना भर पर्याप्त नहीं है.  सहमति के साथ निष्ठा जोड़ने पर अध्ययन होता है.  अध्ययन होने के फलस्वरूप सच्चाई को पहचान लिया.  सच्चाई की पहचान होने के फलस्वरूप हमारा जीने के लिए सरल मार्ग निकल गया.  उसके बाद आदमी रुकता नहीं है.  अभी सहमति होने के बाद निष्ठा होने में ही सारी रुकावट है.  
अध्ययन में लगना ही आपकी इस बात में सहमति के प्रति निष्ठा का प्रमाण है.  प्रमाणित होने के लिए अध्ययन आवश्यक है.  अध्ययन के बिना प्रमाणित नहीं हो सकते हैं.  अध्ययन है - अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन.  यह अध्ययन यदि पूरा होता है तो ज्ञानगोचर वस्तु मानव के हाथ लगती है.  जीवन में ही ज्ञानगोचर प्रक्रिया है.  जीवन ही जीवन को पहचानता है.  जीवन ही सहअस्तित्व को पहचानता है.  जीवन ही उपयोगिता-पूरकता को पहचानता है.  मानव में ज्ञान के स्वरूप का निर्धारण जीवन ही करता है.  जीवन ही शरीर के साथ जीता है तो शरीर में  संवेदनाएं प्रकट होते हैं.  संवेदनाओं को जीवन मान लेता है.  यही जीवन का भ्रम है.  शरीर संवेदनाओं को जीवन मान लेने के बाद उसी को राजी करने के लिए चले गए.  उसमे जो अनुकूलता हुई उसमे सुख जैसा भासता है, पर सुख रहता नहीं है.  पूरा मानव जाति इतने में ही भ्रमित है.  

परिभाषा विधि से शब्द के द्वारा वस्तु का कल्पना होता है.  उसको अस्तित्व में वस्तु के रूप में यदि हमने पहचान लिया तो ज्ञानगोचर वस्तु पकड़ में आयी.  यही अध्ययन है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

ज्ञानगोचर वस्तु पहचानने की आवश्यकता


ज्ञानगोचर सभी वस्तु पहचानने में आ जाए और प्रमाणित हो जाए - इसका नाम है अध्ययन.  अनुभव की रोशनी में, स्मरण पूर्वक किये गए प्रयास को अध्ययन कहा.  अनुभव शाश्वत रूप में प्रमाण है.  ज्ञानगोचर वस्तु को पूरा समझना, उसकी उपयोगिता को पूरा अभिव्यक्त, संप्रेषित और प्रकाशित कर पाना - यह अनुभव-बल के आधार पर ही होता है.  दूसरा कोई विधि से यह होगा नहीं.  इसीलिये अनुभव तक पहुँचने के लिए, हर अध्ययन करने वाले व्यक्ति को इन्द्रियगोचर वस्तु और ज्ञानगोचर वस्तु पहचानने की आवश्यकता है.  अभी तक के हज़ारों वर्ष के मानव इतिहास में इन्द्रियगोचर वस्तुओं को पहचानने की व्यवस्था दिया.  अब हम कह रहे हैं - इस धरती पर मानवों को अगले कुछ दशकों में ज्ञानगोचर वस्तुओं को पहचानने योग्य होना चाहिए, क्योंकि धरती बीमार हो गयी है, धरती के साथ अपराध कृत्यों से मुक्ति पाने की आवश्यकता है.  उसी के साथ अपने-पराये की दीवारों से भी मुक्ति पाना है.  इसका नाम दिया - "भ्रम मुक्ति".  भ्रम मुक्ति ही मोक्ष है।

- श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)

Thursday, July 5, 2012

ज्ञानगोचर




ज्ञानगोचर वस्तु पहचानने में आ जाए और प्रमाणित हो जाए - इसका नाम है अध्ययन।  ज्ञान का आरंभिक स्वरूप है - कल्पना।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)


यश का स्वरूप

जागृतिक्रम में यश एक सहज घटना है।  यश का भ्रूण रूप मानवीयता है।  प्रौढ़ रूप देव मानवीयता। यश का नित्य रूप ही दिव्य मानवीयता है।


हरेक व्यक्ति स्वयं में व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी का निर्वाह यश का व्यवहारिक स्वरूप है। संबंधों को पहचानना एवं उनमे निहित मूल्यों का निर्वाह करना - यह मानव कुल का यश है।

- श्री ए. नागराज (परिवार मानव, मई 2006)


न्याय, धर्म, सत्य

 

(समझ पूर्ण होने से पहले) न्याय, धर्म, सत्य के अनुसार तुलन करने के लिए वृत्ति में वस्तु नहीं है, शब्द है। शब्द है - तभी मनुष्य यह कह पाता है कि यह "न्याय" है, यह "अन्याय" है; यह "धर्म" है, यह "अधर्म" है; यह "सत्य" है, यह "असत्य" है। शब्द से इतना तो उपकार हुआ कि सत्य "होने" के रूप में वृत्ति में स्वीकार हो जाता है. लेकिन शब्द पर्याप्त नहीं हुआ। अब "रहने" के रूप में सत्य को स्वीकार करने की बात आयी। शरीर मूलक विधि से न्याय, धर्म, सत्य समझ में आता नहीं है। विगत में कहा गया - "सत्य अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है - इसको समाधि में देखना होगा।" समाधि में कोई सत्य मिला नहीं। सत्य संयम करने पर मिला। उस सत्य तक शिक्षा विधि से कैसे पहुँचते हैं - वह सीढ़ी यहाँ बता रहे हैं। "

"सत्य" शब्द से सह-अस्तित्व इंगित है। इसको परिशीलन करने पर चित्त में ही "सह-अस्तित्व" शब्द से इंगित अर्थ साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार होने के बाद बोध होता ही है। बोध होने के बाद अनुभव होता ही है। अनुभव ही प्रमाण है। अनुभव होने पर बुद्धि में पुनः अनुभव-प्रमाण बोध होता है। जिसको बुद्धि चिंतन के लिए परावर्तित कर देती है, फलस्वरूप उसके अनुरूप चित्त में चित्रण होना शुरू हो गया। इससे वृत्ति में न्याय, धर्म, सत्य वस्तु समाहित हो गयी। जिसके अनुसार मन में मूल्यों का आस्वादन होने लगा, जिसको प्रमाणित करने के लिए हम चयन करने लगे। प्रमाणित करने के लिए एक ओर बुद्धि में संकल्प, दूसरी और मन में चयन - ये दोनों मिल करके प्रमाण परंपरा बनती है।

 - श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

Wednesday, July 4, 2012

तृप्ति के लिए उपाय


सह-अस्तित्व के प्रस्ताव से सहमति होने से रोमांचकता तो होती है - पर उतने भर से तृप्ति नहीं है। तृप्ति के लिए क्या किया जाए? तृप्ति के लिए तुलन में प्रिय, हित, लाभ के स्थान पर न्याय, धर्म, सत्य को प्रधान माना जाए। न्याय, धर्म और सत्य को हम चाहते तो हैं ही। हम में कोई ऐसा क्षण नहीं है, जब हम न्याय, धर्म, सत्य को न चाहते हों। हम जितना भी न्याय, धर्म और सत्य को समझते हैं उसके आधार पर जब यह सोचना शुरू करते हैं - कहाँ तक यह न्याय है या अन्याय है? कहाँ तक यह समाधान है या समस्या है? कहाँ तक हम सत्य को यहाँ प्रमाणित कर पाए? इस तरह तुलन करने पर हम अपनी जिज्ञासा की वरीयता को न्याय, धर्म और सत्य में स्थिर कर लेते हैं।

 - श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

देखना और समझना



गणित आँखों से अधिक है, लेकिन समझ से कम है।  गणित द्वारा वस्तु का सम और विषम गुण समझ आता है, किन्तु मध्यस्थ को गणित द्वारा नहीं समझा जा सकता।  कारणात्मक भाषा से ही मध्यस्थ समझ में आता है।  मध्यस्थ दर्शन का मतलब है - वर्तमान को समझना।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

अपराध मुक्ति



ज्ञानी कहलाने वाले, अज्ञानी कहलाने वाले, विज्ञानी कहलाने वाले प्रकारांतर से आज अपराध के आरोप में फंसे हुए हैं।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

तृप्ति की अपेक्षा

  

सर्व मानव में तृप्ति की अपेक्षा है पर तृप्ति बिंदु मिला नहीं है।  अभी मानव न्याय की अपेक्षा में ही अपराध करता है, शान्ति की अपेक्षा में ही युद्ध करता है। न्याय और शान्ति उससे मिला नहीं.  उसका कारण है, मानव में जो कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है, उसके तृप्ति-बिंदु का न मिलना।  अभी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता संग्रह-सुविधा से तृप्ति पाने में व्यस्त है।  जबकि संग्रह-सुविधा का कोई तृप्ति बिंदु होता नहीं है।

तृप्ति के लिए स्वयं में विश्वास होना आवश्यक है।  स्वयं में विश्वास शिक्षा विधि से आएगा, न कि उपदेश विधि से या घटना विधि से।  कोई एक व्यक्ति में तृप्ति घटित भी हो जाए तो उससे संसार तृप्त हो जाए - ऐसा होता नहीं है।

सहअस्तित्व को मैंने देखा है - व्यापक वस्तु में प्रकृति के डूबे, भीगे, घिरे रहने से उसमे स्वयं स्फूर्त प्रगटन है।  उसी से एक अवस्था से दूसरी अवस्था प्रगट होती गयी।  मानव को जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में देखा गया।  जीवन भी मूल में एक परमाणु ही है।  इस तरह भौतिक-क्रिया, रासायनिक क्रिया और जीवन क्रिया अस्तित्व में हैं।  तीन ही तरह की क्रियाएं हैं।  जीवन द्वारा कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त करने का प्रावधान मानव शरीर में हुआ।  मानव शरीर रचना का ऐसा प्रगटन हुआ कि जीवन उससे अपनी कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता को व्यक्त कर सके।  इसी लिए मानव शरीर को श्रेष्ठ रचना माना गया।  

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

पुनर्विचार के लिए एक रास्ता

  

"मैंने जो साधना, अभ्यास, समाधि और संयम विधि से जो अस्तित्व में अनुभव किया उससे पुनर्विचार के लिए एक रास्ता निकला.  वह रास्ता है - सर्वमानव के पास जो कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता स्वत्व के रूप में है, उसके तृप्ति-बिंदु को पहचाना जाए, फिर धरती बीमार होने और व्यापार शोषण-ग्रस्त होने का क्या उपचार हो सकता है, यह सोचा जा सकता है। जब तक कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के तृप्ति-बिंदु को हम नहीं पहचानते, तब तक इस उपचार को लेकर पहल नहीं किया जा सकता।"

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

Tuesday, July 3, 2012

मानव की परिभाषा

 

मानव की परिभाषा है - मनाकार को साकार करना और मनः स्वस्थता को प्रमाणित करना।  मानव ने स्वयं में निहित कर्म-स्वतंत्रता को सुविधा-संग्रह लक्ष्य पूर्वक सुखी होने की कामना से प्रमाणित कर दिया।  जिससे मनाकार को साकार करने का पक्ष पूरा हुआ।  किन्तु कल्पनाशीलता के तृप्ति बिंदु के रूप में मनः स्वस्थता को प्रमाणित करना नहीं बना।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

आधार बिंदु


मानव ने अपने विगत से अब तक के प्रयासों में "भाषा" और "नाप-तौल की विधियों" को पाया है। भाषा (शब्द) जो मिली - उसको "ज्ञान" मान लिया.  दूसरी ओर, नापतौल की विधियाँ जो मिली - उसको "विज्ञान" मान लिया।  शब्द से संतुष्टि मिल नहीं पाय़ा, नापतौल से भी संतुष्टि मिला नहीं।  इस तरह संतुष्टि को पाने के लिए, विकल्प को सोचने के लिए आधार बिंदु को पहचाना गया। 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

सुख

  

"मानव सुखी होना चाहता है।  सुख के स्वरूप ज्ञान के लिए मैंने प्रयत्न किया।  मानव का अध्ययन न हो और सुख पहचान में आ जाए - ऐसा हो नहीं सकता।  दूसरे, मानव का अध्ययन करने का आधार सुखी होने के अर्थ में है, और कोई अर्थ में नहीं है।"


- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

ज्ञान

  

"कार्य की पहचान भी ज्ञान ही है, जिसे कार्य-ज्ञान कहते हैं।  कार्य-ज्ञान होता है - यह मानव जाति के पकड़ में आ गया है।  कार्य-ज्ञान के मूल में जो प्रवृत्ति है, उसे हम (मूल) ज्ञान कह रहे हैं।  वही साम्य ऊर्जा है, वही मूल ऊर्जा है।  होने के रूप में मूल ऊर्जा या ज्ञान है, रहने के रूप में कार्य-ऊर्जा या कार्य-ज्ञान है।  होना स्व है, रहना त्व है।"

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

ज्ञान का मतलब

  

"ज्ञान वह है जो व्यक्त भी हो और वचनीय भी हो। जिसको हम समझ भी सकें और समझा भी सकें।  ज्ञान का मतलब यही है।  धरती बीमार हो गयी है, हम कुछ गलती कर गए, उसको समझने के लिए और उसको ठीक करने के लिए ज्ञान चाहिए।"

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

सत्ता की पारगामीयता



"सत्ता की पारगामीयता की गवाही इकाइयों में ऊर्जा-सम्पन्नता ही है, मानव में यह ऊर्जा-सम्पन्नता ज्ञान के रूप में है।"

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)) 

Monday, July 2, 2012

संवेदना और मूल्य



"मानव ने आदि काल से अभी तक संवेदनाओं की पहचान को ही भाव या मूल्य माना है। संवेदना की पहचान के साथ ही भाषा, भंगिमा, मुद्रा, अंगहार को देखा गया।  संवेदनाओं की पहचान पूर्वक जो सम्प्रेष्णा होती है, (जीव चेतना में हम) उसी के साथ उत्तर देने लग जाते हैं।  शरीर संवेदनाओं के आधार पर मानव का तृप्ति पाना संभव नहीं हुआ - आदिकाल से अब तक। 


 यहाँ (मध्यस्थ दर्शन में) संवेदनाओं की पहचान को मूल्य (भाव) नहीं माना गया।  मूल्य को अलग से (जीवन में) पहचाना।  सह-अस्तित्व में अनुभव पूर्वक तृप्ति पाने के बाद यह सत्यापित करना बना कि मानव के साथ स्थापित मूल्य हैं - कृतज्ञता, गौरव, श्रद्धा, विश्वास, वात्सल्य, ममता, सम्मान, प्रेम, और स्नेह।"

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)


Sunday, July 1, 2012

मानव का कुल योजना और कार्यक्रम


सम्मान किसका करना है, यह अभी तक मानव जाति में तय नहीं हो पाया।  लफंगाई का सम्मान हुआ है।  तलवार का सम्मान हुआ है।  जो चुपचाप बैठ गए - उनका पूजा हुआ ही है।  जो नंगे हो गए -उनका पूजा हुआ है।  जो बहुत बढ़िया वस्त्र पहन लिए - उनका भी पूजा हुआ है।  इस तरह बहुरूपियों का सम्मान हुआ है। हम अभी तक यह तय नहीं कर पाए कि पूजा योग्य क्या है?  यहाँ आ कर हम यह समीक्षा कर सकते हैं - रूप से, पद से, धन से और बल से जो हम सम्मान पाना चाहते हैं, उससे व्यवस्था नहीं है।  समझदारी के आधार पर समाधान और श्रम के आधार पर समृद्धि पूर्वक जीने से सम्मान-जनक स्थिति बनती है, इसके पहले नहीं।  समाधान-समृद्धि पूर्वक जी सकते हैं, इस बात का प्रमाण एक व्यक्ति से शुरू होना था - वह एक व्यक्ति मैं हूँ।  अब कई व्यक्तियों के इस प्रकार जी कर प्रमाणित होने की हम बात कर रहे हैं।  


अभी तक हम अपने को समझदार माने थे, पर उससे प्रमाण नहीं हुआ।  उससे व्यापार ही प्रमाणित हुआ, नौकरी ही प्रमाणित हुआ।  व्यापार और नौकरी में अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति और अव्याप्ति दोष होता ही है।  इस तरह हम कई गलतियों को सही मान कर के चल रहे हैं।  इसका आधार रहा - भय और प्रलोभन।  अब भय और प्रलोभन चाहिए या समाधान-समृद्धि चाहिए - ऐसा पूछते हैं, तो समाधान-समृद्धि स्वतः स्वीकार होता है। समाधान के लिए कोई भौतिक वस्तु नहीं चाहिए।  हर अवस्था में, हर व्यक्ति समझदार हो सकता है।  चाहे वह एक पैसा कमाता हो, एक लाख कमाता हो, या ख़ाक कमाता हो।  समझदार होने का अधिकार सबमे समान  है, उसको प्रयोग करने की आवश्यकता है।   


पहला घाट है - हमको समझदार होना है।  फिर दूसरा घाट है - हमको ईमानदार होना है।  समझदारी के अनुसार हमको जीना है, यह ईमानदारी है।  तीसरा घाट है - हमको जिम्मेदार होना है।  हर सम्बन्ध में जिम्मेदार होना है।  चौथा घाट है - हमको अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था में भागीदारी करना है।  मानव के जीने का कुल मिला कर योजना और कार्यक्रम इतना ही है। 


 श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)