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Monday, April 20, 2009

सम्पूर्णता और पूर्णता

सम्पूर्णता और पूर्णता प्रसिद्द है।

भौतिक-रासायनिक संसार (जड़ प्रकृति) "सम्पूर्णता" के अर्थ में क्रियाशील है। हर भौतिक-रासानिक इकाई अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण है। फलस्वरूप त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदार है। यह एक सिद्धांत है।

चैतन्य संसार (जीवन) "पूर्णता" के अर्थ में क्रियाशील है। जीव-अवस्था में जीवन गठन-पूर्णता सहित वंश-अनुशंगियता विधि से शरीर रचना की व्यवस्था के अनुसार क्रियाशील है। ज्ञान-अवस्था (मनुष्य) में जीवन क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता के अर्थ में क्रियाशील है।

जड़ प्रकृति में "सम्पूर्णता" की बात है। चैतन्य प्रकृति में "पूर्णता" की बात है।

जड़ प्रकृति (भौतिक-रासायनिक संसार) जीव-शरीर और मनुष्य-शरीर के स्वरूप में भी है। इस तरह भौतिक-रासायनिक संसार गठन-पूर्णता का प्रमाण (जीने में) प्रस्तुत करता है। जीवन जड़-प्रकृति को उपयोग करते हुए अपने होने के प्रमाण को प्रस्तुत करता है।

जो "है" - उसी का अध्ययन है। "है" से वर्तमान इंगित है। "हुआ था", "हो जायेगा", "हो सकता है" का अध्ययन नहीं है। "है" के अनुसार ही "प्रवृत्ति" पहचानी जाती है। जड़-प्रकृति है, और चैतन्य-प्रकृति है। जड़-प्रकृति में सम्पूर्णता की प्रवृत्ति है। चैतन्य प्रकृति में पूर्णता की प्रवृत्ति है। अस्तित्व में प्रवृत्ति इतना ही है।

जड़-प्रकृति में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन है। मनुष्य में ही गुणात्मक परिवर्तन पूर्वक क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता को प्रकाशित करने का अवसर है। यह अवसर कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के रूप में है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००९, अमरकंटक)

4 comments:

Gopal said...

Rakesh,

A small observation here.

Matter order is complentary for animate world in achieveing and proving the Jagarti. Without body we wont be able to achieve and prove our understanding. Does that co-existence also applies to various kinds of human kinds as well. Does existence a pashu manav or devil manav ( which most of us are ) helpful in jagarti of other manavs ?

Regards,
Gopal.

Rakesh Gupta said...

Dear Gopal,

Human-being begins its journey (in history of mankind) for awakening from unawakened-state only. There is no other way...

पशु मानव और राक्षस मानव में भी जाग्रति की प्यास है. हम जो भी कर रहे हैं, वह सुखी होने की मूल-चाहत के अर्थ में ही कर रहे हैं. पशु-मानव और राक्षस-मानव में जीने में निश्चयता या विश्वास का कोई आधार स्वयं में नहीं होता. इस लिए एक पशु-मानव या राक्षस-मानव दूसरे के लिए "दबाव" या पीडा का कारण ही बनता है. इस दबाव या पीडा से मुक्त होने के लिए प्रयास करना बनता है. प्रयास अनुसंधान के रूप में होता है, या अध्ययन के रूप में.

हर मनुष्य-इकाई जाग्रति के लिए प्यासा है. इस अर्थ में हमारा सभी का लक्ष्य एक ही है. इस एक लक्ष्य को यदि हम पहचान लेते हैं, तो हम अपनी अजागृत स्थिति में भी एक दूसरे के लिए पूरक-उपयोगी हो सकते हैं - अध्ययन के लिए. बिना समान लक्ष्य को पहचाने हुए, बिना स्वयं की स्थिति को स्पष्ट किये हुए - हम एक दूसरे के लिए पूरक-उपयोगी नहीं हो सकते - ऐसा मेरा मानना है.

अध्ययन के पूरा हुए बिना बिना कोई जागृत हो नहीं सकता. अध्ययन अस्तित्व में अपने संबंधों की पहचान के लिए ही है. आज की स्थिति में हमारे संबन्धी और हम स्वयं जागृत नहीं हैं. ऐसे में समान लक्ष्य के आधार पर ही हम अपने सम्बन्धियों, परिवार-जनों के साथ अपना एक निश्चित कार्यक्रम निकाल सकते हैं. "हम अजागृत हैं "- यह स्वयं के प्रति हीन-भावना और अपने सम्बन्धियों के प्रति अविश्वास को पैदा करने के लिए नहीं है. यह हमारी आज की स्थिति का मूल्यांकन है. अपने सही मूल्यांकन के बिना हम आगे का निश्चित कार्यक्रम नहीं निकाल सकते - ऐसा मैं मानता हूँ.

Regards,
Rakesh...

Gopal said...

Thanks Rakesh for detailed reply. On another note Baba says :

"मनुष्य में ही गुणात्मक परिवर्तन पूर्वक क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता को प्रकाशित करने का अवसर है। "

So there is no scope of qualitative change in animals but only in humans? Animals already behave the way they will ever do. There is no need for them to change, in this existence. They play their role as needed.

Is that conclusion correct ?

Regards,
Gopal.

Rakesh Gupta said...

Yes - this conclusion is absolutely correct, in my view. Adhyayan and Anusandhan are the only two ways of achieving qualitative change in jeevan (self). Only human-being has the need for doing these, and therefore a possibility for doing this - due to faculty of imagination.

The changes in animal-behaviour happen due to human-interference. For example, cows naturally eat grass. If they are forced to eat meat by some human-interference - it would alter their behaviour. Another example is domestication or taming of animals. All animal-behaviour is instinctual or trained. Domestication/taming also involves training against natural-instincts of animals. None of these is anywhere close to qualitative change in jeevan through adhyayan or anusandhan.

A good deal of effort of Science is spent on studying animal-behaviour and trying to see parallels in human-behaviour. Humans do behave like animals in animal-consciousness, therefore they are able to see some correlation. Madhyasth-Darshan proposes that Humans are a different specie altogether. The need for happiness, knowledge, justice, orderliness - is unique to humans. It is distinct from instint in animals. It is natural-inclination in jeevans of human-beings - which is manifested in all their actions. This need or thirst has remained unfulfilled in all of human-history. This need can be fulfilled by study in existence proposed by madhyasth-darshan - is the message here.

Regards,
Rakesh.