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Friday, May 1, 2009

ज्ञान व्यक्त होने वाली चीज है.

ज्ञान की अपेक्षा मानव के पास सदा से रहा है। सर्वप्रथम चार विषयों के ज्ञान को ही मनुष्य ने सम्पूर्ण ज्ञान मान कर जिया। उसके बाद पाँच संवेदनाओं को ज्ञान माना। इसलिए आज तक मनुष्य संवेदनशीलता के आधार पर संवदेनाओं को संतुलित बना कर रखने के अर्थ में जीता रहा। अभी तक मनुष्य ऐसे ही जीता आया है - इससे आगे जीना नहीं बना है।

इसके अलावा भी कुछ ज्ञान होता है - यह ईश्वरवाद ने लाया। किंतु ज्ञान को अव्यक्त और अनिर्वचनीय बता कर रास्ता बंद कर दिया। ज्ञान क्या है ? - यह ईश्वरवाद से परम्परा में पहुँचा नहीं।

४ विषयों में जीने से ज्यादा अच्छा ५ संवेदनाओं के अर्थ में जीना है - यह श्रेष्ठता की एक गति रही। इस तरह, जीवों से भिन्न तरीके से जीना बना। लेकिन पाँच संवेदनाओं के अर्थ में जीना भी जीव-चेतना की सीमा में ही है। जीव-चेतना विधि से मनुष्य जैसा भी जिया, जो भी कर पाया - उससे धरती बीमार हो गयी।

अब अस्तित्व-मूलक मानव केंद्रित चिंतन से यह प्रस्ताव आया - मनुष्य जाति की मानव-चेतना की ओर गति आवश्यक है। "ज्ञान व्यक्त होने वाली चीज है" - यहाँ से शुरुआत किए। यह ईश्वरवाद/आदर्शवाद के प्रस्ताव से भिन्न है। जैसे - चार विषयों का ज्ञान व्यक्त हुआ, फ़िर पाँच संवेदनाओं का ज्ञान व्यक्त हुआ, वैसे ही मानव-चेतना का ज्ञान भी व्यक्त होगा।

जीव-चेतना विधि से जीने से मनुष्य ने स्वयं तो अपराध किया ही, अपनी आगे पीढी के लिए भी खतरा पैदा किया। आगे पीढी - जिसने कोई अपराध नहीं किया, उसके लिए सुविधा करने की जगह खतरा पैदा कर दिया।

मनुष्य जाति से गलती हो गयी है - यह पता चलता है। गलती स्वीकार होता नहीं है। गलती से मुक्ति पाने की आवश्यकता महसूस होती है। उस स्थिति में जीव-चेतना से मानव-चेतना में संक्रमित होने के लिए मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव रखा है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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