- श्रद्धेय नागराज जी के उदबोधन से (जीवन विद्या सम्मलेन २००६, कानपुर)
This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
ANNOUNCEMENTS
Friday, February 23, 2018
Thursday, February 22, 2018
इतिहास में अभी तक मानव द्वारा प्रकृति के साथ पूरकता की पहचान नहीं हुई.
प्रश्न: क्या मानव अपने इतिहास में प्रकृति के साथ अपनी पूरकता के अर्थ में अपने 'आहार', 'आवास' और 'अलंकार' को पहचान पाया?
उत्तर: आयुर्वेद और वेदविचार भी मानवीय आहार का निर्णय नहीं कर पाया. मानव को शाकाहार करना चाहिए या मांसाहार इस निर्णय पर नहीं पहुँच पाया. जीव चेतना में रहते हुए आहार का निर्णय करना बनता ही नहीं है. मानव स्वयं को जीव ही माना है, और जीव दोनों प्रकार के आहार करते दिखते हैं तो मानव ने भी दोनों प्रकार के आहार करना शुरू कर दिया. उसके साथ नशाखोरी का अभ्यास जुड़ गया.
आवास और अलंकार को लेकर मानव ने एक से बढ़ कर एक चीजों को तैयार किया, किन्तु वह सब 'सुविधा' के अर्थ में रहा न कि 'पूरकता' के अर्थ में. मानव प्रकृति को नाश करने गया न कि उसके साथ पूरक बनने. जीव चेतना पर्यंत पूरकता की बात ही नहीं है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
उत्तर: आयुर्वेद और वेदविचार भी मानवीय आहार का निर्णय नहीं कर पाया. मानव को शाकाहार करना चाहिए या मांसाहार इस निर्णय पर नहीं पहुँच पाया. जीव चेतना में रहते हुए आहार का निर्णय करना बनता ही नहीं है. मानव स्वयं को जीव ही माना है, और जीव दोनों प्रकार के आहार करते दिखते हैं तो मानव ने भी दोनों प्रकार के आहार करना शुरू कर दिया. उसके साथ नशाखोरी का अभ्यास जुड़ गया.
आवास और अलंकार को लेकर मानव ने एक से बढ़ कर एक चीजों को तैयार किया, किन्तु वह सब 'सुविधा' के अर्थ में रहा न कि 'पूरकता' के अर्थ में. मानव प्रकृति को नाश करने गया न कि उसके साथ पूरक बनने. जीव चेतना पर्यंत पूरकता की बात ही नहीं है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
Sunday, February 18, 2018
प्रमाणित होने के उद्देश्य के साथ ही साक्षात्कार होता है
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद (जनवरी २००७, अमरकंटक)
भय और प्रलोभन के साथ ही सम्मोहन होता है.
प्रश्न: न्याय, धर्म और सत्य को आप भाषा में व्यक्त करते हैं - हमे अध्ययन के लिए सूचना देने के लिए. क्या ऐसे में यह संभावना नहीं है कि हम केवल इन शब्दों से ही सम्मोहित हो जाएँ और अर्थ तक पहुँच ही नहीं पायें?
उत्तर: भय और प्रलोभन के साथ ही सम्मोहन होता है. सम्मोहन का मतलब ही भय और प्रलोभन है. भय और प्रलोभन मानव जाति के लिए अतिवाद है, क्योंकि ये व्यक्तिवाद और समुदायवाद में सीमित है. इतना ही सम्मानजनक विधि से कहा जा सकता है.
जीव चेतना की अंतिम पहुँच है - "न्याय", "धर्म", "सत्य" का नाम लेने तक पहुँच जाना.
यहाँ न्याय, धर्म और सत्य को लेकर जितना भी "सूचना" दिया गया है, क्या वह सम्मोहन में फंसता है? सत्य को तोलना क्या भय और प्रलोभन से जुड़ता है? धर्म (समाधान) को तोलना क्या भय और प्रलोभन से जुड़ता है? न्याय को तोलना क्या भय और प्रलोभन से जुड़ता है?
इस सूचना के आधार पर तोलना वास्तविकता से जुड़ता है, क्योंकि न्याय, धर्म, सत्य व्यवहार में प्रमाणित हो सकता है.
इस सूचना के आधार पर तोलना वास्तविकता से जुड़ता है, क्योंकि न्याय, धर्म, सत्य व्यवहार में प्रमाणित हो सकता है.
इस सूचना से सम्मोहन नहीं है तो इसको क्या नाम दोगे? हम सही की ओर एक कदम आगे बढ़ गए - यही कहना होगा.
पहला तर्क यह है - आगे बढ़ना है या नहीं बढ़ना है? अभी तक (जीव चेतना में) हम जैसा जिए उससे समस्याएं हो गयी. समस्या से समाधान में अंतरित होना है या नहीं? - पहला तर्क यही है. इसमें समाधान को ही वरना बनता है. समस्या परंपरा बन नहीं सकती. समाधान की ओर जाने के लिए न्याय, धर्म, सत्य को लेकर यहाँ सूचना दी गयी है, जो विकल्प है.
पहला तर्क यह है - आगे बढ़ना है या नहीं बढ़ना है? अभी तक (जीव चेतना में) हम जैसा जिए उससे समस्याएं हो गयी. समस्या से समाधान में अंतरित होना है या नहीं? - पहला तर्क यही है. इसमें समाधान को ही वरना बनता है. समस्या परंपरा बन नहीं सकती. समाधान की ओर जाने के लिए न्याय, धर्म, सत्य को लेकर यहाँ सूचना दी गयी है, जो विकल्प है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
Saturday, February 17, 2018
जीवन की पहचान उसकी क्रियाओं से ही होती है.
प्रश्न: जीवन को हम कैसे पहचाने?
जीवन की पहचान उसकी क्रियाओं से ही होती है. हर व्यक्ति के पास जीवन है, जिसमे १० क्रियाएं हैं. इसको हर व्यक्ति अपने में जांच सकता है. मैंने जांचा तो मुझको प्रमाण मिला, वो मेरे जीने के लिए संतुष्टि हो गया.
इस बात की "सूचना" इसीलिए देते हैं क्योंकि इसको हर व्यक्ति जांच सकता है. सूचना वही है जिसको जांचा जा सके.
प्रश्न: मैं आशा, विचार, इच्छा क्रियाओं के स्वयं में होने को तो कुछ-कुछ पहचान पाता हूँ, पर साक्षात्कार क्रिया को नहीं - ऐसा क्यों?
उत्तर: आगे चल के पहचान पायेंगे! अभी आपके सामने साक्षात्कार क्रिया की सूचना आयी है. साक्षात्कार के लिए अभी हम अध्ययन के कई सूत्रों को पहचाने हैं. ये सूत्र न्याय-धर्म-सत्य को लेकर है.
हम साक्षात्कार क्रिया को नहीं पहचान पाते हैं क्योंकि अभी शरीर को ही हम जीवन मान के बैठे हैं. (अभी हम आशा-विचार-इच्छा को जो कुछ-कुछ पहचान पा रहे हैं वह शरीर के अर्थ में ही है. ) शरीर से सम्बंधित बातों में चित्त से आगे (आशा, विचार और इच्छा से आगे) सोचने की ज़रुरत ही महसूस नहीं होती है. शरीर को जीवन माने हैं, इसीलिये हम प्रिय-हित-लाभ की सीमा में (जीवचेतना में) जी रहे हैं.
सूचना से अर्थ को प्राप्त करने का अधिकार कल्पनाशीलता स्वरूप में हर मनुष्य के पास रखा है. मानव सुनता और देखता भी कल्पनाशीलता के सहारे ही है. इसी कल्पनाशीलता का प्रयोग न्याय-धर्म-सत्य की सूचना के साथ करने की आवश्यकता है. शब्द की सीमा में रहने से यह प्रयोग होता नहीं है. न्याय-धर्म-सत्य की सूचना और कल्पनाशीलता के संयोग से आगे बढ़ने का रास्ता निकलता है.
न्याय-धर्म-सत्य की सूचना के आधार पर कल्पनाशीलता तदाकार होती है. फिर न्याय-धर्म-सत्य और प्रिय-हित-लाभ में से क्या 'सही' है - यह निश्चयन होता है. तुलन में न्याय-धर्म-सत्य स्थिर होने पर ही साक्षात्कार होता है, उसके पहले नहीं.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
जीवन की पहचान उसकी क्रियाओं से ही होती है. हर व्यक्ति के पास जीवन है, जिसमे १० क्रियाएं हैं. इसको हर व्यक्ति अपने में जांच सकता है. मैंने जांचा तो मुझको प्रमाण मिला, वो मेरे जीने के लिए संतुष्टि हो गया.
इस बात की "सूचना" इसीलिए देते हैं क्योंकि इसको हर व्यक्ति जांच सकता है. सूचना वही है जिसको जांचा जा सके.
प्रश्न: मैं आशा, विचार, इच्छा क्रियाओं के स्वयं में होने को तो कुछ-कुछ पहचान पाता हूँ, पर साक्षात्कार क्रिया को नहीं - ऐसा क्यों?
उत्तर: आगे चल के पहचान पायेंगे! अभी आपके सामने साक्षात्कार क्रिया की सूचना आयी है. साक्षात्कार के लिए अभी हम अध्ययन के कई सूत्रों को पहचाने हैं. ये सूत्र न्याय-धर्म-सत्य को लेकर है.
हम साक्षात्कार क्रिया को नहीं पहचान पाते हैं क्योंकि अभी शरीर को ही हम जीवन मान के बैठे हैं. (अभी हम आशा-विचार-इच्छा को जो कुछ-कुछ पहचान पा रहे हैं वह शरीर के अर्थ में ही है. ) शरीर से सम्बंधित बातों में चित्त से आगे (आशा, विचार और इच्छा से आगे) सोचने की ज़रुरत ही महसूस नहीं होती है. शरीर को जीवन माने हैं, इसीलिये हम प्रिय-हित-लाभ की सीमा में (जीवचेतना में) जी रहे हैं.
सूचना से अर्थ को प्राप्त करने का अधिकार कल्पनाशीलता स्वरूप में हर मनुष्य के पास रखा है. मानव सुनता और देखता भी कल्पनाशीलता के सहारे ही है. इसी कल्पनाशीलता का प्रयोग न्याय-धर्म-सत्य की सूचना के साथ करने की आवश्यकता है. शब्द की सीमा में रहने से यह प्रयोग होता नहीं है. न्याय-धर्म-सत्य की सूचना और कल्पनाशीलता के संयोग से आगे बढ़ने का रास्ता निकलता है.
न्याय-धर्म-सत्य की सूचना के आधार पर कल्पनाशीलता तदाकार होती है. फिर न्याय-धर्म-सत्य और प्रिय-हित-लाभ में से क्या 'सही' है - यह निश्चयन होता है. तुलन में न्याय-धर्म-सत्य स्थिर होने पर ही साक्षात्कार होता है, उसके पहले नहीं.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
ईश्वर का स्वरूप
विगत में आदर्शवादियों ने बताया था कि दृष्टा, कर्ता, भोक्ता ईश्वर ही है. जबकि यहाँ कह रहे हैं कि ईश्वर न कर्ता पद में है, न दृष्टा पद में है, न भोक्ता पद में है.
ईश्वर में सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति प्रेरणा पाया है. "ईश्वर प्रेरक है" - यह भी कहना बनता नहीं है. प्रेरणा देने का भी उसमे कोई स्त्रोत नहीं है. सहअस्तित्व में प्रकृति प्रेरणा पाने योग्य स्थिति में है. प्रकृति स्वयंस्फूर्त विधि से, स्वयं प्रवर्तन विधि से प्रेरणा पाता ही रहता है. यह वैसे ही है - कपड़ा पानी में भीगता है, न कि पानी कपड़े को भिगाता है! भीगने का गुण कपड़े में है. पानी अपने स्वरूप में ही रहता है. इसी प्रकार व्यापक अपने में ऊर्जा स्वरूप होने के आधार पर प्रकृति ऊर्जा-संपन्न रहता ही है. इसीके फलन में विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम और जागृति का प्रकटनक्रम है.
अभी तक जीवन को न पहचानने से, 'जीव' को अल्पज्ञ मानने से, 'जीव' ईश्वर से पैदा हुआ है मानने से, और इन सब मान्यताओं का कोई तालमेल न बैठने से हमको कोई ज्ञान हाथ नहीं लगा. इसीलिये मानव जाति अपने संतान में न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित करने में, सही कार्य-व्यवहार को प्रमाणित करने में, और सत्य बोध कराने में सर्वथा असमर्थ रही. मानव जाति में ज्ञानी, अज्ञानी और विज्ञानी तीनो शामिल हैं. ये फैसला यदि स्वयं में नहीं होता है तो हम आगे पहुंचेंगे नहीं! कहीं न कहीं गुड-गोबर बनाने का काम रहेगा ही. गुड-गोबर करने से न गुड हाथ लगेगा, न गोबर!
जीवन समझ में आने से जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में मानव का अध्ययन सुलभ हो जाता है. शरीर के बारे में मानव ने अधिकाँश ज्ञान अर्जित कर लिया है. जो बचा होगा उसे आगे अर्जन कर लिया जा सकता है. शिक्षा विधि में जीवन ज्ञान का समावेश होना अब आवश्यक है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
ईश्वर में सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति प्रेरणा पाया है. "ईश्वर प्रेरक है" - यह भी कहना बनता नहीं है. प्रेरणा देने का भी उसमे कोई स्त्रोत नहीं है. सहअस्तित्व में प्रकृति प्रेरणा पाने योग्य स्थिति में है. प्रकृति स्वयंस्फूर्त विधि से, स्वयं प्रवर्तन विधि से प्रेरणा पाता ही रहता है. यह वैसे ही है - कपड़ा पानी में भीगता है, न कि पानी कपड़े को भिगाता है! भीगने का गुण कपड़े में है. पानी अपने स्वरूप में ही रहता है. इसी प्रकार व्यापक अपने में ऊर्जा स्वरूप होने के आधार पर प्रकृति ऊर्जा-संपन्न रहता ही है. इसीके फलन में विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम और जागृति का प्रकटनक्रम है.
अभी तक जीवन को न पहचानने से, 'जीव' को अल्पज्ञ मानने से, 'जीव' ईश्वर से पैदा हुआ है मानने से, और इन सब मान्यताओं का कोई तालमेल न बैठने से हमको कोई ज्ञान हाथ नहीं लगा. इसीलिये मानव जाति अपने संतान में न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित करने में, सही कार्य-व्यवहार को प्रमाणित करने में, और सत्य बोध कराने में सर्वथा असमर्थ रही. मानव जाति में ज्ञानी, अज्ञानी और विज्ञानी तीनो शामिल हैं. ये फैसला यदि स्वयं में नहीं होता है तो हम आगे पहुंचेंगे नहीं! कहीं न कहीं गुड-गोबर बनाने का काम रहेगा ही. गुड-गोबर करने से न गुड हाथ लगेगा, न गोबर!
जीवन समझ में आने से जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में मानव का अध्ययन सुलभ हो जाता है. शरीर के बारे में मानव ने अधिकाँश ज्ञान अर्जित कर लिया है. जो बचा होगा उसे आगे अर्जन कर लिया जा सकता है. शिक्षा विधि में जीवन ज्ञान का समावेश होना अब आवश्यक है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
Friday, February 16, 2018
जीवन में दृष्टा विधि और अनुभव विधि
जीवन (चैतन्य प्रकृति) अपने स्वरूप में एक गठनपूर्ण परमाणु है. गठनपूर्ण परमाणु अस्तित्व में है. गठनपूर्ण परमाणु का नाम ही जीवन है. जीवन में १० क्रियाएं होती हैं. इनमे से जीव-संसार में वंश अनुरूप जीने के स्वरूप में मन की आशा व्यक्त हुई. इससे ज्यादा नहीं. जीव-संसार जीने की आशा को चार विषयों के क्रियाकलाप स्वरूप में व्यक्त करता है. हर जीव का विषय क्रियाकलाप उसके वंश के अनुरूप है. गाय का तरीका अलग है, बाघ का अलग है, भालू का अलग है.
मानव जब प्रकट हुआ तो पहले चार विषयों से ही शुरू किया. इसका आधार रहा मानव द्वारा जीवों का अनुकरण. मानव अपनी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता के चलते जीव-संसार का अनुकरण करने लगा. अनुकरण करने की प्रवृत्ति मनुष्य के पास है. यह बात अभी भी बचपन में देखी जाती है. तब से आज चलते-चलते मानव इस जगह पहुँच गया है कि वह अध्ययन पूर्वक जीवन को समझ सकता है. इसको प्रस्ताव रूप में यहाँ (मध्यस्थ दर्शन में) प्रस्तुत किये हैं.
अभी तक परम्परा में "जीवन" का ज़िक्र नहीं था, "जीव" का ज़िक्र था. "जीव" को लेकर यही माना जाता था जैसे अनेक प्रकार के वंश में जीव-संसार है वैसा ही मानव भी है. किन्तु ऋषि-मह्रिषियों ने बताया - यह ठीक नहीं है, ज्ञान होना चाहिए! ज्ञान कहाँ है? - यह पूछने पर कहा कि तुम समझ नहीं सकते हो, ज्ञान अव्यक्त और अनिर्वचनीय है. ज्ञान का परम्परा में ज़िक्र तो बहुत हुआ (थोडा ज्यादा ही हुआ!) किन्तु ज्ञान को अध्ययन कराने में वे सर्वथा असफल रहे. इसीलिये उसका परंपरा नहीं हुआ. इसकी गवाही यही है. अब यहाँ पूरा ज्ञान अध्ययन कराने के लिए प्रस्तावित कर दिया. ज्ञान का चौखट तीन स्तंभों में दिया - (१) अस्तित्व दर्शन ज्ञान (२) जीवन ज्ञान (३) मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान. उसमे से अभी यहाँ जीवन ज्ञान की बात हम कर रहे हैं.
प्रश्न: जीवन को अध्ययन करने का विधि जीवन में कैसे समाया है?
उत्तर: दृष्टा विधि और अनुभव विधि के योग में यह रखा है. भौतिक-रासायनिक संसार और मानव शरीर का दृष्टा 'मन' है. मन का दृष्टा वृत्ति है. विचार शक्तियाँ मन को विश्लेषित करती हैं. वृत्ति का दृष्टा चित्त है. इच्छा के अनुरूप विश्लेषण हुआ या नहीं इसको चित्त बताता है. चित्त का दृष्टा बुद्धि है. अनुभव प्रमाण के अनुसार इच्छाएं हुई या नहीं - इसका दृष्टा बुद्धि है. बुद्धि का दृष्टा आत्मा है. अनुभव के अनुरूप बुद्धि में बोध पहुंचा या नहीं पहुंचा - इसका दृष्टा आत्मा है.
अनुभव विधि में मन वृत्ति में अनुभूत होता है या मन वृत्ति के अनुसार चलता है. वृत्ति चित्त के अनुसार चलता है. चित्त से जो प्रेरणा हुई उसको वृत्ति स्वीकार लेता है, इसका नाम है - वृत्ति का चित्त में अनुभव करना. चित्त बुद्धि में अनुभव करता है. बुद्धि आत्मा में और आत्मा सहअस्तित्व में अनुभव करता है. इस ढंग से दृष्टा विधि और अनुभव विधि के योगफल में जीवन जीवन का अध्ययन करता है. यह व्यवस्था जीवन में ही बनी है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
Wednesday, February 14, 2018
Tuesday, February 13, 2018
Monday, February 12, 2018
प्रत्यावर्तन - परावर्तन
प्रत्यावर्तन है - समझने की क्रिया. परावर्तन है - समझाने की क्रिया. ये दोनों क्रियाएं जीवन से होती हैं.
ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्बन्धी बातों को हम समझते हैं और समझाते हैं. ये केवल जीवन से सम्बंधित हैं. इसके बाद सीखने-सिखाने और करने-कराने की भी बात होती है. उसमे शरीर और जीवन दोनों का संयुक्त पुट रहता है.
समझा हुआ को समझाना, सीखा हुआ को सिखाना, और किया हुआ को कराना - ये ईमानदारी का कार्यक्रम है या "उपकार" है. इसके अलावा सब गपशप है!
समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और भागीदारी में से समझदारी मूल है. समझदारी के आधार पर ही बाकी तीनो आते हैं. समझदारी के आधार पर ईमानदारी, ईमानदारी के आधार पर जिम्मेदारी, जिम्मेदारी के आधार पर भागीदारी होना देखा गया. इसका नाम है - जागृति. जागृति के आधार पर हम कुछ भी करते हैं तो समाधान ही होता है, न्याय ही होता है.
- श्रद्देय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
स्थिति-गति
स्थिति-गति स्वरूप में ही सारी वस्तुएं हैं. हर वस्तु स्थिति के साथ गति है.
स्थिति वस्तु के स्वयं में 'होने' के प्रति प्रतिबद्धता है.
'होने' के रूप में स्थिति है, 'रहने' के रूप में गति है.
स्थिति गठन है, जो स्थिर है, होने का प्रमाण है. गठन ही स्थिति क्रिया है.
गति को आचरण (व्यवस्था में भागीदारी), स्थानान्तरण और परिवर्तन के रूप में पहचाना.
जैसे - दो परमाणु अंशों के परमाणु की एक स्थिति है. यह स्थिति होते हुए उसमे घूर्णन, वर्तुल और कम्पन गति है. इसके आचरण का परिशीलन करने गए तो उसमे स्थानान्तरण भी है और परिवर्तन भी है.
विज्ञानी ने स्थिति को नहीं पहचाना, गति को पहचाना. स्थिति के बिना गति को पहचानने गए तो उसे अस्थिर और अनिश्चित बता दिया.
जबकि सम्पूर्ण अस्तित्व स्थिति-गति स्वरूप में नित्य वर्तमान है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
Saturday, February 10, 2018
न्याय तक पहुँचने का मार्ग
न्याय चाहिए, पर प्रिय-हित-लाभ के चंगुल से छूटे नहीं है - ये आपकी अभी की स्थिति है. ऐसे में आप न्याय को भी संवेदनाओं के साथ जोड़ने लगते हैं. जबकि न्याय संबंधों में होता है. प्रिय-हित-लाभ के साथ न्याय कुछ होना नहीं है. अभी जिसको हम "न्याय" माने रहते हैं वह प्रिय के अर्थ में ही होता है. अभी किसी बात को राजी-गाजी से "न्याय" मान लेते हैं, वह थोड़ी देर में जा के fail हो जाता है. ऐसे में हम "न्याय-प्रिय" तो हो जाते हैं, पर न्याय प्रमाणित नही होता.
शब्द द्वारा न्याय शाश्वत वस्तु होना इंगित होता है. उतना ही शब्द का प्रयोजन है. इंगित होने के बाद कल्पना में आना ही है, तुलन होना ही है, चित्त में साक्षात्कार होना ही है. ये तीनो होने पर बोध और अनुभव होता ही है. शब्द को पहचानना हो गया. संबंधों का नाम लेना हो गया. अब उनके अर्थ को पहचानने की ज़रुरत है. अर्थ है व्यवस्था. व्यवस्था बोध होने के बाद संबंधों का निर्वाह होना स्वाभाविक हो जाता है.
न्याय दृष्टि मानव में रहता ही है, पर जागृत नहीं हुआ रहता. न्याय दृष्टि पहले अध्ययन विधि से कल्पना में आता है. अध्ययन विधि न्याय को पहचानने के लिए संबंधों तक पहुंचा देता है. संबंधों की निर्वाह निरंतरता में न्याय होता है. संबंधों के नाम लेना हमारे अभ्यास में है ही. संबंधों के प्रयोजन को पहचानने की बात है. सभी संबंधों का प्रयोजन है - व्यवस्था में जीना.
संबंधों की निरंतरता शब्द नहीं है. संबंधों की निरंतरता जीवन में होने वाली प्रक्रिया है. संबंधों की निरंतरता का निर्वाह होने पर न्याय अपने आप से आता है. जैसे ही अभिभावक ने संतान को अपना माना, उनमे ममता-वात्सल्य अपने आप से उमड़ता है. उसके लिए उनको कोई ट्रेनिंग या उपदेश की आवश्यकता नहीं है. अपने आप से इसलिए उमड़ता है क्योंकि जीवन में ये मूल्य निहित हैं. संबंधों की पहचान होने पर ये प्रकट होते हैं.
हम शब्दों में ही न खेलते रह जाएँ, इसके लिए अर्थ समझे हुए प्रमाणित व्यक्ति (अध्यापक) का होना महत्त्वपूर्ण है. यही अध्ययन में सफलता की पूंजी है. यही सफलता की कुंजी भी है!
ज्ञान रहस्य नहीं है. सहअस्तित्व है - उसको समझना है. जीवन है - उसको समझना है. हम हर दिन कुछ न कुछ करते हैं - अपने उस आचरण को समझना है. समझने वाला कौन है? इसको शोध करने पर निकलता है - हम ही समझते हैं! हमारे में जीवन समझता है. शोध पूर्वक स्वीकार होने पर यह स्वयं में स्थिर हो जाता है. स्थिर हो जाता है, क्योंकि अस्तित्व स्वयं स्थिर है. जागृति निश्चित है. मानव का गम्यस्थली जागृति ही है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
Friday, February 9, 2018
प्रयोग का स्थान
जो परंपरा में प्रावधानित नहीं है, उसके लिए प्रयोग करना पड़ेगा.
प्रयोग दो प्रकार के हैं - अज्ञात को ज्ञात करने के लिए और अप्राप्त को प्राप्त करने के लिए.
अप्राप्त को प्राप्त करने की जहां तक बात है - वह सामान्याकान्क्षा और महत्त्वाकांक्षा सम्बन्धी वस्तुओं से सम्बंधित है. वे सब मानव को प्रयोग द्वारा प्राप्त हो चुके हैं. अप्राप्त को प्राप्त करने का और कोई खाका बनता नहीं है. बनता होगा तो और भी प्रयोग हो जाएगा. अब जो कुछ प्रयोग "प्राप्ति" को लेकर हो रहे हैं वे केवल ज्यादा लाभार्जन को लेकर हैं. (मेरे अनुसार) और कुछ प्रयोग धरती पर शेष नहीं रह गया है.
अज्ञात को ज्ञात करना मनः स्वस्थता के लिए है. अज्ञात को ज्ञात करने के लिए या मनः स्वस्थता के लिए (मध्यस्थ दर्शन का) यह प्रस्ताव सामने आ गया है. यह प्रस्ताव अध्ययन करने के बाद भी यदि पूरा नहीं पड़ता हो तो पुनः प्रयोग किया जाए.
(मेरे अनुसार) अब प्रयोग का स्थान नहीं है. अब अध्ययन विधि से प्रबोधन और व्यवहाराभ्यास पूर्वक मनः स्वस्थता को प्रमाणित किया जाए. कर्माभ्यास विधि से तकनीकी को प्रमाणित किया जाए. इस प्रकार की शिक्षा-संस्कार व्यवस्था को स्थापित करने की आवश्यकता है. यह स्थापित होगा - आज नहीं तो कल!
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
शिक्षा में प्रवेश
इस प्रस्ताव में सहमत होने के बाद हम तर्क विधि से, विवेक विधि से यहीं पहुँचते हैं कि इसको प्रमाणित होने में देरी नहीं करनी चाहिए. उसके लिए हम जो योजना रखे हैं उसमे कहा तत्काल एक शिक्षण संस्था को स्थापित किया जाए, जिसमे पहली कक्षा से १२वीं कक्षा तक, १२वीं से स्नातक और स्नातकोत्तर तक इस दर्शन को समझाने की व्यवस्था दिया जाए. इस संस्था को चाहे "आश्रम" कहो, "शाला" कहो, "विद्यालय" कहो, या "विश्वविद्यालय" कहो! कुछ भी उसको नाम दो, पर उसमे होनी पूरी बात ही चाहिए.
मेरे अनुसार अभी वर्तमान में १५ (१२ + ३) वर्ष का स्नातक शिक्षा का क्रम बनाया गया है, उसको disturb न किया जाए. उसी फ्रेम में वस्तु को भरा जाए. अभी की शिक्षा वस्तु विहीन है, बल्कि उसमे अपराध सूत्र भरे हुए हैं. अभी १५ वर्ष की शिक्षा में न्याय प्रदायी क्षमता विकसित करने का, सही कार्य-व्यवहार करने की सूत्र व्याख्या का, और सत्य बोध करवाने का कोई व्यवस्था नहीं है. अभी जो धरती पर हजारों विश्वविद्यालय हैं क्या किसी के पास यह व्यवस्था है?
इसको इन्टरनेट पर पूछ के देखो! मेरा नाम लेना (मैं जिम्मेदारी लेता हूँ इसकी). अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन प्रस्तुत हो गया है. वहाँ कहना, हमने सर्वेक्षण किया है. इस सर्वेक्षण में पाया गया - "जन्म से ही हर मानव न्याय का याचक है, सही कार्य-व्यवहार करने का इच्छुक है, और सत्य-वक्ता है." इनके लिए सत्य बोध कराने, सही कार्य-व्यवहार का अभ्यास कराने, और न्याय प्रदायी क्षमता को स्थापित करने के लिए आपके पास क्या सूत्र है, क्या व्याख्या है?
जितने भी universities हैं, उनसे यह पूछना क्या आपसे बन पायेगा? यह पूछ के देखिये, क्या होता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
मेरे अनुसार अभी वर्तमान में १५ (१२ + ३) वर्ष का स्नातक शिक्षा का क्रम बनाया गया है, उसको disturb न किया जाए. उसी फ्रेम में वस्तु को भरा जाए. अभी की शिक्षा वस्तु विहीन है, बल्कि उसमे अपराध सूत्र भरे हुए हैं. अभी १५ वर्ष की शिक्षा में न्याय प्रदायी क्षमता विकसित करने का, सही कार्य-व्यवहार करने की सूत्र व्याख्या का, और सत्य बोध करवाने का कोई व्यवस्था नहीं है. अभी जो धरती पर हजारों विश्वविद्यालय हैं क्या किसी के पास यह व्यवस्था है?
इसको इन्टरनेट पर पूछ के देखो! मेरा नाम लेना (मैं जिम्मेदारी लेता हूँ इसकी). अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन प्रस्तुत हो गया है. वहाँ कहना, हमने सर्वेक्षण किया है. इस सर्वेक्षण में पाया गया - "जन्म से ही हर मानव न्याय का याचक है, सही कार्य-व्यवहार करने का इच्छुक है, और सत्य-वक्ता है." इनके लिए सत्य बोध कराने, सही कार्य-व्यवहार का अभ्यास कराने, और न्याय प्रदायी क्षमता को स्थापित करने के लिए आपके पास क्या सूत्र है, क्या व्याख्या है?
जितने भी universities हैं, उनसे यह पूछना क्या आपसे बन पायेगा? यह पूछ के देखिये, क्या होता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
Thursday, February 8, 2018
पद्दति के साथ आगे पैर रखना है.
धीरज से, पूरा विश्लेषण से, पूरा सार्थकता की चोटी से बाँध करके अपना हर कदम रखा जाए. उसी में यह धैर्य पूरा होगा. आतुरता करते हैं तो वह "प्रयोग" होगा. आतुरता नहीं करते हैं तो "पद्दति" होगा. अब आगे की ज़िन्दगी में हमे प्रयोग में नहीं उतरना है, पद्दति पर चलना है. हर व्यक्ति शोध पूर्वक पद्दति को अपनाएगा.
जो है, उसका स्वीकृति होना - यह पहला पद्दति है. अस्तित्व में सम्पूर्ण वस्तुएं चार अवस्थाओं में हैं, यह स्वीकृति होना - पद्दति का पूरा आधार इतना ही है.
सहअस्तित्व में विकासक्रम एक पद्दति है, विकास एक पद्दति है, जागृतिक्रम एक पद्दति है, जागृति एक पद्दति है.
जागृति की रौशनी में हम सार्थकता को पहचानते हैं. तर्क की रोशनी में हम जागृति-क्रम को पहचानते हैं. विकास-क्रम को हम कल्पना और कारण-गुण-गणित से पहचानते हैं. विकास को हम जीवन स्वरूप में पहचानते हैं.
सम्बन्ध पद्दति है. प्रकटन प्रणाली है. पदार्थावस्था से ज्ञानावस्था तक का प्रकटन प्रणाली है. पद्दति भी बना रहना है, प्रणाली भी बना रहना है - तभी मानव समाधान को प्राप्त करता है.
मानव ज्ञानावस्था की इकाई है. मानव के पीछे की तीनो अवस्थाओं का प्रकटन शुभ के अर्थ में होने पर मानव का अवतरण हुआ है. मानव के शुभ के अर्थ में जीने की आवश्यकता बनी है. उसके लिए मानव को पदार्थावस्था, प्राणावस्था और जीवावस्था के साथ नियम, नियत्रण प्रणाली को पहचानना होगा और पद्दति को जीना होगा. पद्दति है - समाधान पूर्वक जीना, फिर समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना, फिर समाधान-समृद्धि-अभय पूर्वक जीना, फिर समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व पूर्वक जीना.
- श्रद्देय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
Monday, February 5, 2018
आगे का रास्ता
अध्ययन के साथ प्रमाणित होने का उद्देश्य होना आवश्यक है, अन्यथा हम तुलन हो कर वहीं रह जाते हैं. साक्षात्कार होने तक जाते ही नहीं हैं. भाषा में ही रह जाते हैं, प्रमाण तक नहीं जा पाते. यदि आपको यह रास्ता स्पष्ट हो गया है तो इसका अभ्यास करके देखिये. यदि यह कर्माभ्यास और व्यव्हाराभ्यास में आ जाता है तो हम पार पा गए! फिर आगे प्रमाणित होने के क्रम में क्या करना है, यह तय किया जा सकता है.
- श्रद्देय नागराज जी के साथ संवाद (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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