प्रश्न: न्याय, धर्म और सत्य को आप भाषा में व्यक्त करते हैं - हमे अध्ययन के लिए सूचना देने के लिए. क्या ऐसे में यह संभावना नहीं है कि हम केवल इन शब्दों से ही सम्मोहित हो जाएँ और अर्थ तक पहुँच ही नहीं पायें?
उत्तर: भय और प्रलोभन के साथ ही सम्मोहन होता है. सम्मोहन का मतलब ही भय और प्रलोभन है. भय और प्रलोभन मानव जाति के लिए अतिवाद है, क्योंकि ये व्यक्तिवाद और समुदायवाद में सीमित है. इतना ही सम्मानजनक विधि से कहा जा सकता है.
जीव चेतना की अंतिम पहुँच है - "न्याय", "धर्म", "सत्य" का नाम लेने तक पहुँच जाना.
यहाँ न्याय, धर्म और सत्य को लेकर जितना भी "सूचना" दिया गया है, क्या वह सम्मोहन में फंसता है? सत्य को तोलना क्या भय और प्रलोभन से जुड़ता है? धर्म (समाधान) को तोलना क्या भय और प्रलोभन से जुड़ता है? न्याय को तोलना क्या भय और प्रलोभन से जुड़ता है?
इस सूचना के आधार पर तोलना वास्तविकता से जुड़ता है, क्योंकि न्याय, धर्म, सत्य व्यवहार में प्रमाणित हो सकता है.
इस सूचना के आधार पर तोलना वास्तविकता से जुड़ता है, क्योंकि न्याय, धर्म, सत्य व्यवहार में प्रमाणित हो सकता है.
इस सूचना से सम्मोहन नहीं है तो इसको क्या नाम दोगे? हम सही की ओर एक कदम आगे बढ़ गए - यही कहना होगा.
पहला तर्क यह है - आगे बढ़ना है या नहीं बढ़ना है? अभी तक (जीव चेतना में) हम जैसा जिए उससे समस्याएं हो गयी. समस्या से समाधान में अंतरित होना है या नहीं? - पहला तर्क यही है. इसमें समाधान को ही वरना बनता है. समस्या परंपरा बन नहीं सकती. समाधान की ओर जाने के लिए न्याय, धर्म, सत्य को लेकर यहाँ सूचना दी गयी है, जो विकल्प है.
पहला तर्क यह है - आगे बढ़ना है या नहीं बढ़ना है? अभी तक (जीव चेतना में) हम जैसा जिए उससे समस्याएं हो गयी. समस्या से समाधान में अंतरित होना है या नहीं? - पहला तर्क यही है. इसमें समाधान को ही वरना बनता है. समस्या परंपरा बन नहीं सकती. समाधान की ओर जाने के लिए न्याय, धर्म, सत्य को लेकर यहाँ सूचना दी गयी है, जो विकल्प है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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