जो परंपरा में प्रावधानित नहीं है, उसके लिए प्रयोग करना पड़ेगा.
प्रयोग दो प्रकार के हैं - अज्ञात को ज्ञात करने के लिए और अप्राप्त को प्राप्त करने के लिए.
अप्राप्त को प्राप्त करने की जहां तक बात है - वह सामान्याकान्क्षा और महत्त्वाकांक्षा सम्बन्धी वस्तुओं से सम्बंधित है. वे सब मानव को प्रयोग द्वारा प्राप्त हो चुके हैं. अप्राप्त को प्राप्त करने का और कोई खाका बनता नहीं है. बनता होगा तो और भी प्रयोग हो जाएगा. अब जो कुछ प्रयोग "प्राप्ति" को लेकर हो रहे हैं वे केवल ज्यादा लाभार्जन को लेकर हैं. (मेरे अनुसार) और कुछ प्रयोग धरती पर शेष नहीं रह गया है.
अज्ञात को ज्ञात करना मनः स्वस्थता के लिए है. अज्ञात को ज्ञात करने के लिए या मनः स्वस्थता के लिए (मध्यस्थ दर्शन का) यह प्रस्ताव सामने आ गया है. यह प्रस्ताव अध्ययन करने के बाद भी यदि पूरा नहीं पड़ता हो तो पुनः प्रयोग किया जाए.
(मेरे अनुसार) अब प्रयोग का स्थान नहीं है. अब अध्ययन विधि से प्रबोधन और व्यवहाराभ्यास पूर्वक मनः स्वस्थता को प्रमाणित किया जाए. कर्माभ्यास विधि से तकनीकी को प्रमाणित किया जाए. इस प्रकार की शिक्षा-संस्कार व्यवस्था को स्थापित करने की आवश्यकता है. यह स्थापित होगा - आज नहीं तो कल!
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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