प्रश्न: क्या मानव अपने इतिहास में प्रकृति के साथ अपनी पूरकता के अर्थ में अपने 'आहार', 'आवास' और 'अलंकार' को पहचान पाया?
उत्तर: आयुर्वेद और वेदविचार भी मानवीय आहार का निर्णय नहीं कर पाया. मानव को शाकाहार करना चाहिए या मांसाहार इस निर्णय पर नहीं पहुँच पाया. जीव चेतना में रहते हुए आहार का निर्णय करना बनता ही नहीं है. मानव स्वयं को जीव ही माना है, और जीव दोनों प्रकार के आहार करते दिखते हैं तो मानव ने भी दोनों प्रकार के आहार करना शुरू कर दिया. उसके साथ नशाखोरी का अभ्यास जुड़ गया.
आवास और अलंकार को लेकर मानव ने एक से बढ़ कर एक चीजों को तैयार किया, किन्तु वह सब 'सुविधा' के अर्थ में रहा न कि 'पूरकता' के अर्थ में. मानव प्रकृति को नाश करने गया न कि उसके साथ पूरक बनने. जीव चेतना पर्यंत पूरकता की बात ही नहीं है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
उत्तर: आयुर्वेद और वेदविचार भी मानवीय आहार का निर्णय नहीं कर पाया. मानव को शाकाहार करना चाहिए या मांसाहार इस निर्णय पर नहीं पहुँच पाया. जीव चेतना में रहते हुए आहार का निर्णय करना बनता ही नहीं है. मानव स्वयं को जीव ही माना है, और जीव दोनों प्रकार के आहार करते दिखते हैं तो मानव ने भी दोनों प्रकार के आहार करना शुरू कर दिया. उसके साथ नशाखोरी का अभ्यास जुड़ गया.
आवास और अलंकार को लेकर मानव ने एक से बढ़ कर एक चीजों को तैयार किया, किन्तु वह सब 'सुविधा' के अर्थ में रहा न कि 'पूरकता' के अर्थ में. मानव प्रकृति को नाश करने गया न कि उसके साथ पूरक बनने. जीव चेतना पर्यंत पूरकता की बात ही नहीं है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
No comments:
Post a Comment