विगत में आदर्शवादियों ने बताया था कि दृष्टा, कर्ता, भोक्ता ईश्वर ही है. जबकि यहाँ कह रहे हैं कि ईश्वर न कर्ता पद में है, न दृष्टा पद में है, न भोक्ता पद में है.
ईश्वर में सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति प्रेरणा पाया है. "ईश्वर प्रेरक है" - यह भी कहना बनता नहीं है. प्रेरणा देने का भी उसमे कोई स्त्रोत नहीं है. सहअस्तित्व में प्रकृति प्रेरणा पाने योग्य स्थिति में है. प्रकृति स्वयंस्फूर्त विधि से, स्वयं प्रवर्तन विधि से प्रेरणा पाता ही रहता है. यह वैसे ही है - कपड़ा पानी में भीगता है, न कि पानी कपड़े को भिगाता है! भीगने का गुण कपड़े में है. पानी अपने स्वरूप में ही रहता है. इसी प्रकार व्यापक अपने में ऊर्जा स्वरूप होने के आधार पर प्रकृति ऊर्जा-संपन्न रहता ही है. इसीके फलन में विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम और जागृति का प्रकटनक्रम है.
अभी तक जीवन को न पहचानने से, 'जीव' को अल्पज्ञ मानने से, 'जीव' ईश्वर से पैदा हुआ है मानने से, और इन सब मान्यताओं का कोई तालमेल न बैठने से हमको कोई ज्ञान हाथ नहीं लगा. इसीलिये मानव जाति अपने संतान में न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित करने में, सही कार्य-व्यवहार को प्रमाणित करने में, और सत्य बोध कराने में सर्वथा असमर्थ रही. मानव जाति में ज्ञानी, अज्ञानी और विज्ञानी तीनो शामिल हैं. ये फैसला यदि स्वयं में नहीं होता है तो हम आगे पहुंचेंगे नहीं! कहीं न कहीं गुड-गोबर बनाने का काम रहेगा ही. गुड-गोबर करने से न गुड हाथ लगेगा, न गोबर!
जीवन समझ में आने से जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में मानव का अध्ययन सुलभ हो जाता है. शरीर के बारे में मानव ने अधिकाँश ज्ञान अर्जित कर लिया है. जो बचा होगा उसे आगे अर्जन कर लिया जा सकता है. शिक्षा विधि में जीवन ज्ञान का समावेश होना अब आवश्यक है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
ईश्वर में सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति प्रेरणा पाया है. "ईश्वर प्रेरक है" - यह भी कहना बनता नहीं है. प्रेरणा देने का भी उसमे कोई स्त्रोत नहीं है. सहअस्तित्व में प्रकृति प्रेरणा पाने योग्य स्थिति में है. प्रकृति स्वयंस्फूर्त विधि से, स्वयं प्रवर्तन विधि से प्रेरणा पाता ही रहता है. यह वैसे ही है - कपड़ा पानी में भीगता है, न कि पानी कपड़े को भिगाता है! भीगने का गुण कपड़े में है. पानी अपने स्वरूप में ही रहता है. इसी प्रकार व्यापक अपने में ऊर्जा स्वरूप होने के आधार पर प्रकृति ऊर्जा-संपन्न रहता ही है. इसीके फलन में विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम और जागृति का प्रकटनक्रम है.
अभी तक जीवन को न पहचानने से, 'जीव' को अल्पज्ञ मानने से, 'जीव' ईश्वर से पैदा हुआ है मानने से, और इन सब मान्यताओं का कोई तालमेल न बैठने से हमको कोई ज्ञान हाथ नहीं लगा. इसीलिये मानव जाति अपने संतान में न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित करने में, सही कार्य-व्यवहार को प्रमाणित करने में, और सत्य बोध कराने में सर्वथा असमर्थ रही. मानव जाति में ज्ञानी, अज्ञानी और विज्ञानी तीनो शामिल हैं. ये फैसला यदि स्वयं में नहीं होता है तो हम आगे पहुंचेंगे नहीं! कहीं न कहीं गुड-गोबर बनाने का काम रहेगा ही. गुड-गोबर करने से न गुड हाथ लगेगा, न गोबर!
जीवन समझ में आने से जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में मानव का अध्ययन सुलभ हो जाता है. शरीर के बारे में मानव ने अधिकाँश ज्ञान अर्जित कर लिया है. जो बचा होगा उसे आगे अर्जन कर लिया जा सकता है. शिक्षा विधि में जीवन ज्ञान का समावेश होना अब आवश्यक है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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