प्रश्न: जीवन को हम कैसे पहचाने?
जीवन की पहचान उसकी क्रियाओं से ही होती है. हर व्यक्ति के पास जीवन है, जिसमे १० क्रियाएं हैं. इसको हर व्यक्ति अपने में जांच सकता है. मैंने जांचा तो मुझको प्रमाण मिला, वो मेरे जीने के लिए संतुष्टि हो गया.
इस बात की "सूचना" इसीलिए देते हैं क्योंकि इसको हर व्यक्ति जांच सकता है. सूचना वही है जिसको जांचा जा सके.
प्रश्न: मैं आशा, विचार, इच्छा क्रियाओं के स्वयं में होने को तो कुछ-कुछ पहचान पाता हूँ, पर साक्षात्कार क्रिया को नहीं - ऐसा क्यों?
उत्तर: आगे चल के पहचान पायेंगे! अभी आपके सामने साक्षात्कार क्रिया की सूचना आयी है. साक्षात्कार के लिए अभी हम अध्ययन के कई सूत्रों को पहचाने हैं. ये सूत्र न्याय-धर्म-सत्य को लेकर है.
हम साक्षात्कार क्रिया को नहीं पहचान पाते हैं क्योंकि अभी शरीर को ही हम जीवन मान के बैठे हैं. (अभी हम आशा-विचार-इच्छा को जो कुछ-कुछ पहचान पा रहे हैं वह शरीर के अर्थ में ही है. ) शरीर से सम्बंधित बातों में चित्त से आगे (आशा, विचार और इच्छा से आगे) सोचने की ज़रुरत ही महसूस नहीं होती है. शरीर को जीवन माने हैं, इसीलिये हम प्रिय-हित-लाभ की सीमा में (जीवचेतना में) जी रहे हैं.
सूचना से अर्थ को प्राप्त करने का अधिकार कल्पनाशीलता स्वरूप में हर मनुष्य के पास रखा है. मानव सुनता और देखता भी कल्पनाशीलता के सहारे ही है. इसी कल्पनाशीलता का प्रयोग न्याय-धर्म-सत्य की सूचना के साथ करने की आवश्यकता है. शब्द की सीमा में रहने से यह प्रयोग होता नहीं है. न्याय-धर्म-सत्य की सूचना और कल्पनाशीलता के संयोग से आगे बढ़ने का रास्ता निकलता है.
न्याय-धर्म-सत्य की सूचना के आधार पर कल्पनाशीलता तदाकार होती है. फिर न्याय-धर्म-सत्य और प्रिय-हित-लाभ में से क्या 'सही' है - यह निश्चयन होता है. तुलन में न्याय-धर्म-सत्य स्थिर होने पर ही साक्षात्कार होता है, उसके पहले नहीं.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
जीवन की पहचान उसकी क्रियाओं से ही होती है. हर व्यक्ति के पास जीवन है, जिसमे १० क्रियाएं हैं. इसको हर व्यक्ति अपने में जांच सकता है. मैंने जांचा तो मुझको प्रमाण मिला, वो मेरे जीने के लिए संतुष्टि हो गया.
इस बात की "सूचना" इसीलिए देते हैं क्योंकि इसको हर व्यक्ति जांच सकता है. सूचना वही है जिसको जांचा जा सके.
प्रश्न: मैं आशा, विचार, इच्छा क्रियाओं के स्वयं में होने को तो कुछ-कुछ पहचान पाता हूँ, पर साक्षात्कार क्रिया को नहीं - ऐसा क्यों?
उत्तर: आगे चल के पहचान पायेंगे! अभी आपके सामने साक्षात्कार क्रिया की सूचना आयी है. साक्षात्कार के लिए अभी हम अध्ययन के कई सूत्रों को पहचाने हैं. ये सूत्र न्याय-धर्म-सत्य को लेकर है.
हम साक्षात्कार क्रिया को नहीं पहचान पाते हैं क्योंकि अभी शरीर को ही हम जीवन मान के बैठे हैं. (अभी हम आशा-विचार-इच्छा को जो कुछ-कुछ पहचान पा रहे हैं वह शरीर के अर्थ में ही है. ) शरीर से सम्बंधित बातों में चित्त से आगे (आशा, विचार और इच्छा से आगे) सोचने की ज़रुरत ही महसूस नहीं होती है. शरीर को जीवन माने हैं, इसीलिये हम प्रिय-हित-लाभ की सीमा में (जीवचेतना में) जी रहे हैं.
सूचना से अर्थ को प्राप्त करने का अधिकार कल्पनाशीलता स्वरूप में हर मनुष्य के पास रखा है. मानव सुनता और देखता भी कल्पनाशीलता के सहारे ही है. इसी कल्पनाशीलता का प्रयोग न्याय-धर्म-सत्य की सूचना के साथ करने की आवश्यकता है. शब्द की सीमा में रहने से यह प्रयोग होता नहीं है. न्याय-धर्म-सत्य की सूचना और कल्पनाशीलता के संयोग से आगे बढ़ने का रास्ता निकलता है.
न्याय-धर्म-सत्य की सूचना के आधार पर कल्पनाशीलता तदाकार होती है. फिर न्याय-धर्म-सत्य और प्रिय-हित-लाभ में से क्या 'सही' है - यह निश्चयन होता है. तुलन में न्याय-धर्म-सत्य स्थिर होने पर ही साक्षात्कार होता है, उसके पहले नहीं.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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