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Saturday, February 10, 2018

न्याय तक पहुँचने का मार्ग


न्याय चाहिए, पर प्रिय-हित-लाभ के चंगुल से छूटे नहीं है - ये आपकी अभी की स्थिति है.  ऐसे में आप न्याय को भी संवेदनाओं के साथ जोड़ने लगते हैं.  जबकि न्याय संबंधों में होता है.  प्रिय-हित-लाभ के साथ न्याय कुछ होना नहीं है.  अभी जिसको हम "न्याय" माने रहते हैं वह प्रिय के अर्थ में ही होता है.  अभी किसी बात को राजी-गाजी से "न्याय" मान लेते हैं, वह थोड़ी देर में जा के fail हो जाता है.  ऐसे में हम "न्याय-प्रिय" तो हो जाते हैं, पर न्याय प्रमाणित नही होता.

शब्द द्वारा न्याय शाश्वत वस्तु होना इंगित होता है.  उतना ही शब्द का प्रयोजन है.  इंगित होने के बाद कल्पना में आना ही है, तुलन होना ही है, चित्त में साक्षात्कार होना ही है.  ये तीनो होने पर बोध और अनुभव होता ही है.  शब्द को पहचानना हो गया.  संबंधों का नाम लेना हो गया.  अब उनके अर्थ को पहचानने की ज़रुरत है.  अर्थ है व्यवस्था.   व्यवस्था बोध होने के बाद संबंधों का निर्वाह होना स्वाभाविक हो जाता है. 

न्याय दृष्टि मानव में रहता ही है, पर जागृत नहीं हुआ रहता.  न्याय दृष्टि पहले अध्ययन विधि से कल्पना में आता है.  अध्ययन विधि न्याय को पहचानने के लिए संबंधों तक पहुंचा देता है.  संबंधों की निर्वाह निरंतरता में न्याय होता है.  संबंधों के नाम लेना हमारे अभ्यास में है ही.  संबंधों के प्रयोजन को पहचानने की बात है.  सभी संबंधों का प्रयोजन है - व्यवस्था में जीना.

संबंधों की निरंतरता शब्द नहीं है.  संबंधों की निरंतरता जीवन में होने वाली प्रक्रिया है.  संबंधों की निरंतरता का निर्वाह होने पर न्याय अपने आप से आता है.  जैसे ही अभिभावक ने संतान को अपना माना, उनमे ममता-वात्सल्य अपने आप से उमड़ता है.  उसके लिए उनको कोई ट्रेनिंग या उपदेश की आवश्यकता नहीं है.  अपने आप से इसलिए उमड़ता है क्योंकि जीवन में ये मूल्य निहित हैं.  संबंधों की पहचान होने पर ये प्रकट होते हैं. 

हम शब्दों में ही न खेलते रह जाएँ, इसके लिए अर्थ समझे हुए प्रमाणित व्यक्ति (अध्यापक) का होना महत्त्वपूर्ण है.  यही अध्ययन में सफलता की पूंजी है.  यही सफलता की कुंजी भी है!

ज्ञान रहस्य नहीं है.  सहअस्तित्व है - उसको समझना है.  जीवन है - उसको समझना है.  हम हर दिन कुछ न कुछ करते हैं - अपने उस आचरण को समझना है.  समझने वाला कौन है?  इसको शोध करने पर निकलता है - हम ही समझते हैं!  हमारे में जीवन समझता है.  शोध पूर्वक स्वीकार होने पर यह स्वयं में स्थिर हो जाता है.  स्थिर हो जाता है, क्योंकि अस्तित्व स्वयं स्थिर है.  जागृति निश्चित है.  मानव का गम्यस्थली जागृति ही है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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