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Sunday, November 29, 2009

कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिन्दु

(जीव चेतना में) जब ४.५ क्रिया की सीमा में मनुष्य जीता है, तो उसे लगता रहता है - "यह पूरा नहीं है।" "यह पूरा नहीं है।" - यह स्वयं में पीड़ा के रूप में प्रेरणा पाने का अधिकार है। इस "पीड़ा" को अन्तः प्रेरणा कह सकते हैं। अनुभव-संपन्न व्यक्ति के संयोग में आने पर बाह्य-प्रेरणा से "पूर्णता की अपेक्षा" बन जाती है। अध्ययन करने वाले और अध्ययन कराने वाले के संयोग पूर्वक यह "अपेक्षा" बनती है। अध्ययन कराने वाला अध्ययन करने वाले के लिए पूर्णता के लिए "प्रेरणा स्त्रोत" होता है। "पूर्णता" है - क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता।

अध्ययन करने वाला अपनी कल्पनाशीलता के प्रयोग से अनुभव-मूलक विधि से अध्ययन कराने वाले की प्रेरणा से सत्य को पहचानने का प्रयास करता है।

इस प्रस्ताव को अपना स्वत्व बनाने के लिए कल्पनाशीलता को प्रयोजन के साथ लगाना पड़ता है। कल्पना से वास्तविकता में जाने के लिए यदि प्रयत्न होता है तो अध्ययन के लिए प्रवृत्त होना होता है। अध्ययन के लिए प्रवृत्ति को क्रियान्वयन करने से साक्षात्कार होता है। आशा-विचार-इच्छा की स्पष्ट-गति साक्षात्कार है। यह अध्ययन पूर्वक ही होता है। साक्षात्कार के आधार पर अनुभव की सम्भावना बनती है। अनुभव के बाद प्रमाण।

कल्पनाशीलता ही अनुभव-प्रमाण में परिवर्तित होती है। कल्पना में अनुभव-प्रमाण समाता नहीं है। अध्ययन पूर्वक कल्पना अनुभव-प्रमाण में परिवर्तित हो जाती है। इसी का नाम है - "गुणात्मक परिवर्तन"। यही कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिन्दु है।

प्रश्न: आप कहते हैं, मनुष्य या तो ४.५ क्रिया में भ्रमित जीता है, या १० क्रिया में जागृत जीता है। ४.५ क्रिया और १० क्रिया के बीच क्या स्थितियां हैं?

उत्तर: साक्षात्कार, बोध, और अनुभव। ये तीन स्थितियां हैं।

साक्षात्कार के लिए पुरुषार्थ है - जिसका नाम है "अध्ययन"। साक्षात्कार के बाद बोध और अनुभव स्वयं-स्फूर्त है। उसमें मनुष्य का कोई पुरुषार्थ नहीं है। साक्षात्कार तक पहुंचना ही पुरुषार्थ का अन्तिम स्वरूप है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

Saturday, November 28, 2009

मानव में कल्पनाशीलता उसके समझने के लिए स्त्रोत है.

कल्पनाशीलता के आधार पर ही हम समझते हैं। अभी तक मानव के इतिहास में, या उपलब्ध वांग्मय में कल्पनाशीलता को समझने के स्त्रोत के रूप में नहीं पहचाना गया। मध्यस्थ-दर्शन के प्रस्ताव द्वारा ही कल्पनाशीलता के स्त्रोत की पहचान कराने की कोशिश शुरू हुआ। सर्व-मानव के पास कल्पनाशीलता है, जिससे वह समझ सकता है।

प्रश्न: यानी "मेरे" पास वह कल्पनाशीलता है, जिससे मैं अस्तित्व को समझ सकता हूँ?

केवल आपके पास ही नहीं, कुछ चुने ही लोगों के पास ही नहीं - "सर्व-मानव" के पास कल्पनाशीलता है। एक व्यक्ति में कोई बात arrest होता है - इस बात को अभी और यहीं समाप्त कर दो! आपके और हमारे पास ऐसी कोई ताकत नहीं है, जिससे समझ हममे ही रहे, हमसे बाहर नहीं जाए। दूसरे के पास जाए ही नहीं! अभी अत्याधुनिक संसार के साथ यही परेशानी है। अत्याधुनिक पढ़ाई व्यक्तिवादिता को बढाती है - "मैं ही लायक हूँ, बाकी सब बेकार हैं!" जबकि सच्चाई यह है - सम्पूर्ण अत्याधुनिक संसार जीव-चेतना में जी रहा है। "सम्पूर्ण अत्याधुनिक संसार जीव-चेतना में जी रहा है" - इस निर्णय पर हमको पहुंचना पड़ेगा।

सर्व-मानव के पास कल्पनाशीलता "नियति-प्रदत्त" विधि से है। मानव ने अपनी इस कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को "बनाया" हो, या "पैदा किया" हो - ऐसा नहीं है। सह-अस्तित्व नित्य प्रगटन-शील होने से मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता नियति-प्रदत्त है। ज्ञान-अवस्था द्वारा स्वयं को प्रमाणित करने के लिए कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता आवश्यक है। कल्पनाशीलता के प्रयोग से हम सच्चाई के साथ तदाकार-तद्रूप हो कर प्रमाणित करते हैं। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के प्रयोग से ही मनुष्य सच्चाई का अध्ययन कर सकता है, सच्चाई को प्रमाणित कर सकता है।

भ्रमित-अवस्था में कल्पनाशीलता आशा-विचार-इच्छा की अस्पष्ट गति है। भ्रमित-अवस्था = जीव चेतना। कल्पनाशीलता के प्रयोग से हम "ज्ञान" तक पहुँचते हैं। कल्पनाशीलता के आधार पर ही हम ज्ञानार्जन करते हैं। ज्ञानार्जन करना = शब्द के अर्थ के रूप में जो वस्तु इंगित है, उस अर्थ में हमारी कल्पना का तदाकार होना। ज्ञान को हम तदाकार-तद्रूप विधि से अनुभव करते हैं। कल्पनाशीलता पूर्वक जो हम तदाकार हुए - उसको "साक्षात्कार" कहते हैं। अनुभव होने पर, पारंगत होने पर तद्रूप हो गए। तद्रूप होना = अनुभव का प्रमाणित होना। यही मनुष्य का ऐश्वर्य है।

अनुभव आत्मा में होता है। अनुभव के फलस्वरूप पूरा जीवन अनुभव में तदाकार हो जाता है। फलस्वरूप अनुभव जीने में प्रमाणित होता है। मेरे जीवन में यही हो रहा है। हर परिस्थिति में अनुभव को प्रमाणित करने की प्रक्रिया मेरे जीवन में चल रही है। मुझ में अनुभव-सम्पन्नता अक्षय रूप में रखा है। ऐसे ही हर व्यक्ति अनुभव-संपन्न हो जाए। अनुभव ही ज्ञान-समृद्धि का अन्तिम-स्वरूप है। समझदारी की परिपूर्णता अनुभव में ही होता है - जो "दृष्टा पद" है। अनुभव जब जीने में आता है - उसे ही "जागृति" कहा है। जागृति ही अनुभव का प्रमाण है।

अनुभव-मूलक विधि से ही कल्पनाशीलता का प्रयोजन सिद्ध होता है। कल्पनाशीलता जब शरीर-मूलक विधि से दौड़ता है तो वह आशा-विचार-इच्छा तक ही सीमित रहता है। इसी लिए "अस्पष्ट" रहता है। अभी मनुष्य-जाति भ्रम-वश अस्पष्ट है। अस्पष्टता मानव को स्वीकार नहीं होता। स्पष्टता ही स्वीकार होता है। स्पष्ट होने के लिए अध्ययन कराते हैं। अनुभव-संपन्न व्यक्ति अनुभव-मूलक विधि से जो चिंतन-चित्रण-विचार-कार्य करता है - वह अध्ययन करने वाले के लिए "प्रेरणा" होती है। अनुभव-मूलक विधि से ही जीवन में चिंतन सक्रिय होता है।

अध्ययन-विधि से जीवन की दसों क्रियाएं क्रियाशील हो सकती हैं - यह "सम्भावना" बनता है। अध्ययन पूरा होने पर दसों क्रियाओं के क्रियाशील होने की निरंतरता बन जाती है। दसों क्रियाएं क्रियाशील हो सकने की "सम्भावना" बनने के आधार पर मनुष्य में जो खूबियाँ बनती हैं, वे अपने आप से स्पष्ट होती हैं। इस "सम्भावना" से पहले जो ४.५ क्रिया में घनीभूत रहते थे - उससे तो छूट जाते हैं। ४.५ क्रिया के खूंटे से तो छूट गए - लेकिन १० क्रिया के खूंटे से अभी बंधे नहीं हैं! बंध-जाने पर हमेशा के लिए बंध जायेंगे। मतलब - एक बार दसों क्रियाएं क्रियाशील होने पर उसकी निरंतरता बन जाती है।

अभी सम्पूर्ण शिक्षा-गद्दी, राज्य-गद्दी, और धर्म-गद्दी ४.५ क्रियाओं में घनीभूत है। मनुष्य अपने इतिहास में "स्व-विवेक" से जीवों से अच्छा जीने के लिए शोध-अनुसंधान करता ही रहा। जीवों से श्रेष्ठ जीने की सम्भावना स्वयं में उदय करने के लिए ही यह अध्ययन है। अध्ययन पूर्ण होने पर, अनुभव-मूलक विधि से जीवों से अच्छा - मानव-चेतना विधि से प्रमाणित करना बन जाता है।

सच्चाइयाँ जैसे-जैसे साक्षात्कार होने लगती हैं - अनुभव होने की "सम्भावना" उदय हो जाती है। पहले कल्पनाशीलता पूर्वक साक्षात्कार होगा - यह सम्भावना उदय होती है। फ़िर साक्षात्कार पूर्वक अनुभव होगा - वहाँ तक की सम्भावना उदय होती है। अनुभव होने के बाद प्रमाण स्वयं-स्फूर्त होता है, और उसकी निरंतरता होती है।

साक्षात्कार होने के लिए पहले पठन,
फ़िर परिभाषाओं के साथ अध्ययन।

साक्षात्कार क्रमिक रूप से होता है। पूरा सह-अस्तित्व साक्षात्कार होने पर वह पूर्ण होता है। सह-अस्तित्व में ही विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति साक्षात्कार होना। यह सब यदि साक्षात्कार हो गए तो तत्काल अनुभव होता है। मध्यस्थ-दर्शन का जो पूरा वांग्मय लिखा है, उसका आशय या प्रयोजन इतना ही है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

Friday, November 27, 2009

समझना और कार्य-करना

शब्द के अर्थ को मानव ही समझता है। मानव ही अपनी समझ के अनुसार कार्य करता है।

समझना" और "कार्य करना" ये दो भाग हैं। "कार्य करने" के पक्ष में जीव-जानवर कुछ शब्दों को स्वीकारते हैं - किंतु वे उन शब्दों के अर्थ को "समझते" नहीं हैं। जैसे - कुछ जानवरों को यह बताने पर, यहाँ जाना है - वे वहाँ चले भी जाते हैं। सर्कस में जानवरों से नाच-कूद कराते ही हैं। लेकिन जानवरों को आप "सह-अस्तित्व" समझाओ और वे समझ जाएँ - ऐसा होता नहीं है। आप जानवरों को "जीवन" समझाओ - और वे समझ जाएँ, ऐसा होता नहीं है। आप जानवरों को "मानवीयता पूर्ण आचरण" समझाओ - और वे मानवीयता पूर्ण आचरण करने लगें, ऐसा होता नहीं है।

शब्द से इंगित अर्थ को मानव ही समझता है। अर्थ literature में नहीं आता। शब्द के अर्थ में सह-अस्तित्व वास्तविकता के रूप में इंगित होता है, जिसको मानव ही समझता है।

अब हमको यह निर्णय लेना है - हमको जीव-जानवरों जैसे "कार्य करने" की सीमा में जीना है, या "समझ" की सीमा में जीना है?

समझ कर मनुष्य समाधान, समृद्धि, अभय, और सह-अस्तित्व पूर्वक जी पाता है। समझ के प्रमाणित होने की यही जगह हैं - और कहीं भी नहीं।

समझे हैं, तो ऐसे जी पायेंगे।
नहीं समझे हैं, तो ऐसे जी नहीं पायेंगे।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

Tuesday, November 24, 2009

संवाद का उद्देश्य और मर्यादा

प्रश्न: आपके साथ संवाद का उद्देश्य क्या होगा, और इस संवाद की मर्यादा क्या होगी?

उत्तर: संवाद का उद्देश्य तय पहले होना आवश्यक है। किस प्रयोजन के लिए हम संवाद करें?

हमारे संवाद का उद्देश्य रहेगा - "मानवत्व को पहचानना, और मानवीयता का संरक्षण होना।"

इसी उद्देश्य के अंतर्गत हम समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने के लिए संवाद करेंगे। इसी उद्देश्य के अंतर्गत हम नियम-नियंत्रण-संतुलन पूर्वक जीने के अर्थ में संवाद करेंगे। और आगे इसी उद्देश्य के अंतर्गत हम प्रबुद्धता, प्रभुता, और प्रभुसत्ता के बारे में संवाद करेंगे। ये सभी मुद्दे अलग-अलग टुकड़े नहीं हैं, इसी उद्देश्य के भाग हैं।

यह संवाद करते हुए - हम इस बात को भी आमंत्रित करते ही रहेंगे, जो यह बताये यदि विगत में मानवत्व का पहचान हुआ हो, यदि विगत में मानवीयता का संरक्षण हुआ हो। हर परिस्थिति, हर संवाद, हर सम्मलेन में यह निमंत्रण रहेगा। इसको हम भूलेंगे नहीं।

हमारे हिसाब से, विगत की समीक्षा है - विगत में न तो मानवत्व को पहचाना गया, न ही मानवीयता का संरक्षण हुआ। न किसी देश में! न किसी काल में!

मानवत्व को पहचानना = मानव का अध्ययन।
मानवीयता का संरक्षण = मानवीयता पूर्ण आचरण (मूल्य, चरित्र, नैतिकता) का प्रमाणीकरण।

अध्ययन कराने वाला प्रमाणित है, यह स्वीकार होने से ही संवाद की मर्यादा है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

Monday, November 23, 2009

साम्य-ऊर्जा और कार्य-ऊर्जा

साम्य-ऊर्जा और कार्य-ऊर्जा का अध्ययन जड़-प्रकृति के सन्दर्भ में है।

साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता वश (जड़) इकाइयों में चुम्बकीय-बल सम्पन्नता है। चुम्बकीय-बल सम्पन्नता वश (जड़) इकाइयों में क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता वश (जड़) इकाइयों में कार्य-ऊर्जा का प्रकाशन है - जो ध्वनी, ताप, और विद्युत् के रूप में होती है। साम्य-ऊर्जा यथावत रहती है। साम्य-ऊर्जा का व्यय नहीं होता। कार्य-ऊर्जा का व्यय होता है। जड़-प्रकृति में जो कार्य-ऊर्जा प्रकट होती है, उसको मानव अपने उद्यम से घटा और बढ़ा सकता है, और उसको अपने उत्पादन-कार्य के लिए प्रयोग में ला सकता है। यह मनुष्य अभ्यास पूर्वक सिद्ध कर चुका है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

Saturday, November 21, 2009

अनुभवमूलक विधि से प्रमाण, अनुभवगामी विधि से अध्ययन

मानव परम्परा में सुदूर विगत से समझदारी संपन्न होने का प्यास बना ही रहा है। हर पीढी में, किसी आयु तक मनुष्य समझने के पक्ष में ज्यादा से ज्यादा प्रयत्नशील रहना पाया जाता है। यौवन अवस्था तक ही समझदारी का प्यास सर्वाधिक व्यक्तियों में रहना पाया जाता है। सर्वाधिक मानव संतानों में यौवन अवस्था (लगभग १६ वर्ष) तक किसी निष्कर्ष में आने का शुरुआत हो जाता है। १८ वर्ष तक सर्वाधिक व्यक्ति अपने को समझदार मान ही लेते हैं।

शिक्षा का प्रयोजन पिछली पीढी का अगली पीढी को "समझदारी" प्रवाहित करना है। अभी तक के शिक्षाक्रम में "भय" और "प्रलोभन" के साथ सभी समझदारी को जोड़ता हुआ देखा जाता है। विगत का गम्यस्थली भय और प्रलोभन ही रहा है। इसमें भय दूसरों के लिए प्रयोग करना, और प्रलोभन के लिए स्वयं तैयार रहना समाहित रहता है। इस मनमानी का क्रियारूप देने के मूल में मानव में प्रकृतिप्रदत्त विधि से प्रावधानित कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता ही रहा। इसी क्रम में, हर मानव, हर वेला में कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता के चक्कर में घूमता ही रहा।

जब यह पूछते हैं - "कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता की सीमा में जीने से क्या सच्चाई हो सकती है?" इसका उत्तर मिलता है - "नहीं!" इसके आगे पूछने पर - "फ़िर आप क्यों इस सीमा में जीने के लिए विवश हैं?" इसके उत्तर में सर्वाधिक लोगों से यही सुनने में आता है - "इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।"

जीवचेतना में मानव का गम्यस्थली "भय" और "प्रलोभन" के रूप में प्रभावित होना ही रहता है। इसमें से "भय" पूर्वक दूसरों को पीड़ित करने के क्रम में मानव परम्परा में मनमानी व्यवस्था बनती गयी। यह मनमानी व्यवस्था अपने-पराये की दीवारों के आधार पर ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट हुई। "पराया" कहलाने वालों के साथ सर्वाधिक अपराध करने की योजना करना, और "अपना" कहलाने वालों के साथ न्यूनतम अपराध करने की योजना करना और ज्यादा से ज्यादा प्रलोभानात्मक प्रभाव रहता है। इस ढंग से जीवचेतना में हम मानव अपने-पराये के साथ ही रहते हैं।

जीवचेतना विधि से यह तय नहीं हो पाता - सबको अपना कैसे माना जाए! जीवचेतना विधि से आचरण में सबको अपना मानना तय होता नहीं है। जीवचेतना विधि से संविधान इसको तय नहीं कर पाता। जीवचेतना विधि से शिक्षा में अपने-पराये की दीवारों से मुक्ति, या सबको अपना मानने की सूत्र-व्याख्या स्पष्ट नहीं हो पाती। इन सभी प्रभावों के चलते अपराध और अपराध-कार्यक्रमों के साथ सहमत हो कर चलना मनुष्य की विवशता बन जाती है।

मानव-जाति में हर नर-नारी प्रकारांतर से शुभ चाहता है, मनः स्वस्थता चाहता है, सुख-शान्ति चाहता है, लेकिन विवशतावश ही सम्पूर्ण अस्वीकृत कार्यक्रमों को कर देता है। यह सर्वेक्षण मानव मानसिकता में "समाधान" को प्रस्तुत करने के लिए आधारबिन्दु है। वर्तमान में पायी जाने वाली सभी समस्याओं का समाधान-सूत्र के रूप में "चेतना विकास - मूल्य शिक्षा" को प्रस्तावित किया गया है।

अनुभवमूलक विधि से मानवीयता पूर्ण आचरण "मूल्य", "चरित्र", और "नैतिकता" के संयुक्त रूप में प्रभावित होता है। इसे मैंने भली प्रकार से अभ्यास पूर्वक प्रमाणित किया है।

मूल्य का तात्पर्य है - संबंधों को "प्रयोजनों" के अर्थ में पहचानना। प्रयोजनों के आधार पर संबंधों को पहचानने से प्रयोजन अपेक्षा में "सम्बन्ध निर्वाह निरंतरता" निहित रहता ही है। सम्बन्ध निर्वाह निरंतरता स्वयं "विश्वास" का द्योतक होता है। इस तरह विश्वास सभी संबंधों में साम्य रूप में प्रकट होता है। जैसे - माता-पिता और संतान के सम्बन्ध में प्रयोजन "पोषण और संरक्षण" है। इस प्रयोजन के अर्थ में जब सम्बन्ध-निर्वाह की निरंतरता बनती है, तो विश्वास-सहित ममता, वात्सल्य, और कृतज्ञता मूल्य प्रमाणित होते हैं। इस प्रकार सभी संबंधों को प्रयोजनों के अर्थ में पहचानने पर उन संबंधों की निर्वाह-निरंतरता होना, मूल्यांकन होना, और उभय-तृप्त होना स्वाभाविक हो जाता है।

चरित्र रूप में मानवीयता पूर्ण आचरण - स्वधन, स्वनारी, और दयापूर्ण कार्य-व्यवहार - यह मानवचेतना विधि से ही प्रमाणित होना पाया जाता है।

नैतिकता - हर नर-नारी द्वारा अपने तन-मन-धन रुपी अर्थ को पहचानने की आवश्यकता है। अर्थ का सदुपयोग करना और सुरक्षा करना ही नैतिकता है। नैतिकता धर्मनीति और राज्यनीति के अर्थ में प्रयोजित होती है।

सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में मानव के ज्ञानअवस्था की इकाई होने के कारण मानव में समाधान-समृद्धि-अभय और सहअस्तित्व पूर्वक जीने की अपेक्षा सदा-सदा से है। मानवचेतना विधि से मानवीयता पूर्ण आचरण पूर्वक यह अपेक्षा पूरी हो जाती है।

जीवचेतना विधि से व्यक्तिवादी और समुदायवादी आचरण होना पाया जाता है। जीवचेतना विधि में जीवन-दृष्टियाँ प्रिय-हित-लाभ रूप में प्रभावित रहना पाया जाता है। "प्रिय-दृष्टि" इन्द्रियों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध) की स्वीकृति और उसको पा लेने रूप में समा जाती है। "हित-दृष्टि" शरीर-स्वास्थ्य और उसको लेकर उपायों के सम्बन्ध में चिंतित रहना और उसको पा लेने के रूप में देखने को मिलता है। "लाभ-दृष्टि" कम दे कर ज्यादा लेने की इच्छा, आंकलन, और उपलब्धि के रूप में देखने को मिलता है। जीवचेतना विधि से इन तीन दृष्टियों का उपयोग करते हुए मनुष्य आपत्तिजनक और समस्याकारी स्थितियों में क्रियाशील रहता है।

जीवचेतना की सीमा में मनुष्य का स्वभाव दीनता, हीनता, और क्रूरता के रूप में सूत्रित और व्याख्यायित होना देखा जाता है।

"दीनता" - अभाव और अत्याशा वश होने वाली यंत्रणा के रूप में परिगणित होना पाया जाता है।

"हीनता" - विश्वासघात के रूप में छल, कपट, दंभ, और पाखण्ड पूर्वक क्रियान्वयन होता है। "छल" का मतलब - विश्वासघात के बाद जिस व्यक्ति और जिस तरीके से विश्वासघात हुआ, यह समझ में नहीं आना। "कपट" का मतलब - विश्वासघात के बाद जिसने विश्वासघात किया और जिस तरीके से किया, यह उद्घाटित हो जाना। "दंभ" का मतलब - दिखावा करते हुए विश्वासघात करना। चौथे "पाखण्ड" - आश्वासन देते हुए विश्वासघात करना।

"क्रूरता" जीवचेतना से ग्रसित मानव में आंकलित होता है। यह परधन, परनारी/परपुरूष, और परपीड़ा के रूप में उजागर होता है।

यही जीवचेतना का स्पष्ट स्वरूप है।

अनुभवमूलक विधि से ही मनुष्य मानवचेतना को व्यक्त करता है, तथा अनुभवगामी विधि से अध्ययन करता है। अनुभव जीवन में संपन्न होना पाया जाता है। जीवचेतना "विवशता" के रूप में मानव परम्परा में स्पष्ट हुआ है।

जीवअवस्था में जीवचेतना वंश-अनुशंगीय विधि से ४ विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) की सीमा में व्यवस्था होना देखा गया। हर जीव शरीर सम्पूर्णता के साथ त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता है। वंश-अनुशंगियता का सम्पूर्ण रूप इतने में ही निहित हुआ।

मानव वंश-अनुशंगियता की सीमा में सीमित नहीं हो पाया - क्योंकि कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता मानव को नियति प्रदत्त वरदान रहा। मानव को वंश-अनुशंगियता से छूट कर किस आधार पर परम्परा के रूप में वैभवित होना है - यह जीव-चेतना विधि से निश्चित नहीं हो पाता। मानवचेतना विधि से मानव किस प्रकार परम्परा के रूप में वैभवित होना है - यह निश्चयन होता है।

२१वी सदी तक मानव जाति जीवचेतना से पूरी तरह प्रभावित रहा है। अब मानवचेतना सहज वैभव के प्रति समझदारी विकसित करने और प्रमाणित करने का कार्यक्रम शुरू हो चुका है। इसे हर व्यक्ति, हर परिवार, और सभी समुदाय अध्ययन कर सकते हैं - और प्रमाणित कर सकते हैं।

अनुभवमूलक विधि से प्रमाण प्रस्तुत होना ही मानवचेतना का तात्पर्य है। शरीरमूलक विधि से, अथवा जीवचेतना विधि से जीवन की ४.५ क्रियाएं क्रियान्वित रहती हैं। शेष ५.५ क्रियाएं सुप्त रहती हैं। मानवचेतना विधि से जीने के लिए पूरी १० क्रियाओं का प्रकाशन आवश्यक हो जाता है। इसे भले प्रकार से अनुभव किया गया है।

सहअस्तित्व नित्य वर्तमान है। सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है। और सहअस्तित्व ही परमसत्य है। जब ये तीन मुद्दे पूरी तरह स्पष्ट हो जाते हैं, तो जीवन सहअस्तित्व में अनुभव संपन्न होता है। अनुभव संपन्न होने का विधि अध्ययन है। अध्यापक के अनुभव सहज रोशनी में ही अध्ययन संपन्न होने की व्यवस्था है। "अनुभव रोशनी" अनुभव-प्रमाण है। यह सर्वमानव में स्वीकार होने योग्य होने के करण विद्यार्थी में कल्पनाशीलता "अनुमान" रूप में विद्यमान रहता है। अनुभवमूलक विधि (अध्यापक) और अनुभवगामी प्रणाली (विद्यार्थी) के संयोग में सहअस्तित्व परम-सत्य होना विद्यार्थी को बोध होता है। फलस्वरूप विद्यार्थी को अनुभव होता है।

अनुभवमूलक विधि से आत्मा में अनुभव, और उसके प्रमाण स्वरूप में बुद्धि में बोध और संकल्प होता है। संकल्प का तात्पर्य है - अनुभव को प्रमाणित करने के लिए संकल्प। बुद्धि में संकल्प का चित्त में चिंतन होता है। इस सच्चाई को किस विधि से प्रमाणित करना चाहिए, यह निश्चित होने के बाद ही चित्त में चित्रण होना पाया जाता है। ऐसे चित्रण जब तुलन के लिए वृत्ति में प्रस्तुत हुआ तो स्वाभाविक रूप में प्रिय-हित-लाभ दृष्टियाँ न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों में विलय होता देखा गया। ऐसे तुलन का विश्लेषण जीवन-मूल्यों, मानव-मूल्यों के रूप में विचार में निश्चित होता है। विचारों में ऐसे न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक निश्चितता होने के फलस्वरूप मन में मूल्यों का आस्वादन होना, और उस आस्वादन को प्रमाणित करने के लिए संबंधों में चयन करना होता है।

इस तरह अनुभवमूलक विधि से १० क्रियाएं प्रकट होने के क्रम में मानव परम्परा अखंड-समाज और सार्वभौम-व्यवस्था के रूप में अवतरित होना पाया जाता है।

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

सत्य - ज्ञान - प्रमाण

आदिकाल से, जबसे ईश्वर और ईश्वरीयता की चर्चा वांग्मय में (अर्थात लेख रूप में) अथवा मुखस्थ विधि से परम्परा के रूप में आरम्भ हुआ - तब से "सत्य" शब्द के रूप में सुनना रहा। साथ में यह भी बना रहा - ईश्वर और ईश्वरीयता मानव के समझ में समाने वाली चीज नहीं है। इसके कारण में यह बताया गया - ईश्वर और ईश्वरीयता मानव-कल्पना से बहुत "बड़ा" है। यह मानव-कल्पना में समाती नहीं है। ऐसे उदगार और ध्वनी सुनने में आता है।

इसके आगे ईश्वर और ईश्वरीयता को "ब्रह्म" शब्द से भी इंगित किया गया। "सत्य" शब्द तो रहा ही। सत्य, ज्ञान, ब्रह्म, परमात्मा - ये सब नामो से ईश्वर और ईश्वरीयता को इंगित किया गया। इसकोऔर महिमा-मंडित करने के क्रम में यह बताया गया - "ईश्वर ही अपने संकल्प से बहुत रूप में प्रकट हो गया।" इस क्रम में जो कुछ भी प्रकट है, उसको "जीव" और "जगत" नाम दिया गया।

ईश्वर अपने स्वरूप में "एक" होते हुए अनेक रूप में होने के संकल्प मात्र से जीव और जगत कैसे उत्पन्न हुआ, उसके बारे में लेखन के अनुसार - ब्रह्म से आकाश प्रकट हुआ, आकाश से वायु प्रकट हुआ, वायु से अग्नि प्रकट हुआ, अग्नि से जल प्रकट हुआ, जल से पृथ्वी प्रकट हुआ। इसे भारतीय परम्परा में "पञ्च-तत्व" नाम दिया। "जीव" कैसे पैदा हुआ? उसके उत्तर में भारतीय विचार परम्परा में "माया" के सम्बन्ध में स्वीकृतियां बनी हुई हैं। "माया" कहाँ से आ गया? - इसके सम्बन्ध में कोई मूल प्रबंध उपलब्ध नहीं हुआ। भारतीय सोच-विचार परम्परा में ब्रह्म की परछाई माया पर पडी तब मलिन रजोगुण में हलचल पैदा हुई, जिससे असंख्य जीवों का प्रकटन हुआ। ब्रह्म अपने नज़रों में यह घटना को देखने पर जीवों के ह्रदय में स्वयं "आत्मा" के रूप में विराजमान हो गया! इस घटना को "जीव कारुण्य वश" ब्रह्म स्वयं घटित किया। ऐसी स्वीकृति आलेखों में मिलती है। आगे बताया गया है - जीवों के भोग के लिए पञ्च तत्वों से शरीर निर्मित हुआ।

यहाँ कुछ और तथ्यों का भी उल्लेख करना मालूम हो रहा है। भारत के अतिरिक्त और भी देशों ने जो "बुनियादी" रूप से कुछ कहना चाहा है, उन सबके कथन में "जीव-जगत" की बात आती है। कुछ में जीव और जगत को अलग-अलग न कहते हुए, ऐसा बताया - किसी "महान" की इच्छा से यह संसार पैदा हुआ। भारतीय-विचार में सृष्टि जीव-जगत ईश्वरीय संकल्प और ईश्वर की परछाई के आधार पर निर्मित हुआ। इस प्रकटन विधि को "आगम" नाम दिया। यह जो जीव-जगत प्रकट हुआ, उसके कालान्तर में ईश्वर रुपी सत्ता में विलय होने की बात का भी उल्लेख किया गया है। इस विलय होने को नाम दिया - "निगम"। "आगम" और "निगम" के बीच में जो कुछ भी जीव-जगत भास्-मान है वह "स्वप्न-वत" है; यह सम्पूर्ण वैभव जो भासता है - वह ईश्वर की रहस्यमयी महत्ता है - ऐसा बताया। इन सब मूल बातों के आधार पर भारतीय-परम्परा में ज्ञान और उपासना कर्म-विधियों के रूप में जो भी आदेश, उपदेश, संदेश मनुष्य को संकेत के रूप में दिए गए हैं वे सभी "जीव-जगत पर भरोसा न करने की बात" में पूरा होते है। यह प्रस्तुति लोगों को तर्क-संगत भी लगती है, जिससे ऐसी स्वीकृतियां पुष्ट भी होती हैं। इन सभी आदेश, उपदेश, संदेश रुपी प्रेरणाओं और तर्क से हुई पुष्टियों के आधार पर मानव अनेक प्रकार से "आगम", "निगम", "माया", "आत्मा", "मोक्ष" और "बंधन" के सूत्रों को प्रकाशित करता रहा है। इन सब सूत्रों की सार बात यह है - "एक ही ब्रह्म जो रहस्यमय है, उन्ही के संकल्प से जीव-जगत पैदा हुआ, जो कालांतर में उसी ब्रह्म की इच्छा से उसी ब्रह्म में समा जाएगा।" "ब्रह्म में समा जाएगा" - इसको "समाधि" नाम दिया। समाधि तक पहुँचने के लिए अनेक प्रक्रियाएं वांग्मय रूप में प्रस्तुत की गयी हैं।

सार रूप में - समाधि में ही "परम-ज्ञान" संपन्न होने का आश्वासन है। ज्ञान को वाणियों से अथवा शब्दों से संप्रेषित करना सम्भव नहीं है - ऐसा बताया गया है। ज्ञान अपने स्वरूप में अव्यक्त रहना बताया गया है। यह सब विगत में बतायी गयी भाषा है। इस पर शोध और अनुसंधान करने की प्रवृत्तियां पहले से ही लोगों में रहा है। इसी के आधार पर समाधि के लिए मैंने अपने को प्रस्तुत किया।

समाधि की स्थिति में मुझे कोई ज्ञान नहीं हुआ। जबकि - शास्त्रों में, और बुजुर्गों ने मुझे यही बताया था - समाधि में अज्ञात ज्ञात होता है। शास्त्रों के अनुसार, बुजुर्गों के अनुसार - समाधि की स्थिति में देश, काल, और शरीर का ज्ञान नहीं रहता है। इतनी बात सच्चा होना मुझे समझ में आया। समाधि में जो मेरी जिज्ञासा थी कि "क्या बंधन और मोक्ष का कारण एक ही वस्तु है, या अलग-अलग वस्तु है?" - उसका उत्तर नहीं मिला।

पूरा वैदिक वांग्मय में इस बात की पुष्टि की है कि एक ही वस्तु (ब्रह्म) बंधन और मोक्ष का कारण है। ब्रह्म को सत्य, ईश्वर, ज्ञान, परमात्मा - यह सब नाम दिया गया है। यदि बंधन और मोक्ष का कारण एक ही वस्तु है तो उस वस्तु का इतना बड़े अपराध के रूप में शुरू करने का क्या कारण है? एक ही वस्तु बंधन और मोक्ष का कारण होना मुझे स्वीकार नहीं हुआ। सामान्य-ज्ञान से भी यह पता चलता है - बंधन मोक्ष का कारण नहीं हो सकता। दूसरे, मोक्ष-महिमा बंधन का कारण नहीं हो सकती। इसमें ब्रह्म पर "दोहरेपन" का आरोप स्पष्ट होता है। किसी भी मनुष्य को दोहरा-व्यक्तित्व स्वीकार नहीं है।

अभी संसार में किसी भी सामान्य व्यक्ति से यदि हम सर्वेक्षण करें और पूछें - "आप निश्चित व्यक्तित्व से संतुष्ट होते हैं, या दोहरे व्यक्तित्व से संतुष्ट होते हैं?" इसके उत्तर में सर्वाधिक व्यक्तियों का उदगार "निश्चित व्यक्तित्व" के पक्ष में ही सुनने को मिलता है। इससे पता चलता है - तमाम गलतियों और अपराधों से भरी हुई परम्पराओं का अनुयायी होते हुए भी सामान्य-व्यक्ति उनसे उभरना चाहता है। अभी सम्पूर्ण धरती पर "सामान्य व्यक्तियों" की संख्या ज्यादा है। "विशेष व्यक्ति" कम हैं। "विशेष व्यक्ति" ही धर्म-गद्दी, राज्य-गद्दी, और व्यापार-गद्दी को संभाले हुए हैं। ये तीन गद्दियाँ सामन्य-व्यक्तियों को डुबाने के लिए तीन-भंवर बनाए पड़े हैं। पहला भंवर है - छल, कपट, दंभ, पाखण्ड। दूसरा भंवर - साम, दाम, दंड, भेद। तीसरा भंवर - द्रोह, विद्रोह, शोषण, युद्ध। "विशेष व्यक्तियों" के द्वारा इतने प्रयासों के बावजूद "सामान्य व्यक्ति" कम से कम ४९% इन भंवरों से अछूता रहा है।

सटीक जीने की इच्छा "मध्यम कोटि" के आदमी में आज भी देखने को मिलता है। मध्यम-कोटि की मानसिकता ही है - न्याय के प्रति तीव्र इच्छा रहना। मध्यम-कोटि के व्यक्तियों को ही "सामान्य व्यक्ति" माना जाता है। "उच्च कोटि" के व्यक्ति के रूप में आजकल उनको पहचाना जाता है - जिनके पास सर्वोपरि पैसा हो, जो सर्वोपरि पद में बैठे हों। इन्ही के द्वारा उपरोक्त तीन-भंवर तैयार हुए हैं। "उच्च कोटि" के लोगों के पास सटीक जीने का कोई खाका ही नहीं है।

इसके अलावा एक और तबका है, जिसकी चर्चा शेष रह गयी है - उसको परम्परा में "निम्न कोटि" कहा गया है। दूसरी भाषा में "सर्वहारा" कहा गया है। तीसरी भाषा में "निरीह" कहा गया है। चौथी भाषा में "पापी" कहा गया है। पांचवी भाषा में "अज्ञानी" कहा गया है। ऐसे लोगों के लिए राज-गद्दी की आवाज है - "अपने अधिकारों को पहचानो, सरकारी योजनाओं का लाभ उठाओ!" ऐसे लोगों के लिए धर्म-गद्दी की आवाज़ है - "भगवान्, ईश्वर, गुरु, महापुरुष, देवताओं के प्रति शरणागत भाव में आस्था रखें, उद्धार हो जाओगे!" ऐसे लोगों के लिए शिक्षा-गद्दी की आवाज है - "पिछड़े रह कर कोई कल्याण नहीं है, आगे बढ़ना है। आगे बढ़ने के लिए संघर्ष ही है।" संघर्ष का मतलब है - अपराध-प्रयास, छीना-झपटी का प्रयास, सेंध-मारी, जान-मारी, लूट-मारी का प्रयास। ऐसे लोगों के लिए व्यापार-गद्दी का आवाज है - "जल्दी व्यापार में लग जाओ, लाभ से तरबतर हो जाओ!" इस प्रकार इन चार गद्दियों की आवाज संयुक्त रूप में यह इंगित करता है - "मनमानी करो, पकड़ में मत आओ! अफवाह (आरोप-प्रत्यारोप) के चक्कर में मत पड़ो!" दूसरे शब्दों में - "अपराध सब-कुछ करो, पर सोच के करो! प्रतिष्ठित रहने के लिए।"

"मानवीयता" की पहचान होने पर हम मानव-जाति को नाम दे सकते हैं - ज्ञानी, अज्ञानी, और विज्ञानी। इससे "विशेष", "सामान्य", और "निम्न" - ये सब भाषाएँ समाप्त हो जाते हैं। इन भाषाओँ का प्रयोग करते हुए सच्चाई और समानता को पहचानना मुश्किल है। ये तीन नाम (ज्ञानी, विज्ञानी, अज्ञानी) परंपरागत वर्ग-वादी, समुदाय-वादी, व्यक्ति-वादी मानसिकता की संतुष्टि के लिए दिया गया है। समझदारी संपन्न विधि से यदि नाम हो सकता है, तो वह है - केवल मानव। चेतना-विकास - मूल्य शिक्षा में पारंगत होने के उपरान्त ही सम्पूर्ण समुदायों के रूप में पहचान में आने वाले सभी व्यक्ति "मानव" के नाम से ही इंगित होगा। हम मानव प्रकारांतर से परेशानी में जो फंसे हैं - उनका कल्याण केवल समझदारी से है, जो सभी के लिए समान रूप से आवश्यक है।
समझदारी से ही समाधान होना प्रमाणित होता है। नासमझी से ही सारी समस्याएं होती हैं।

जो समझदार नहीं हैं, पर स्वयं को समझदार मान लेते हैं - ऐसे लोगों से ही सर्वाधिक समस्याएं मानव-कुल में समाहित हुआ है।

उपरोक्त बात की गवाही में - जितनी भी समस्याएं अभी तक मानव ने घटित कराई हैं, वे सभी का सभी समर्थ-समुदाय या समर्थ-व्यक्ति द्वारा ही घटित कराई गयी हैं। जब इस बात के प्रति हम सुनिश्चित होते हैं तो यह प्रश्न बनता है - वह कौनसा ज्ञान है, कौनसा विवेक है, कौनसा विज्ञान है - जिससे हम सर्वतोमुखी समाधान के अर्थ में जी सकें, प्रमाणित कर सकें, परम्परा के रूप में पुष्ट हो सकें (अर्थात जिसको सभी परिवार अपना सकें) ? भारतीय वैदिक विचार के अनुसार "ज्ञान" को लेकर सभी प्रयास, तप, जप, अभ्यास करने के बाद भी ज्ञान का "स्वांत सुख" के अर्थ में ही सीमित रहना बना। सर्व-सुख के लिए ज्ञान, विवेक, और विज्ञान प्रस्तावित नहीं हो पायी।

एक संयोग पूर्वक, समाधि-संयम पूर्वक अनुसंधानित ज्ञान, विवेक, और विज्ञान सर्व-शुभ के लिए पर्याप्त होना समझ में आ रहा है। सर्व-सुख में व्यक्तिगत सुख समाया ही है। अनुसंधान विधि से निष्पन्न यह ज्ञान (सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान का संयुक्त रूप) व्यवहार में मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना को प्रमाणित करने योग्य है। इस ज्ञान को प्रयोग विधि से प्रमाणित करना सफल हो गया है। इसी निष्कर्ष के आधार पर ही इस ज्ञान के लोकव्यापीकरण की अपेक्षा बनी। इसी कारणवश इसे संसार के सम्मुख "प्रस्ताव" के रूप में रखा है। यह सूचना आपके लिए इसी उद्देश्य से प्रस्तुत है। इसमें पारंगत होने की अपेक्षा और आवश्यकता होने पर आप इसका अध्ययन कर सकते हैं।

इस ज्ञान का लोकव्यापीकरण "अध्ययन विधि" से होने की व्यवस्था है। आज के समय तक अत्याधुनिक प्रचलित विज्ञान शिक्षा विधि से लोकव्यापीकरण हो चुका है। प्रचलित-विज्ञान विधि से मानव का अध्ययन न हो पाने के आधार पर - मानव को "भय" और "प्रलोभन" का पुतला मान कर संग्रह-सुविधा के लिए व्यापार का आडम्बर फैलाया गया है। इसी क्रम में मानव ने अपने स्व-विवेक से बहुत सारे ऐसे संस्थाएं भी बनाया है - जो मानव का अध्ययन कर सकें, मानव सहज अपेक्षाओं को पूरा करने के उद्देश्य से काम कर सकें। लेकिन इनमें भी मानव का अध्ययन संपन्न कराने के लिए अनुकूल पाठ्यक्रम और अध्ययन का संयोग नहीं हो पाया। मानव सहज-अपेक्षा के रूप में सच्चाई को समझने के लिए सदा-सदा से इच्छुक रहा है। इस अपेक्षा और इच्छा के अनुकूल प्रस्ताव को रखना एक आवश्यकता बनी रही। अब सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान मानव को शाश्वतीयता के अर्थ में अध्ययन करना सम्भव हो गया है। यह प्रस्ताव "विकल्प" के रूप में इसीलिये प्रस्तुत हुआ है, क्योंकि विगत से प्राप्त भौतिकवाद और आदर्शवाद दोनों विधियों से "स्वयं का अध्ययन" और "समग्र-अस्तित्व का अध्ययन" लोकसुलभ नहीं हो पाया।

सह-अस्तित्व में व्यापक रुपी साम्य-ऊर्जा में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति ऊर्जा-संपन्न है। ऊर्जा-संपन्न होने से जड़-चैतन्य प्रकृति चुम्बकीय-बल संपन्न है। बल-संपन्न होने से ही प्रकृति क्रियाशील है। क्रियाशीलता ही श्रम-गति-परिणाम स्वरूप में वर्तमान है। इसमें जड़-प्रकृति में "रचना-क्रम में विकास" का क्रम, और "परमाणु में विकास-क्रम" पूर्वक गठन-पूर्णता के स्वरूप में विकसित होना स्पष्ट हुआ। गठन-पूर्ण परमाणु ही "जीवन" है। जीवन-महिमा के रूप में आशा, विचार, इच्छा, ऋतंभरा, और प्रमाणों (अर्थात अनुभव-प्रमाणों) के रूप में अध्ययन करने की विधि स्पष्ट हुई।

"सच्चाई" अपने स्वरूप में सह-अस्तित्व ही है। सह-अस्तित्व में अनुभव होना ही "ज्ञान" है। "ज्ञेय" सह-अस्तित्व ही है। "ज्ञाता" जीवन है। इस प्रकार ज्ञाता, ज्ञान, और ज्ञेय तीनो स्पष्ट होता है। इस मुद्दे पर विगत में ज्ञान-वादी या ब्रह्म-वादी परम्परा में "अनुभव" शब्द का प्रयोग किया गया है। इस परम्परा में कहा गया है - "समाधि में अनुभव होता है।"

अनुभव करने वाली वस्तु के बारे में कौन अनुभव करेगा? - यह बात विगत के अनुसार स्पष्ट नहीं रहा। विगत में "जीव" और "आत्मा" की बात की गयी है। जीव के ह्रदय में ब्रह्म स्वयं आत्मा के स्वरूप में बैठा है - ऐसा कहा गया है। इस विधि से जीव अध्ययन करता है, या आत्मा अध्ययन करता है? - यह प्रश्न बनता ही है। इस विधि से आत्मा के अध्ययन करने की बात युक्ति-संगत या तर्क-संगत हो नहीं पाती - क्योंकि आत्मा को "अज्ञानी" कहना बनता नहीं है। जीव माया का स्वरूप है - और माया का अध्ययन करने की तमीज से संपन्न होना सम्भव नहीं है। ऐसा तर्क हो जाता है। अब इस स्थिति में जीव और आत्मा के संयुक्त रूप में अध्ययन होने की चर्चा हो सकता है। शरीर को इस विधि में पञ्च-भूतों का संयुक्त स्वरूप बता चुके हैं। पञ्च-भूतों का भी अध्ययन जैसी चीज के लिए साधन होना तर्क-संगत नहीं लगता। इस लिए आदर्शवादी विधि से मानव में, मानव से, मानव के लिए अध्ययन की संभावना पर विश्वास करना बनता नहीं है। आदर्शवादी विधि से - मनुष्य को सच्चाई का अध्ययन करने का अधिकार नहीं है। आदर्शवादी विधि से - सच्चाई को अध्ययन करने योग्य स्थिति-परिस्थिति मनुष्य के साथ जुड़ा नहीं है। इसी क्रम में शास्त्रों में मनुष्य को "अल्पज्ञ" कहा है - संभवतः इसी संकट से कहा हो!

इस प्रकार आदर्शवादी विधि से मानव-परम्परा के अथक प्रयासों के बाद भी अभी तक मानव सच्चाई को अध्ययन करने में असमर्थ रहा है।

आदर्शवाद के बाद जो भौतिकवाद प्रभावित हुआ, वह सर्व-मानव में स्वीकार हुआ। लेकिन उसके बावजूद भौतिकवाद का सच्चाई से कोई लेन-देन नहीं रहा। दोनों विचारधाराओं के सच्चाई का अध्ययन न करा पाने से मानव-परम्परा सच्चाई से वंचित रहा।

इसी के साथ यह भी सर्वेक्षण में आता है - आदर्शवाद ने शब्द, शास्त्र, और आप्त-वाक्यों को "प्रमाण" माना है, लेकिन मानव को "प्रमाण" का आधार नहीं माना। "आप्त-पुरूष" मानव से अतिदूर वाला वस्तु हो गयी। इस प्रकार कुछ और भ्रम-जाल ही मानव-परम्परा को हाथ लगा।

मानव अपने यथा-स्थिति में, अर्थात भ्रमित अवस्था में, अथवा जीव-चेतना में जीते हुए स्थिति में भी "सच्चाई" का प्यासा है। इस तथ्य का परीक्षण करने के लिए हम संवाद विधि से लोगों के साथ संभाषण कर सकते हैं। संभाषण करने में पूछने पर - "सच्चाई चाहिए या झूठ?", इसके उत्तर में सच्चाई के पक्ष में ९९% लोगों की सहमति है। सच्चाई के "प्रमाण" के बारे में जब पूछा जाता है तो इसके उत्तर में कुछ प्रतिशत लोग कहते हैं - "सच्चाई मनुष्य-परम्परा में अध्ययन विधि से स्पष्ट नहीं हुआ।" अत्यल्प प्रतिशत लोग यह कहते हैं - "जीने के लिए सच्चाई आवश्यक नहीं है।" ऐसे सर्वेक्षण से पता चलता है - मनुष्य-परम्परा में सच्चाई अध्ययन-सुलभ नहीं हुआ। इसी रिक्तता वश विकल्पात्मक विधि से यह सच्चाई के अध्ययन का प्रस्ताव प्रस्तुत है।

विकल्पात्मक अध्ययन प्रस्ताव में सर्व-प्रथम मानव का अध्ययन जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में होता है। मानव सह-अस्तित्व सहज प्रकटन का प्रमाण है। मानव जीव-संसार के समृद्ध होने के बाद ही प्रकट हुआ है। मानव जब से प्रकट हुआ है, जीव-चेतना विधि से ही जिया है। मानव के जीव-चेतना विधि से जीने के कारण ही धरती बीमार हुई है। मानव अब पुनर्विचार की स्थिति में पहुँच चुका है - यह मेरी मान्यता है। पुनर्विचार की स्थिति तो बन गयी है - भले ही पुनर्विचार करने के लिए मानव-जाति अभी तैयार न हुआ हो!

हर मानव सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक समझदारी से संपन्न होने योग्य इकाई है। हर नर-नारी का सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक पारंगत होना सम्भव है।

सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक हर नर-नारी का समझदारी से समाधान संपन्न होना सहज है। ऐसे समाधान-संपन्न हर परिवार में श्रम से समृद्धि प्रमाणित होना भावी है। समझदार परिवार में "निश्चित आवश्यकताओं" का सहज रूप में समझ में आना स्वाभाविक है। परिवार की "निश्चित आवश्यकताओं" से अधिक उत्पादन करना एक-एक व्यक्ति के अधिकार की चीज है। समझदार परिवार में समृद्धि से होने वाली तृप्ति का स्वरूप है - परिवार में उपयोग, समाज में सदुपयोग, और व्यवस्था में प्रयोजनशील होना।

मन की संतुष्टि समाधान पूर्वक होती है। समाधान पूर्वक मनः स्वस्थता के साथ शरीर का भी स्वस्थ रहना देखा जाता है। स्वस्थ-शरीर और मनः स्वस्थता के योगफल में अखंड-समाज और सार्वभौम-व्यवस्था मानव-परम्परा में मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना के रूप में प्रमाणित होती है। यही "चेतना-विकास" का अभिप्राय है।

मानव जब समाधान-समृद्धि पूर्वक व्यवस्था में जीता है, तभी उसमें "उपकार" की प्रवृत्ति उदय होती है। इसी लिए मानव-परम्परा का व्यवस्था के रूप में होना अति-आवश्यक है। ऐसी परम्परा ही अपराध-मुक्त होने का साक्षी होगा। मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना पूर्वक जीने से जीव-चेतना वश पहले किए हुए अनावश्यक और अप्रत्याशित घटनाओं के प्रभावों को कम करने में सहायक होना भी भावी रहेगा। इस प्रकार अपराध-परम्परा से न्याय-परम्परा में संक्रमित होना एक सर्व-शुभ कार्य है।

मानव में ज्ञान संपन्न होने और प्रमाणित हो कर तृप्त होने की कामना आज भी सर्वाधिक लोगों में जीवित है।

सहअस्तित्व परम सत्य है।

सहअस्तित्व में अनुभव होना ही परम-ज्ञान है।

ज्ञान के अनुरूप जीना ही प्रमाण है।

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

Wednesday, November 18, 2009

धर्म और व्याख्या

"धर्म" शब्द एक वेद-कालीन या बहुत प्राचीन-कालीन उपलब्धि है। प्राचीन काल से "धर्म" शब्द का प्रयोग होता आया है। विविध प्रकार से धर्म-गद्दियाँ स्थापित हुई। इस धरती पर जितनी भी धर्म-गद्दियाँ प्रचलित हो चुकी हैं, वे सभी धर्म के "लक्षणों" को लेकर उन समुदायों को समझाया करते हैं। इस क्रियाकलाप को "उपदेश" कहते हैं। "प्रवचन" भी कहते हैं। इस तरह उपदेश और प्रवचन देने वालों को "धर्म-रक्षक" मानते हैं। इन उपदेश और प्रवचन को सुनने वालों को "अनुयायी" माना जाता है। इस तरह धर्म-गद्दियों द्वारा भांति-भांति विधियों से "आस्था" की सीढ़ियों तक लोगों को पहुंचाता हुआ, और लोगों को पहुँचता हुआ देखा जाता है। इसमें उल्लेखनीय बात यही है - धर्म के लक्षणों को बताने वाले को स्वयं धर्म का स्वरूप पता नहीं रहता है। ऐसी स्थिति में अनुयायियों को या आस्था करने वालों को धर्म कैसे समझ में आएगा - यह प्रश्न मानव-सम्मुख होता ही है। इस प्रश्न का सटीक उत्तर नहीं होने के आधार पर ऐसा ही बनता है - बाकी लोग जैसा कर रहे हैं, वैसा ही हमको भी चलना चाहिए। इसी आधार पर मानव परम्परा ने आस्था-तंत्र को आज तक बनाए रखा है।

आस्थाएं संवेदनशीलता की अनुकूलता में ही चित्रित होना, व्याख्यायित होना देखा जाता है। संतान-अपेक्षा, पद-अपेक्षा, धन-अपेक्षा, स्वास्थ्य-अपेक्षा, सुविधा-अपेक्षा के लिए प्रार्थना होती हैं, और उनके प्राप्त होने पर आस्था बना रहता है। इसी को "आस्था परम्परा" भी कहा जाता है। मानव ने अपने अभावों को व्यक्त करने के लिए आस्था-क्रियाकलाप को सुविधाजनक माना। हम कुछ भी बोलें, सोचें - उसके प्रत्युत्तर में कुछ भी न बोलने वाले स्थान, मूर्ति, चित्र को अभी तक आस्था क्रियाकलाप के लिए सुविधाजनक माना जाता है। ऐसे स्थली में जो कोई भी प्रार्थना करते हैं, या अपेक्षा करते हैं - उसके फलित होने का अपेक्षा करना होता है। ऐसे प्रतीक्षाकाल में घटना-विधि से कुछ न कुछ हो ही जाता है। उस घटना को प्रार्थना का, आस्था का फल माना जाता है। इसी प्रकार बड़े-बड़े मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चबूतरा, पत्थर पर लालिमा पोत कर रखना देखा जाता है। इन स्थानों को "पूजा-स्थली" माना जाता है। मूर्तियाँ, और चित्र इन सबके साथ जुडी हुई संगतियाँ हैं।

इसके आगे "आस्था-स्थलियों" से जुडी हुई गतिविधियों का सर्वेक्षण करने पर पता चलता है - ऐसी स्थलियों पर वहाँ के आस-पास के कुछ लोग जाया करते हैं, कुछ लोग नहीं भी जाया करते हैं। जो जाया करते हैं, उनकी प्रार्थनाओं में जो अपेक्षा रहती है - उनका आंशिक भाग या पूरा भाग किसी-किसी के साथ घटित भी होता है, किसी-किसी के साथ घटित नहीं भी होता है। जो लोग इन आस्थावादी जगहों पर नहीं जाया करते उनकी भी कुछ अपेक्षाएं घटित होती हैं, कुछ नहीं घटित होती। इस प्रकार यह निश्चय करना मुश्किल है कोई उपलब्धि पूजा-पाठ, पत्री आदि से हुई - या अपने-आप से हुई। जैसे - संतान के लिए प्रार्थना। जो लोग प्रार्थना नहीं भी करते, उनके भी संतान होता है। पैसे-पद के लिए प्रार्थना। जो लोग प्रार्थना नहीं करते - उनको भी पद और पैसा मिला रहता है। फ़िर यह मुद्दा बनता है - पूजा-पाठ के आधार पर कैसे कोई चीज प्राप्त होती है? यह कहना मुश्किल हो जाता है।

इसको और गहराई से सर्वेक्षण करें तो पता चलता है - सम्पूर्ण अवैध उपलब्धियों को भी आस्था का फलन माना जाता है। जैसे - बहुत शोषण करके धन इकठ्ठा करने में सफल हो गए तो उसको अपनी प्रार्थना का फल मान लिया। इस विधि से हम कहाँ पहुँच गए हैं - यह हमारे सामने है।

आस्थावाद इस प्रकार वादग्रस्त होता गया है। १८वी शताब्दी से मानव-जाति द्वारा उन्मुक्त विचार-क्रम में, अथवा भौतिकवादी विचार-क्रम में तर्क-सम्मत विधि से सोचना-समझना, निर्णय करना शुरू हुआ। विज्ञान-विधि ने भी तर्क को भरपूर अपनाया। ऐसे सभी तर्क का प्रयोजन भी कुल मिला कर संवेदनाओं को राजी करना ही रहा। संवेदनाओं को राजी करने के लिए सभी अपराधिक कृत्यों - जंगल, घनिज, वन्य जीव, घरेलु जीव इन सबका शोषण, मानव द्वारा दूसरे मानव का शोषण, एक देश का दूसरे देश का शोषण - को वैध मान लिया। इस तरह जो भी किया गया - उसके फलन में धरती बीमार हो गयी।

धरती बीमार होने की स्थिति में मानव-परम्परा कैसे बना रहेगा? इस तरह तो पिछली पीढ़ियों ने आगे की पीढ़ियों के जीने की स्थली और संभावनाओं को ही समाप्त कर दिया! इस स्थिति के लिए पीछे की पीढियां जो अपराध के लिए सहमत हुए हैं - ये सब प्रकारांतर से जिम्मेदार होना स्वाभाविक है। इस स्थिति का निराकरण आवश्यक है।

इस स्थिति का निराकरण शोध-अनुसंधान विधि से मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के रूप में मानव-सम्मुख प्रस्तुत हुआ है। इसके मूल में अस्तित्व मूलक मानव-केंद्रित चिंतन है। इसका मतलब - मानव ही समझने वाला इकाई है। मानव ही प्रमाणित होने वाला इकाई है। समझदारी से संपन्न होने पर मानव समाधानित होता है।

अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है - पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था के रूप में सह-अस्तित्व रुपी अस्तित्व प्रकट है, वर्तमान है। मानव ज्ञान-अवस्था में नियति-सहज विधि से है। मानव ज्ञान-अवस्था में होने के आधार पर सुखी होने की चाहत में ही जी रहा है। मनुष्य ने पाँच संवेदनाओं के अर्थ में सुखी होने के बारे में सोचा, और संवेदनाओं को राजी रखने के लिए प्रयास किया। इस प्रकार के प्रयासों के क्रम में मनाकार को साकार करना सम्भव हो गया। मनः स्वस्थता की अपेक्षा शेष रहे आया। "सुखी होना" ही मनः स्वस्थता का स्वरूप है।

"समाधानित होना" ही सुखी होना है। सर्वतोमुखी समाधान ही निरंतर सुख का स्त्रोत है। यही मानव-धर्म का व्यवहारिक सूत्र है। समाधान ही अनुभव में सुख है। समाधान-समृद्धि ही अनुभव में सुख-शान्ति है। समाधान-समृद्धि-अभय ही अनुभव में सुख-शान्ति-संतोष है। समाधान-समृद्धि-अभय-सह-अस्तित्व ही अनुभव में आनंद है। जीवन में सुख-शान्ति-संतोष-आनंद मूल्यों का अनुभव होने की स्थिति में मानव परम्परा के कार्य और व्यव्हार में समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाणित होता है।

अनुभव स्थिति में सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व का दृष्टा होना पाया जाता है। अनुभव मानव परम्परा में प्रमाणित होता है, जिससे नित्य उत्सव होता है। यही आनंद का स्वरूप है।

मानव परम्परा में गुणात्मक परिवर्तन के लिए ज्ञान, विवेक, और विज्ञान में पारंगत होने की आवश्यकता है। यही अपराध मुक्त प्रवृत्ति और कार्यक्रम का सूत्र है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

Tuesday, November 17, 2009

मानव सहज-अपेक्षा स्वतन्त्र रहने की है.

मानव-परम्परा में जो कुछ भी भौतिक वस्तुओं की "प्राप्तियां" हुई वे "सुखी होने" के लिए प्रयत्न करने के क्रम में ही हुई। वस्तुओं से "सुखी" होने के अर्थ में प्रयत्न करते-करते "सुविधा" और "संग्रह" पूर्वक सुरक्षित होने की अपेक्षा निर्मित हुई। यह क्रमागत विधि से घटित हुआ।

सुविधा-संग्रह विधि से प्रयत्न करने पर मनुष्य को उसका "तृप्ति-बिन्दु" मिला नहीं। लेकिन तृप्ति-बिन्दु मिल सकता है, इसकी "सम्भावना" लगती रही।

सबको सुविधा-संग्रह समान रूप से नहीं मिल सकता। इस विधि से मानव शंका-कुशंका की ओर चला। इस तरह चलते-चलते "अकेलेपन" में रह गया, या "व्यक्तिवादिता" में रह गया। व्यक्तिवादिता का फल-परिणाम है - भय से पीड़ित रहना, शंकाओं और समस्याओं से घिरे रहना, दूसरों के लिए पीड़ा पैदा करना। स्वयं के लिए संग्रह होना अपने आप में इस बात का प्रमाण है - दूसरे के लिए हानि होना। यह बहुत पहले से ही मानव को विदित है - किसी का लाभ होने से दूसरे का हानि होता ही है। यह वैसे ही है - एक जगह मिट्टी इकठ्ठा होने के लिए दूसरी जगह गड्ढा होता ही है।

मानव बहुत पहले से ही "लाभ-हानि मुक्त" विधि से जीने की इच्छा व्यक्त किया है। इस इच्छा को व्यक्त करना बहुत सारे यति, सती, संत, तपस्वियों में देखने को मिला है। मानव अपनी परिभाषा की ही व्याख्या करता रहता है। मानव में "अनेकता" का प्रकट होने का प्रयोजन "एकता-सहज आवश्यकता" का कारण हुआ।

२१वी सदी तक हर मानव, अथवा मानव-परम्परा जीव-चेतना विधि से सुखी होने के लिए प्रयत्न किया। इस क्रम में आकाश में घूम लिया, समुद्र के तल पर घूम लिया, धरती की सतह तो घूमा ही। इसी क्रम में हर देश दूसरे देशों के रवैय्ये को अध्ययन करने के योग्य हुआ। लेकिन जीव-चेतना से सारे अध्ययन-प्रयास जीव-चेतना स्थली में ही सिमटता रहा। इसकी गवाही है - लाभोन्मादी, भोगोन्मादी, और कामोन्मादी सोच-विचार और कार्य-व्यवहार में मानव-परम्परा का व्यस्त रहना। इसी क्रम में ज्यादा संग्रह से ज्यादा व्यस्तता में ग्रसित रहना देखा जा रहा है।

मानव सहज-अपेक्षा स्वतन्त्र रहने की है। जीव-चेतना में "मनमानी विधि" से स्वतंत्रता की वकालत होती है। मानव-चेतना में "समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व विधि" से स्वतंत्रता की वकालत होती है।

"मनमानी विधि" से सम्पूर्ण प्रकार के गलती, अपराध, अनाचार, दुराचार, अत्याचार होना देखा जाता है। इस विधि से अपराधों का प्रचार, अपराध करने के लिए अध्ययन, और अपराध करने के लिए अवसर पैदा करने वाला व्यक्ति अपने को "ज्यादा विकसित" मानता है, ऐसा देश अपने को "ज्यादा विकसित" मानता है। "मनमानी विधि" से भिन्न रूप में यदि देखना चाहते हैं, तो "मानव की मानसिकता" पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

मानव की मानसिकता पर ध्यान देने पर पता चलता है - हर मानव सर्वाधिक भागों में "सहीपन" को, "सार्थकता" को, "सत्यता" को, और "समाधान" को चाहता है। लेकिन परम्पराएं - धर्म-परम्परा, शिक्षा-परम्परा, व्यापार-परम्परा - सभी एक से एक घोर विपदा की ओर गतिशील हैं। व्यक्ति को प्रचलित-परम्परा से जो मिलता है, वह उसका अनुसरण-अनुकरण करने के लिए विवश होना पाया जाता है।

विज्ञानवादी सोच जब उदय हुई - तो लोगों ने उससे विपन्नता और नासमझी से मुक्त होने की सम्भावना को स्वीकारा। लेकिन घटना उसके विपरीत हुई। विज्ञान विधि से सर्वाधिक मानव प्रयोग विधि से, प्रक्रिया विधि से अपराध कार्य में ही भागीदारी किए। कुछ लोग भागीदारी किए, बाकी लोग उससे सहमत रहे। कुल मिला कर विज्ञानं से मानव की अपेक्षा और विज्ञान-गतिविधियों के फल-परिणाम में विपरीतता दिखती है। विज्ञान-तंत्र के प्रभाव से मानव कोई सकारात्मक उपलब्धियों को परम्परा के रूप में पाया नहीं - इसके विपरीत, प्रदूषण और धरती बीमार होना ७०० करोड़ आदमियों के लिए "गले की फांसी" बन चुकी।

दो प्रकार की विचारधाराएं (आदर्शवादी और भौतिकवादी) जो मानव-परम्परा में प्रभावित हुई - उनसे फल-परिणाम में सुख-शान्ति की स्थली में पहुँचने के विपरीत अशांति और समस्याओं से घिर गए। स्वतंत्रता की अपेक्षा मानव में सहज है। इसी अपेक्षा-क्रम में मानव समझदारी पूर्वक हर सम्बन्ध के प्रयोजन को पहचान पाता है, फल-स्वरूप मूल्यों का निर्वाह होता है।

संबंधों में सामरस्यता ही स्वतंत्रता का स्वरूप है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

न्याय और व्याख्या

न्याय का स्वरूप मानव-संबंधों में स्पष्ट होता है।

मानव द्वारा अपनी परस्परता में संबंधों को पहचानना एक साधारण प्रक्रिया है। "पिता", "माता", "भाई", "बहन" ये नाम से परस्परता में संबोधन होता ही है। फ़िर पिता के भाई-बहन ("चाचा", "बुआ"), माता के भाई-बहन ("मामा", "मौसी") के संबोधनों के लिए नाम होता ही है। इन संबंधों में शरीर-सम्बन्ध को छोड़ कर व्यवहार करने की बात स्पष्ट होती है।

पति-पत्नी सम्बन्ध ही शरीर-संबंधों के साथ हैं। यह तथ्य समझ में आना आवश्यक है। जीव-अवस्था में जैसे प्रजनन-प्रणाली है, मानव-जाति में भी वैसे ही प्रजनन-प्रणाली है। उस क्रम में पति-पत्नी सम्बन्ध प्रजनन-कार्य पूर्वक संतान-परम्परा के लिए एक महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है। जीव-अवस्था में प्रजनन-कार्य की सीमा में ही सम्बन्ध होना पर्याप्त हो गया, जबकि मानव-परम्परा में पति-पत्नी सम्बन्ध प्रजनन-कार्य की सीमा में ही होना पर्याप्त नहीं हुआ। मानव-परम्परा में बहुत सारे आयाम जुड़ता गया।

मानव समझदारी पूर्वक ही हर सम्बन्ध को प्रयोजनों के अर्थ में पहचान पाता है - फलस्वरूप मूल्यों का निर्वाह होता है।

हर मानव-संतान का अपने अभिभावकों को "पोषण-संरक्षण" के अर्थ में पहचानना स्वाभाविक है। जीव-चेतना विधि से पोषण-संरक्षण केवल शरीर से सम्बंधित रहता है। संतान को भाषा से संपन्न बनाना, और प्रचलित-अलंकार से संपन्न कराने का प्रयास बना रहता है। शरीर की सीमा तक ही किया गया पोषण-संरक्षण किसी आयु के बाद नगण्य हो जाता है, या इसकी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं, या कुछ दूसरी भौतिक वस्तुओं से जुडी प्राथमिकताएं स्थापित हो जाती हैं। फलस्वरूप अभिभावकों की अपेक्षा के अनुरूप संतान का व्यवहार न हो पाना घटना के रूप में देखने को मिल रहा है। यही पीढ़ियों के बीच की दूरी (generation gap) के रूप में देखने को मिल रहा है। इस घटना का निराकरण होना जरूरी है। यह निराकरण जीव-चेतना विधि से सम्भव नहीं है। जीव-चेतना विधि में जीवों का ही अनुकरण करना बनता है।

हर जीव-जानवर अपनी संतान के जन्म के समय के तुरंत बाद अतिव्यामोह अथवा प्यार-दुलार करता हुआ देखने को मिलता है। पक्षी अपनी चोंच में आहार-तत्व ला कर अपनी संतान की चोंच में देते हैं। मांसाहारी जानवर अपने शिकार को मार कर अपने संतान के सम्मुख रखना देखा जाता है। मांसाहारी और शाकाहारी दोनों तरह के जानवरों में अपनी संतान को स्तन-पान कराना देखा जाता है। गाय अपनी संतान को दूध पिलाते हुए प्रसन्न होता हुआ देखने को मिलता है। बछड़े को ठीक से घास खाता देखकर आश्वस्त होता हुआ देखने को मिलता है।

मनुष्य द्वारा जीव-चेतना में उपरोक्त का अनुकरण करने का स्वरूप है -

(1) आहार-आवास-अलंकार संबंधी वस्तुओं से पोषण-संरक्षण करना।
(२) कुछ समय बाद संतानों में इसका वरीयता गौण होना पाया जाता है।
(३) हर आगे की पीढी पिछली पीढी से कुछ "और अच्छे तरीके" से इन वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है, और उनके उपयोग में स्वतंत्रता संपन्न होना चाहता है।

इन तीनो के योगफल में अगली पीढी और पिछली पीढी में दूरियां बढ़ती जा रही हैं।

इस स्थिति का निराकरण मानव-चेतना विधि से यह है -

(१) हर मानव संतान का अभिभावकों के साथ अपने संबंधों में प्रयोजनों को स्मरण में रखते हुए कृतज्ञ होना।
(२) विश्वास पूर्वक संबंधों का निर्वाह करना
(३) तन-मन-धन रुपी अर्थ का उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता के अर्थ में अर्पण-समर्पण के लिए उदार-चित्त रहना

इस तरह - संबंधों का निर्वाह होना ही "न्याय" है। संबंधों का प्रयोजन सिद्ध होना, संबंधों में मूल्यों का निर्वाह होना और उभय-तृप्ति होना ही न्याय की व्याख्या है।

इस प्रकार न्याय और न्याय की व्याख्या इस छोटे से लेख के द्वारा मानव-सम्मुख प्रस्तुत है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

Monday, November 16, 2009

सकारात्मक शोध और सम्भावना

सुदूर विगत से मानव अपने "सकारात्मक" और "नकारात्मक" मंतव्यों को व्यक्त करते आया है। एक व्यक्ति अथवा एक परिवार अथवा एक समुदाय जिस बात अथवा कार्य-व्यवहार को स्वीकारा - उसी बात को कुछ समय बाद दूसरा व्यक्ति, दूसरा परिवार, दूसरा समुदाय उसको नकार दिया। इस प्रकार की दुविधा आज तक चला आया। इस दुविधा-वश ही मत-भेदों का जन्म हुआ। जैसे - एक समुदाय ईश्वर को माना, दूसरा नहीं माना। इस प्रकार ईश्वर और ईश्वरीयता को सकारने और नकारने को लेकर बहु-संख्यात्मक मतभेद पैदा हुआ।

इसके आगे - जिन समुदायों ने ईश्वर को माना उनके मानने की कसौटियां, और तौर-तरीके अलग-अलग प्रकार से होते गए। एक का तरीका दूसरे को पसंद नहीं आया। इस प्रकार का वितंडावाद बहुत दिन तक चलता ही रहा। बीच-बीच में ईश्वर-दास, ईश्वर-भक्त, साधना-सिद्ध, मन्त्र-सिद्ध, योग-सिद्ध, ज्ञान-सिद्ध - इस प्रकार की बहुत सारी मान्यताएं सकारात्मक या नकारात्मक विधि से वाद-ग्रस्त होता रहा। इन्ही सब बातों को स्पष्ट करने के लिए वांग्मय सर्वप्रथम तैयार किए गए। भारत में ऐसे वांग्मय को "वेद" कहा गया।

वेद के तैयार होने से पहले भाषा-विज्ञानं (अर्थात व्याकरण-शास्त्र) तैयार हो चुकी थी। उस समय भाषा के सम्बन्ध में ही "विद्वान" होने की परम्परा थी। भाषा का नियंत्रण व्याकरण-विधि से ही होता रहा। इस क्रम में वेद "विद" धातु से बना। 'विद' अक्षर के अर्थ के रूप में बताया गया - "विद ज्ञानः धातु"। अर्थात विद को ज्ञान रुपी धातु माना। इस मान्यता के आधार पर वेद को ज्ञान-स्वरूप माना।

वेद को जब परम्परा में सीखा-पढ़ा गया तो ऐसी बात आयी - वेद केवल ज्ञान ही नहीं है, उपासना भी है, और कर्म भी है। ऐसा पाने पर एक "सान्त्वनात्मक वक्तव्य" जोड़ा गया कि ये कर्म और उपासना भी ज्ञान के लिए ही हैं। इसमें सहमत हुए। फ़िर कुछ समय बाद इस मुद्दे पर चर्चा होने लगी - "ज्ञान क्या है?" यह चर्चा वेद-पाठियों और वेद-मूर्ति हैसियत वालों में होती रही। वेद-पाठियों को "बुद्धि-जीवी" मानते रहे। वेद-मूर्तियों को "ज्ञानी" मानते रहे। इस प्रकार की चर्चाओं की झलक इतिहास में मिलती है।

ज्ञान को लेकर चर्चाओं के क्रम में एक संवाद याज्ञवल्क्य जी और बुद्धि-जीवियों के बीच हुआ। उस संवाद में मुख्य मुद्दे के रूप में इस बात पर अंतर्विरोध उभर आया - "ब्रह्म का भाग-विभाग होता है, या नहीं होता है?" जब याज्ञवल्क्य जी ने कहा - "ब्रह्म का भाग-विभाग नहीं होता है।", तो बुद्धिजीवी उससे सहमत हुए। उसके बाद आगे जीवों का निर्मित होने का बताते हुए उन्होंने कहा - "जीवों के ह्रदय में जीव-कारन्य-वश ब्रह्म बैठ गया। आत्मा जिसका नाम है।" ऐसा बताने पर बुद्धिजीवियों ने उस पर ऐतराज किया। इसे उन्होंने अपनी भाषा में बताया - "आपने पहले ब्रह्म के भाग-विभाग नहीं होने की बात बताई, फ़िर अब कहते हैं - असंख्य जीवों के ह्रदय में आत्मा के रूप में ब्रह्म ही बैठा है।" इसे सुनकर याज्ञवल्क्य जी ने उपमा दे कर कहा - "एक ही सूरज अनेक पानी से भरे हुए घड़ों में दिखता है - वैसे ही ब्रह्म जीवों के ह्रदय में है।" इसके बाद तर्क आगे बढ़ी। याज्ञवल्क्य जी से पूछा गया - "पानी से भरे घड़े में सूरज दिखता अवश्य है, पर क्या उनमें सूरज रहता है?" ऐसा पूछने पर याज्ञवल्क्य जी कहे - "नहीं"। उत्तर में बुद्धिजीवियों ने कहा - "तो फ़िर आत्मा भी जीवों के ह्रदय में रहता नहीं है।" इस तरह जब तर्क आशय के विपरीत होने लगी तो याज्ञवल्क्य जी नाराज हुए, और श्राप देने को कहा। फ़िर बुद्धिजीवियों ने कहा - "हमको श्राप-ग्रस्त नहीं होना - इसलिए आपकी कही हुई बातों में हमको कोई शंका नहीं है।" इसी प्रकार बहुत सारे प्रसंगों में विरोधाभासी स्थितियां लिखा हुआ मिलता है।

वेदान्त ग्रंथों में इस बात का जिक्र किया है कि "ब्रह्म ज्ञान पवित्र है, अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है"। ऐसा कहते हुए उपदेश विधि से सत्कर्म, उपासना, वेदाभ्यास, वेदान्त के श्रवण के बाद अभ्यास द्वारा श्रवण-मनन-निधिध्यासन अथवा धारणा-ध्यान-समाधि, न्यास-ध्यान-समाधि विधियों से समाधि होना, समाधि में ज्ञान होना, और समाधि में अज्ञात ज्ञात होना बताया गया है। समाधि में जो कुछ भी स्थिति होती है, उसे "अनिर्वचनीय" बताया गया है। इस प्रकार अभ्यास का अन्तिम छोर (समाधि) और कथन (ब्रह्म ज्ञान अनिर्वचनीय है) इन दोनों में सामंजस्यता आ गयी। इस प्रकार ऋषि-कुल परम्परा में जो वेद उद्घाटित हुए, हिंदू समुदाय उसके समर्थन में अपने मंतव्य को व्यक्त करता हुआ, अथवा सहमति को व्यक्त करता हुआ, परम्परा को बनाए रखता हुआ देखने को मिलता है। उसमें भी बहुत सारा अंतर्विरोध होते हुए बहुत सारा शाखा-प्रशाखा में बँट गया। यहाँ तक ज्ञान-विधा की बात हुई।

उपासना और आराधना क्रम में भी अनगिनत मतभेद हुए। क्रमागत विधि से इन मतभेदों के चलते चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य के काल तक एक परिवार में भी अनेक मत हो गए। अनेक राजा हो गए। इसी के फल-परिणाम में पूरे देशवासी क्षति-ग्रस्त, आहत भी हुए। इसी क्रम में मुसलमान और अंग्रेजों का राज्य और उसके बाद कुछ भाग की हिन्दुस्तान के रूप में पहचान हुई। और फ़िर अंग्रेजों से आजादी और गणतंत्रीय विधि से शासन करने की बात स्थापित हुई।

गणतंत्र विधि से शासन करने के लिए संविधान १९५० में भारत में स्थापित हुआ। इस संविधान से "राष्ट्रीय चरित्र" का कोई स्वरूप स्पष्ट नहीं होता। इस संविधान में "धर्म-निरपेक्षता" और "समानता" की बात की गयी है। धर्म-निरपेक्षता की अपेक्षा व्यक्त करते हुए अनेकानेक जातियों का संविधान में उल्लेख है। समानता की अपेक्षा व्यक्त करते हुए "आरक्षण" को स्वीकार है। आरक्षण को स्वीकारने के बाद "समानता" का आधार कहाँ रहा? अनेक जातियों को लिखने के बाद "धर्म-निरपेक्षता" का क्या मतलब रहा? वोट और नोट के बंटवारा और संतुष्टि-असंतुष्टि को लेकर संविधान पर प्रश्न-चिन्हों की बौछार लग गयी है। भले ही हम सांत्वना देने के लिए कुछ भी भाषा लगा लें - ऐसे संविधान के तले गणतंत्र प्रणाली से शासन सफल नहीं हो पाया। संभवतः यह सभी राजनीतिक दलों को पता है, बुद्दिजीवियों को पता है। आगे कुछ सोचने, समझने, और निर्णय करने-कराने की आवश्यकता है।

यह सभी बवंडर जीव-चेतना विधि से ही उपजा हुआ है। इसका समाधान केवल मानव-चेतना विधि ही है। जीव-चेतना विधि से सम्पूर्ण भ्रमित कार्य होते हैं। जीव-चेतना में रहते तक भ्रमित-कार्य को रोकने के लिए दूसरा भ्रमित-कार्य ही प्रस्तुत करना बनता है। इस प्रकार भ्रमात्मक कार्यकलाप ही मानव-परम्परा में पनपी।

"चेतना-विकास मूल्य-शिक्षा" विधि से शिक्षा-तंत्र, संविधान-तंत्र, न्याय-तंत्र, उत्पादन-तंत्र, विनिमय-तंत्र, और स्वास्थ्य-संयम तंत्र के पक्ष में कार्य-व्यवहार के स्वरूप का प्रस्ताव प्रस्तुत हो चुका है। इन सभी मुद्दों पर मानव-परम्परा में पूर्णतया ध्यान देने की आवश्यकता है। इस मुद्दे पर अस्तित्व-मूलक मानव-केंद्रित चिंतन के मूल प्रबंधों (दर्शन, वाद, शास्त्र, संविधान, योजना) को प्रस्तुत किया जा चुका है। इन मुद्दों पर ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी के संतुष्ट होने के पश्चात मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद में इंगित अनेक मुद्दों पर प्रबंध, उप-प्रबंध, लघु-प्रबंध लिखा जा सकता है। जिनका आगे जो कक्षा १ से कक्षा १२ तक की पाठ्य-पुस्तकें बनेंगी - उनमें उपयोग होने का स्थान रहेगा।

मूल प्रबंध जो दर्शन, वाद, शास्त्र, संविधान के रूप में तैयार हुआ है - आरंभिक रूप में इसी के आधार पर पारंगत होने की आवश्यकता है। इसमें पारंगत व्यक्ति ही इन मूल प्रबंधों के आधार पर उप-प्रबंध, और लघु-प्रबंधों को प्रस्तुत करेगा। ऐसा प्रावधान आगे जो इस विचारधारा में प्रवेश चाहते हैं, उनके लिए सहायक होगा। मेरा विश्वास है - आगे आने वाले विद्वान, मनीषी, प्रतिभाशाली, विवेकी अपने स्वयं-स्फूर्त विधि से सर्व-शुभ के लिए ही अपने मंतव्यों को व्यक्त करेगा। इस विधि से उपकार होना स्वाभाविक है।

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

Sunday, November 15, 2009

अच्छे और बुरे की सीमा-रेखा

आदर्शवादी युग की देन है - "श्रेष्ठतम भाषा"। और भाषा के स्वरूप में ही अच्छे कार्य और व्यवहार का उपदेश संपन्न हुई। इस प्रकार यह संदेश रहा - "अच्छी सोच" और "अच्छे कार्य" को "अच्छी बात" से जोड़ना जरूरी है। किंतु आदर्शवादी विधि से "अच्छे" और "बुरे" की सीमा-रेखा स्पष्ट नहीं हो पायी। इसलिए आदर्शवादी विधि में पुण्य-कर्मो का फल मरने के बाद "स्वर्ग", और पाप-कर्मो का फल मरने के बाद "नर्क" बताया गया था। साथ ही उसमें यह भी कहा गया है - राजा और व्यापारियों के पास जो धन होता है, वह उनके "पुण्य कर्मो" का फल है। अब यह स्पष्ट हो गया है - अपराध-विधि से ही सर्वाधिक सम्पदा और अधिकार (दूसरों को तंग करने का अधिकार, और धरती को घायल करने का अधिकार) बना रहता है। यह बात "मध्यम-कोटि" के लोगों को स्वीकार नहीं हो पायी।

इस विकल्पात्मक अनुसंधान की रोशनी में यह स्पष्ट होता है, सम्पूर्ण मानव-जाति - चाहे वे अपने को "ज्ञानी", "विज्ञानी", या "अज्ञानी" मानते हों - के सम्पूर्ण कार्य-कलाप, प्रवृत्ति, योजना, कार्य-योजना, और फल-परिणाम सब "ग़लत" होना, और "गलती के लिए भागीदारी" होना स्पष्ट हुआ। अपराध में सभी का भागीदारी है। इस विकल्प में भी सबकी भागीदारी होना भावी है। अब यह पक्ष समाप्त हो जाता है - ज्ञानी को यह विकल्प नहीं चाहिए, या विज्ञानी को यह विकल्प नहीं चाहिए, या अज्ञानी को यह विकल्प नहीं चाहिए।

विकल्प की आवश्यकता सभी को है, क्योंकि सभी ने मिल कर अपराध पूर्वक आज की स्थिति तक पहुँचाया है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २००५, सिद्ध मसूरी

Wednesday, November 11, 2009

विकल्पात्मक प्रस्ताव के अध्ययन की विधि

इस लेख का शीर्ष अपने आप में विचार करने के लिए परिस्थितियां निर्मित करता है। यहाँ इसका सन्दर्भ अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन रुपी मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्ववाद के अध्ययन से है। यह आशय स्पष्ट होना आवश्यक है। विगत में भी ऐसी कुछ गतिविधियाँ घटित हुई हैं जो मानव-परम्परा के विचार-विधियों को बदलने की घटना के रूप में रहीं। उन पर एक नज़र डालना आवश्यक है।

मानव जंगल-युग से ही अपने वर्चस्व को मौलिक रूप में स्थापित करने में गतित रहा। "गतित रहने" का तात्पर्य - पीढी से पीढी कुछ आशयों को पहले से अच्छा करने के पक्ष में अनुसन्धान पूर्वक अध्ययन/शोध परम्परा बना ही रहा। इसी क्रम में अभी मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद और शास्त्र अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन के स्वरूप में मानव-सम्मुख प्रस्तुत हुआ है। इस के प्रकट होने के पहले दो प्रकार के सोच-विचार मानव-परम्परा अभ्यास, अनुकरण, अनुसरण प्रणाली सहित "अध्ययन" का वस्तु माना या "प्रयोग" का वस्तु माना।

सर्वप्रथम विचार यह बना - "कोई अव्यक्त महिमा-संपन्न ताकत मनुष्य को पैदा किया।" अलग अलग परिस्थितियों में उस ताकत को इंगित करने के लिए नाम दिए गए। जैसे - "ईश्वर", "परमात्मा"। इस अर्थ को इंगित कराने के लिए बहुत सारे नाम अपने-अपने भाषा में व्यक्त किया जाना मनुष्य-परम्परा में, से, के लिए एक अद्भुत बुनियादी सोच है।

इसी प्रकार "संख्या" को लेकर भी देखें तो ९ तक ही संख्याओं को अलग-अलग आकार में लिखने की तरीके बने।

इस तरह - "ईश्वर का नाम" और "संख्या" - ये दो प्रधान भाषा का स्वरूप हर देश-काल में बने। विचार रूप में "भय" और "प्रलोभन" ही रहा। भय और प्रलोभन के आधार पर हर भाषा का विस्तार होता गया।

आदि-काल से ही मानव ने भय और प्रलोभन के साथ ही अपने परम्परा-प्रवाह को पीढी से पीढी तक बनाए रखा। भय से राहत पाने के लिए प्रलोभन का वरण करता रहा। आदि-मानव ने पहले जीवों जैसे "जीने की आशा" से ही अपने क्रियाकलापों को व्यक्त किया। आदि-मानव के लिए अनुसरण-अनुकरण के लिए जीव-संसार ही आदर्श रहा। अन्य सभी घटनाएं - जैसे धरती, पानी, हवा, ऊष्मा, उजाला - यही मनुष्य के लिए समझने की वस्तु रही। इसी क्रम में मनुष्य अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग करते आया। इसमें सोच-विचार का प्रयोग प्रलोभन के सम्बन्ध में श्रेष्ठता, भय से मुक्त होने के लिए, अथवा भय से बचने के उपायों को लेकर श्रेष्ठता के लिए हुआ। इस प्रकार पीढी से पीढी मनुष्य-परम्परा जीवों से अलग होता हुआ देखने को मिला। विभिन्न देश-काल में इस घटना-क्रम से गुजरना मनुष्य परम्परा में रंग और नस्ल का आधार बना।

मानव अपनी मौलिक कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के साथ हर "कार्य" के साथ "कारण" को सोचना बना रहा। जैसे - जोर से हवा आ गया। उसका कारण क्या है? पानी खूब बरसने लगा - इसे कौन बरसा रहा है? खूब रोशनी आ गयी - यह रोशनी कौन दे रहा है? इनके बारे में सोचना बना। साथ ही गगन-चुम्बी जंगल, नदी-नाले, पहाड़ दृश्यमान रहा ही। इन सबको किसने बनाया? इस प्रकार की सोच आदिकाल से प्रतिबिंबित होना कल्पनाशीलता में सक्रिय रहा। इसी क्रम में हर देश, काल, परिस्थिति में मानव यह स्वीकारा है - "झाड़ से, जंगल से, नदी से, नाले से, पहाड़-पत्थर-मिट्टी से बहुत बड़ी ताकतवर चीज कहीं है, वही यह सब को बनाता रहता है।" ऐसा कल्पना का एक "दौर" बना लिया। कल्पनाओं को दौडाने का एक "सुविधाजनक क्षेत्र" मिल गया कि - एक बहुत बड़ी महिमा-संपन्न वस्तु है, जिसे हम "परमात्मा", "ईश्वर" नाम दे दिए। उनका महिमा कहीं समाप्त नहीं होता है। उन्ही की इच्छा के अनुसार अनगिनत सृष्टि सामने है। इसको स्वीकार लिया। इसी को विभिन्न भाषाओँ में विभिन्न प्रक्रिया के रूप में वर्णन किया। इसी को "मूल वांग्मय" और "पवित्र ग्रन्थ" माना जाता है। आगे के युगों में चल कर इसी को "दर्शन" नाम दे दिया। इस प्रकार मनुष्य जंगल से ग्राम-कबीला, उसके बाद समुदाय रूप में, उसके बाद मत-सम्प्रदाय रूप में अपने को पहचानता रहा और ईश्वर-परमात्मा को सर्व-समर्थ मानता रहा।

यह क्रम आगे - ईश्वर की महिमा को "महिमा संपन्न स्वरूप" देने में लगा। यह सब "देवी" "देवता" नाम से संबोधित करने लगे। इसी क्रम में कुछ "सिद्ध", "महापुरुष", "ईश्वर-दूत", "अवतार" के आकार में भी मानव अपनी कल्पनाशीलता को दौडाया। यह सभी देश-काल में सोच-विचार में आया ही है - प्रकारांतर भले ही हो। इसी के साथ प्रार्थना, पूजा, अनुष्ठान, साधना के नाम से बहुत सारी विधियां तैयार हुई। इन सब के मूल में लक्ष्य रहा - भय से मुक्ति, और प्रलोभन के तृप्ति-बिन्दु की प्राप्ति। इन संयोगो से चलते हुए मानव ने अपनी कल्पनाओं को ईश्वरीय-कल्पना मान लिया। अपने कल्पनात्मक-चित्रण को "ईश्वर" मान लिया। इस प्रकार पीढी से पीढी मनुष्य-जाति "रहस्य" में ग्रसित होता ही रहा।

कुछ समय के बाद मनुष्य-जाति का सोच-विचार "तर्क" में उतरा। तर्क अपने से प्रयोजन से जुड़ने का आशय जुड़ा रहा - चाहे वह आशय स्पष्ट न रहा हो। इस तरह से विचार पूर्वक मानव अपनी गतिविधियों से ग्राम से शहर तक, सड़क-वाहन आदि, जंगल का सफाया, नदी-नालों में प्रदूषण, और हवा-पानी विर्कृत करने के कार्यक्रम की शुरुआत किया।

इसके साथ-साथ मनुष्य जिसको "श्रेष्ठ" माना, उसको सम्मान करता रहा। जंगल-युग में भी जो आने वाली विपदाओं का सामना करता था (जैसे हिंसक जानवरों से मुकाबला) - उसका सम्मान बाकी लोग करते रहे। इसी क्रम में दूसरे नस्ल और रंग के आदमी को भी क्रूर और घातक जानवर मानते हुए मनुष्य संघर्ष करता रहा। मार-पीट, उपद्रव का तरीका मानव में निहित कल्पनाशीलता के आधार पर बदलता रहा। मनुष्य हर जगह, हर स्थिति में संघर्ष से प्राप्त सफलता को "ईश्वरीय देन" मानते हुए चला। इस प्रकार "ईश्वर प्रार्थना" का मूल आधार स्थापित हुआ। ऐसा आशय आज की जाने वाली प्रार्थनाओं में भी समाई हुई है।

ऊपर वर्णित विश्लेषण के अनुसार मानव-मानसिकता का अध्ययन करने पर पता चलता है - हर समुदाय, हर व्यक्ति भय और प्रलोभन के आधार पर अपनी कल्पनाशीलता को प्रयोग करता रहा। सारे विधाओं में भय से मुक्ति और प्रलोभन की रक्षा चाहता रहा।

इसी उपक्रम में प्रलोभन और प्रलोभन-परम्परा को संरक्षित करना "प्राथमिक आवश्यकता" माना गया है। इसी को प्रकारांतर से हम मानव एक दूसरे के बीच में प्रस्तुत कर पाते हैं। प्रलोभन और प्रलोभन-परम्परा के संरक्षण के लिए जितना ज्यादा सम्भावना बनता है, उसको मानव "उपलब्धि" मानता गया। साथ ही भय से मुक्ति के लिए जितने भी विकराल, सर्वाधिक नाशकारी, विध्वंसकारी अविष्कारों को "विकास" मानता गया। इसी क्रम में सर्व-मानव - ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी - सुविधा-संग्रह के दरवाजे में देखने को मिल रहा है। भय और प्रलोभन के लिए ही ईश्वर-वाद और भौतिकवाद का प्रयोग हुआ। इन दोनों विधियों से "मानव का अध्ययन" नहीं हो पाया।

भय और प्रलोभन के लिए सोच-विचार के क्रम में आज हम मानव जहाँ भी पहुंचे हैं, यह सोचने के लिए बाध्य हो गए हैं - धरती बीमार होने के बाद, नदी-नाले सूखने के बाद, जंगल-झाडी उजड़ने के बाद मनुष्य कैसे जी पायेगा?

मनुष्य के विचार को भय और प्रलोभन से मुक्त कराने के लिए "अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन" का प्रस्ताव अध्ययन के लिए प्रस्तुत है। यह "रहस्य-मूलक ईश्वर केंद्रित चिंतन" और "अस्थिरता-अनिश्चयता मूलक वस्तु केंद्रित चिंतन" से भिन्न है, उनका विकल्प है। इसका अध्ययन करने की विधि क्या होगी?

अध्ययन के लिए "प्रमाण" की आवश्यकता है। ईश्वरवाद ने "शब्द" और "आप्त वाक्य" को प्रमाण माना। भौतिकवादी विधि में "यंत्र" को प्रमाण माना।

सह-अस्तित्व वादी विधि में मानव का ही प्रमाण का आधार होना स्पष्ट हुआ। मानव ही भ्रम और जागृति को प्रमाणित करता है।

इस विकल्प के अध्ययन के लिए दर्शन, वाद, और शास्त्र को प्रस्तुत किया गया है। इसे अध्ययन करने के लिए मूल सिद्धांत "परिभाषा विधि" है। हर भाषा में परिभाषा-विधि से सम्प्रेश्ना सफल है। जैसे "जल" शब्द की परिभाषा है - "प्यास बुझाना"। धरती की प्यास, वनस्पतियों की प्यास, जीव-संसार की प्यास, मानव की प्यास बुझाना ही पानी है। "पानी" के शब्द है। पानी अस्तित्व में एक वस्तु है। मानव शब्द का प्रयोग करता है। वस्तु अस्तित्व में होता है। इसी प्रकार "सत्य" एक शब्द है। सत्य वस्तु स्वरूप में सह-अस्तित्व समग्र है - जो व्यापक वस्तु में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति, धरती, अनेक धरती, सौर-व्यूह, अनेक सौर-व्यूह, आकाश-गंगा, अनेक आकाश-गंगा के रूप में प्रकट है, प्रस्तुत है। किताबों में जो कुछ भी लिखा जा सकता है, वह "नाम" ही है। भले ही वह "क्रिया" का नाम हो, "फल" का नाम हो, "अपेक्षा" का नाम हो। मानव का संवेदनशील होना सर्व-विदित है। नाम से मनुष्य ने संवेदनाओं से गोचर वस्तुओं को पहचानना सीख लिया है। नाम (शब्द) द्वारा संवेदनाओं से अगोचर वस्तुओं को समझना एक आवश्यकता रही। उसके लिए अध्ययन है।

दर्शनों में यह आशय व्यक्त हुआ है - "जीना ही दर्शन है।" मानव व्यवहार रूप में, कर्म रूप में, अभ्यास रूप में, और अनुभव रूप में जीता है। अनुभव के अनुरूप व्यवहार होने पर व्यवहार का संतुलित होना पाया जाता है। अनुभव के अनुरूप कर्म होने पर कर्म संतुलित होना पाया जाता है। अनुभव के अनुरूप अभ्यास होने पर अभ्यास संतुलित होना पाया जाता है। अनुभव सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में होता है।

आदर्शवादियों ने "समाधि में अनुभव होता है" - यह सूचना के रूप में व्यक्त किया है। साथ ही यह भी कहा है - "समाधि में ही अज्ञात ज्ञात होता है।" इस पर शोध पूर्वक मैंने समाधि घटना को देखा। समाधि में कोई ज्ञान होता नहीं है। समाधि के बाद विगत में "ज्ञान" के सम्बन्ध में जो कहा गया है, उसी को पुष्टि करना बनता है। समाधि की स्थिति में इस बात को देखा गया - जैसे गहरे पानी में डूब कर आँखें खोलने पर मधुरिम प्रकाश दिखती है, उसी को "ज्ञान प्रकाश" मान लिया। ऐसे "ज्ञान-प्रकाश" को देखा हुआ व्यक्ति को आप्त-पुरूष मान लिया। ऐसे आप्त-पुरुषों के वाक्यों को "प्रमाण" मान लिया। ऐसे वाक्यों को वेद, वेदान्त, उपनिषद् के नाम से जाना गया। समाधि में होने वाले ऐसे "ज्ञान-प्रकाश" के आधार पर कुछ भी कहा जाए - वह रहस्यमय ही होगा। ऐसे ही रहस्यमय ज्ञान-भण्डार वेद, उपनिषद्, वेदान्त नाम से रखा हुआ है।

मैंने समाधि की स्थिति में जो यह "ज्ञान-प्रकाश" देखा, उसे ज्ञान माना ही नहीं। कपाल पर चोट लगने पर मुंदी हुई आंखों से भी वैसा ही प्रकाश दिखता है - फ़िर कैसे इसको ज्ञान माना जाए? फ़िर जिन प्रश्नों का उत्तर मैं चाहता था - "बंधन का कारण" और "मोक्ष का कारण" - उनका उत्तर इस समाधि के "ज्ञान प्रकाश" में नहीं मिला। समाधि की स्थिति में प्रतिदिन १२ से १८ घंटे तक मैंने एक वर्ष तक इंतज़ार किया। समाधि की स्थिति में मुझे यह भी पता चला कि "मैं हूँ", और मेरी आशा, विचार, और इच्छा चुप हैं। उसके अनंतर मैंने अपने विवेक से संयम करने का निश्चय किया।

संयम में जब मैं तदाकार हुआ तो यह पूरा अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूप में होना समझ में आया। चारों अवस्थाएं विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति रूप में होना समझ में आया। मेरा स्वयं का ज्ञान-अवस्था में अस्तित्व में अविभाज्य होना समझ में आया। इसी को "अनुभव" और "बोध" कहा जा रहा है। पूरे तथ्य समझ में आने पर मेरी जिज्ञासा का उत्तर हो गया। मैंने सह-अस्तित्व में ही जीवन को एक विकसित परमाणु के रूप में गठन-पूर्णता के साथ मनोगति से वर्तमान होना देखा। यही जीवन भ्रमित हो कर, अर्थात शरीर को जीवन मान कर मनुष्य के सारे कार्य-व्यवहार में समस्याओं को प्रकाशित करता है। समस्याएं जीवन का वांछित फल नहीं हैं। समयाओं से पीड़ित होना ही "बंधन" का स्वरूप है। मानव-परम्परा आदि-काल से चली आयी तौर-तरीकों से अधिमूल्यन, अवमूल्यन, और निर्मुल्यन के आधार पर समस्याओं के चंगुल में फंस चुकी है।

इस स्थिति से उद्धार समाधान पूर्वक ही है। समाधान समझदारी से होता है। समझदारी को अध्ययन विधि से मानव-जाति को अर्पित करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ।

ऐसा प्रस्ताव विगत में कभी भी न होने के आधार पर इसे समझने की विधि क्या है? - यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक रहा। इसका उत्तर है - "परिभाषा विधि" से यह पूरा अध्ययन होता है। परिभाषा अपने स्वरूप में भाषा में इंगित अर्थ को निर्देशित करने की प्रक्रिया ही है।

परिभाषा विधि आदर्शवादी विधि से भिन्न है। जैसे - "धर्म" एक शब्द है। आदर्शवादी विधि में शब्द के आधार पर ही व्याख्या है। धर्म शब्द के मूल में "धृ" धातु है। धृ का मतलब - धारणा। इस तरह धर्म की व्याख्या करने पर धर्म पहनने वाला, ओढ़ने वाला, उतार कर फैंकने वाला भी हो गया! इस आधार पर धर्मांतरण समंब्धी वाद-विवाद सदा से चलते आए। परिभाषा विधि से धर्म को शाश्वत रूप में, निश्चित रूप में, निर्दिष्ट रूप में व्यक्त करना सम्भव हुआ। धर्म की परिभाषा दी - "जिससे जिसका विलगीकरण न हो, वही उसका धर्म है।" इस परिभाषा से अस्तित्व की चारों अवस्थाओं का निरीक्षण-परीक्षण पूर्वक मानव का सुख-धर्मी होना, जीवों का आशा-धर्मी होना, पेड़-पौधों का पुष्टि-धर्मी होना, और पदार्थों का अस्तित्व-धर्मी होना अध्ययन किया जा सकता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

Saturday, November 7, 2009

अनुभव शिविर उदबोधन (जनवरी २००६ )

इस सौभाग्यशाली मुहूर्त में आप हम सब यहाँ (अमरकंटक में) उपस्थित हुए हैं। इस स्थान को युगों से हम मानव सर्वोपरि पवित्र-स्थल मान कर चले हैं। "यहाँ सभी प्रकार के लोप दोष से मनुष्य दूर हो जाता है" - ऐसा पुराणों, भागवत आदि ग्रंथों में लिखा है। यहाँ मैंने लगभग ५५ वर्ष तक निवास किया। यह जो (पुराणों आदि में) कही गयी बात है - वह पूरा सही है, लेकिन उसमें एक शर्त है। उस शर्त की ओर हमें ध्यान देने की ज़रूरत है - वह है "पवित्रता"।

(1) पवित्रता की ओर हमें "ध्यान" देने की ज़रूरत है।
(2) पवित्रता की "आवश्यकता" महसूस करने की ज़रूरत है।
(3) पवित्रता को "प्रयोजनशील" बनाने की ज़रूरत है
(4) पवित्रता को "प्रमाणित करने" की ज़रूरत है।

ऐसी चार स्थितियां बनी हैं। इसमें से चौथी स्थिति में मैं अपने को मानते हुए इस शरीर को जीवित रखता हुआ अनुभव करता हूँ। इस जगह को "तीर्थ-स्थली" कहा जाता है। तीर्थ-स्थली के बारे में कहा गया है - "स्वयं तरता, पराम तारयेत"। इसी को "तरण-तारण" शब्द दिया गया है।

जितने भी कायिक, वाचिक, मानसिक गलतियाँ हैं उनसे मुक्ति दिलाना ही "तारण" है। उन गलतियों से मुक्त हो कर स्वयं को प्रमाणित करना ही "तरण" है।

क्या समझ में आने से "तरण-तारण" होगा? - इसको खोजने गए तो विगत में उसे "रहस्य" में ले गए। ज्ञान से ही "तरण-तारण" होगा - यह करीब-करीब सभी समुदायों में स्वीकृत है, ऐसा मेरा सोचना है। विगत में जिसको "ज्ञान" बताया था, उसको "जीने" के बारे में सोचा तो वह रहस्य में चला गया। इन दो बातों को मैं यहाँ आने से पहले सुन-समझ के आया था। यहाँ आने के बाद मेरे साथ जो घटनाएं हुई - साधना के बाद समाधि, समाधि के बाद संयम, संयम के बाद जो कुछ मुखरण या प्रस्तुति हुई, उससे "सुख" और "दुःख" के स्वरूप का पता चल गया। कैसे हम सब सुखी होते हैं, कैसे हम सब दुखी होते हैं - यह पता चल गया।

सारे गलतियों से मुक्ति "सुख" है। सारे गलतियों को सही मान करके चलना "दुःख" है। इतना ही बात है। समस्या के समीकरण में दुःख है, समाधान के समीकरण में सुख है। इसको मैं समझा, और समझने के बाद जिया। जीने के बाद ऐसा लगा - "यह बात ठीक है।" ऐसा लगने के बाद कुछ लोगों के बीच में मैंने स्वयं का परीक्षण करना शुरू किया।

मैंने स्वयं को संसार द्वारा "परीक्षण" कराने के लिए प्रस्तुत किया है, कोई "उपदेश" देने के लिए प्रस्तुत नहीं किया है। आप मुझको परीक्षण कर सकते हैं, मेरी कही हुई बातों को समझ कर परीक्षण कर सकते हैं। मेरा परीक्षण, और मेरे द्वारा कहे गए तथ्यों का परीक्षण आप कर सकते हैं। इन दोनों बातों को लेकर मैं आज चल रहा हूँ।

इस तरह चलने पर एक बहुत अच्छी सूझ आयी - मनुष्य किस विधि से "सुखी" हो जाता है? और किस विधि से दुखी हो जाता है? उसकी थोड़ी सी झलक आपके सामने प्रस्तुत करना चाह रहे हैं।

मनुष्य को मैंने समझा है। मनुष्य के पास पाँच विभूतियाँ रहता है - रूप, बल, पद, धन, और बुद्धि। इन पाँच प्रकार की विभूतियों से हर व्यक्ति संपन्न रहता ही है। इन पाँचों विभोतियों के साथ मनुष्य कैसे "सुखी" होता है - इसको मैंने समझा। इन पाँच विभूतियों के रहते हुए भी मनुष्य के "दुखी" होने की बात तो आदिकाल से ही है। लेकिन इन विभूतियों से सुखी होना "समझदारी" के बाद होता है, "समझदारी" के पहले होता नहीं। समझदारी के पहले "मनमानी" होती है, और उसका अपने तरीके का "फल" होता ही है। जो शाश्वत और निरंतर होगा वही "सिद्धांत" है।

रूप (शरीर) से सुख मिलने की विधि "सद्चरित्रता" है.

मानव अपने रूप (शरीर) के साथ यदि सद्चरित्रता का पालन करता है तो उसे रूप का सुख है। मनुष्य जड़ और चैतन्य का संयुक्त स्वरूप है। शरीर का रूप होता है। जीवन का रूप सूक्ष्म होता है - जो आंखों से दिखता नहीं है, लेकिन समझ में आता है। शरीर-रूप का सुख भोगने वाला जीवन ही है। शरीर रूप को चलाने वाला जीवन ही है। रूप को चलाने की विधि "सद्चरित्रता" होने पर रूप का सुख मिलता है।

सद्चरित्रता क्या है?

मानवीयता पूर्ण आचरण को मैं पाया। मैं स्वयं मानवीयता पूर्ण आचरण को करता हूँ। उसमें "मूल्य", "चरित्र", और "नैतिकता" - ये तीन भाग समाये हैं। उसमें "चरित्र" का जो भाग है उससे शरीर को सुख-रूप में पहचानने की विधि बनती है। वह है - स्व-धन, स्व-नारी/स्व-पुरूष, और दया-पूर्ण कार्य-व्यवहार। इससे शरीर से सुख पाने का स्त्रोत बना है। कहीं भी इसको कोई भी आदमी आजमा ले, शोध कर ले, और परीक्षण कर ले। मानव शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में ही जीवित दिखता है। यदि जीवन भाग जाता है तो मनुष्य संज्ञा नहीं रहता। इस आधार पर शरीर के स्वरूप में जो रूप है उससे सुख मिलने की विधि यही है - सद्चरित्रता के साथ सुख।

जीवन जब शरीर को जीवंत बनाता है तो - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध - पाँच संवेदनाएं प्रकट होती हैं। विगत में मानव के इतिहास में हम कई बार इन संवेदनाओं के पक्ष में लट्टू हुए हैं। इनके विरोध में तप किए हैं। लट्टू होने का मतलब - हमने संवेदनाओं को राजी करने में ही पूरा शरीर-यात्रा समर्पित कर दिया। कई शरीर-यात्रा इसी लिए दे दिया। भौतिकवादी विधि से कहा - इन्ही संवेदनाओं का ही पूजा करना है, इन्ही को ही संपन्न करना है। यह "अतिवाद" हो गया।

दूसरे इसके विपरीत - संवेदनाएं होना ही नहीं चाहिए, इसके लिए जूझ पड़े! इसको तप या विरक्ति कहा गया। "विरक्ति" का मतलब - संवेदनाओं को नकारने का कार्य। ऐसे विरक्तिवादी मन को "तप" से संपन्न करने का आश्वासन शास्त्रों में लिखा हुआ है। इस आश्वासन को परीक्षण करने के लिए बहुत अच्छे-अच्छे लोग अपने आप को अर्पित किए - लेकिन अंत में कोई "प्रमाण" मिला नहीं। विरक्ति से संवेदनाओं को "नकारने" की बात तो चिन्हित हुई, लेकिन "क्या पाना है" - यह बात चिन्हित नहीं हुई। क्या पाना है, उसके बारे में भाषा के रूप में "ज्ञान" को बताया। फ़िर ज्ञान रहस्य में छुप गया।

कुल मिला कर "सामान्य मनुष्य" के लिए न तो "तप" सुलभ हुआ, और न ही संवेदनाओं को सदा राजी रखना सुलभ हुआ। सब लोगों को "विरक्ति" मिल नहीं सकती, न सब लोगों से संवेदनाओं की पूजा-पाठ हो सकती है। सारा मनुष्य का रोना, गाना, तलवार चलाना, और फूल-माला चढाना इसी बात को लेकर है। इस बात में हमको ध्यान देने की ज़रूरत है। ये दोनों भाग "अतिवाद" में गिरफ्त हो गया - यही इनकी समीक्षा है। अब क्या किया जाए? सबको मिलने वाली क्या चीज हो सकता है? - इस बात पर सोचा जाए! यह सोचने पर पता चला - "समाधान-समृद्धि" पूर्वक हर व्यक्ति जी सकता है। हर परिवार जी सकता है। हर व्यक्ति शरीर-रूप के साथ जुड़ा है। शरीर के साथ संवेदनाएं जुडी हैं। संवेदनाओं के साथ सुखी होने की विधि है - सद्चरित्रता। स्व-धन, स्व-नारी/स्व-पुरूष, दया-पूर्ण कार्य-व्यवहार विधि से हमको ज्ञान के साथ संवेदनाओं से मिलने वाला सुख मिलता है।

ज्ञान है - सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान। ज्ञान में संपुटित होने पर ही संवेदनाएं नियंत्रित हो पाती हैं। संज्ञानीयता में संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। इसको मैंने अच्छे से परिशीलन करके यह निष्कर्ष निकाला है। संज्ञानीयता पूर्वक (या मानव-चेतना पूर्वक) हम जब संवेदनाओं को नियंत्रित पाते हैं तो हम "सद्चरित्र" होते हैं। संवेदनाएं नियंत्रित होने के प्रमाण में ही हम सद्चरित्र होते हैं। इसकी ज़रूरत है या नहीं है? - इसको आप सभी सोच सकते हैं, उसके अनुसार स्वीकार सकते हैं।

बल को "दया" पूर्वक प्रयोग करने से हम सुखी होते हैं।

मानव के पास दूसरी विभूति है - बल। बल क्या है? शरीर-बल, मनोबल। मन के बिना शरीर में कोई बल होता नहीं है। मनोबल के साथ ही शरीर का बल प्रकट होता है। ये आप हम सबके लिए अनुभव करने का मुद्दा है। जीवन शरीर को जीवंत बनाए रखता है, और जीवन ही के कारण से शरीर-कार्यकलाप के रूप में शरीर-बल प्रकट होता है। यह जो बल प्रकट होता है, उसका प्रयोग करने में हम कैसे सुखी होते हैं - और कैसे दुखी होते हैं?

बल को "दया" पूर्वक प्रयोग करने से हम सुखी होते हैं।

"दया" की परिभाषा है - पात्रता के अनुरूप वस्तु उपलब्ध कराने का क्रियाकलाप। इसको हर अभिभावक अनुभव कर सकते हैं। हर मानव-संतान में मानव-चेतना को ग्रहण करने का पात्रता बना रहता है। इसको मैं एक बार दोहराता हूँ - "हर मानव संतान में मानव-चेतना को पूरा का पूरा ग्रहण करने का पात्रता बना ही रहता है।" यह यदि आपको स्वीकार होता है, तो जो ऐसे हर संतान में ग्रहण करने की पात्रता बनी हुई है, उसमें मानव-चेतना को स्थापित कर देना ही "पात्रता के अनुरूप वस्तु उपलब्ध कराने" का तात्विक रूप में प्रमाण है। तार्किक रूप में इसी बात को कहा है - "मनाकार को साकार करने के साथ-साथ मनः स्वस्थता भी प्रमाणित हो जाए।" यही बात को व्यवहारिक रूप में कहा - "दया पूर्वक वस्तु उपलब्ध करा दी जाए।"

हर अभिभावक को अपनी संतान के साथ दया करने का अधिकार बना रहता है। हर मानव अभिभावक में अपनी संतान के प्रति दया प्रकट करने का प्रवृत्ति बनी ही रहती है। उसके लिए कोई अलग से ट्रेनिंग लेने की ज़रूरत नहीं है। दया-पूर्वक यदि "बल" (शरीर-बल और मनोबल) का प्रयोग कर पाएं तो संतान में मानव-चेतना स्थापित होगी। जिससे अभिभावक भी सुखी होंगे, और संतान भी सुखी होगी।

तन, मन, और धन - ये तीन प्रकार से "अर्थ" होता है। धन से हम कैसे, क्या करके सुखी होते हैं?

धन के साथ हम "उदारता" पूर्वक सुखी होते हैं।

उदारता का मतलब है - धन को उपयोग करने, सदुपयोग करने, और प्रयोजनशील बनाने की क्रिया। धन का परिवार में "उपयोग" करना, अखंड-समाज में "सदुपयोग" करना, और सार्वभौम-व्यवस्था में "प्रयोजनशील" बनाने की क्रिया है - उदारता। हर अभिभावक में अपने बच्चों के प्रति उदारता रहता ही है। सभी ने अपने बच्चों के प्रति उदारता प्रकट किया है, भले ही कुछ समय तक ही क्यों न हो। मानव में संबंधों में उदारता प्रकट करने की प्रवृत्ति बनी हुई है। उदारता से धन से सुख पाने की विधि बनती है।

पद से "न्याय" पूर्वक सुखी होना बनता है.

हम मानव नैसर्गिक-विधि से ज्ञान-अवस्था में है। ज्ञान-अवस्था एक पद है। यह "देव पद" है। हमारे पद के अनुरूप हम न्याय करने से हम पद से सुखी हो जाते हैं। न्याय-पूर्वक जीने से हमारा देव-पद में जीते हुए सदा-सदा के लिए सुखी रहना बन जाता है। न्याय से हम सुखी होते हैं, अन्याय से दुखी होते हैं। उसी तरह - उदारता पूर्वक हम सुखी होते हैं, कृपणता पूर्वक हम दुखी होते हैं। दया पूर्वक हम सुखी होते हैं, निष्ठुरता पूर्वक हम दुखी होते हैं। इन सब बातों को अपने में अच्छे से गाँठ बाँध कर रखने की बात है - इसका नाम है, संस्कार। इन विधियों को जीवन में प्रमाणित करना ही संस्कार है।

बुद्धि के साथ "विवेक" पूर्वक हम सुखी होते हैं.

बुद्धि के साथ सुखी होने की विधि है - विवेक। अविवेक पूर्वक हम दुखी होते हैं। विवेक के बारे हमें विगत में पूर्वजों ने बताया था - "आत्मा का अमरत्व और शरीर का नश्वरत्व विवेक है"। सह-अस्तित्व वादी विधि से हम यहाँ बता रहे हैं - जीवन का अमरत्व, शरीर का नश्वरत्व, और व्यवहार के नियम ये तीन मिला करके विवेक है। जीवन के रूप में मैं अमर हूँ - यह समझ में आना। शरीर गर्भ में जैसा रहता है, बाहर वैसा नहीं रहता, और बड़े होने पर वैसा नहीं रहता, फ़िर एक दिन शरीर विरचित भी होता है - यह हमारे सामने घटित घटनाएं हैं। शरीर प्राण-कोशों से रचित एक रचना है। रचना का विरचना होता ही है। शरीर नश्वर है - यह समझ में आना। शरीर को विरचित होना ही है, तो इसका क्या किया जाए? सदुपयोग किया जाए। शरीर का सदुपयोग करने हेतु हम "व्यवहार के नियम" पर जाते हैं। शरीर के नश्वरत्व के प्रति हम पूरा आश्वस्त रहते हैं। जीवन के अमरत्व के प्रति हम पूरा आश्वस्त रहते हैं। व्यवहार के नियमो के प्रति हम पूरा आश्वस्त रहते हैं। बुद्धि की ताकत इन तीनो को समझने से है। विवेक पूर्वक जीने से हम "सुखी" होते हैं।

अविवेक पूर्वक सोचते हैं, तो शरीर को अमर मानना शुरू कर देते हैं। जीवन को अमर मानने की जगह शरीर को अमर मानने पर दुखी होना स्वाभाविक है। "शरीर का नश्वरत्व" को स्वीकारना नियति-सहज स्वीकृति है। नियति-सहज का मतलब - शरीर का विरचित होना एक अस्तित्व-सहज क्रियाकलाप है। अस्तित्व सहज जो भी क्रियाकलाप है, उसको नियति-सहज माना। मानव अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता वश शरीर को अमर माना है, उससे दुखी होना निश्चित ही है। शरीर को जीवन मानते हैं, तो शरीर में होने वाला छोटा सा परिवर्तन हमको भयंकर विध्न जैसा प्रतीत होने लगता है। इसीलिये - शरीर को शरीर मानने की आवश्यकता है, जीवन को जीवन मानने की आवश्यकता है। जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव संज्ञा में होने की बात को स्वीकारने की आवश्यकता है। इन स्वीकृतियों के साथ हम विवेक पूर्वक जीते हैं। विवेक पूर्वक जीने से हम सुखी होते हैं।

विवेक को हटाया - मतलब, "जीवन के अमरत्व" को भुलावा दे दिया। फ़िर हमारे लिए शरीर ही जीवन हो गया। शरीर को जीवन मानने के बाद दुःख का रोड़ा शुरू हो गया। इतना ही बात है।

इस तरह से मनुष्य के पास ये पाँच विभूतियाँ (रूप, बल, पद, धन, और बुद्धि) सदा-सदा है। कोई आदमी नहीं है, जो इन पाँचों से रिक्त हो। अपने में इनको अनुभव करना है, कि मैं इन पाँचों से संपन्न मनुष्य हूँ। ये बात पता चला - हम सभी सुखी होने के इच्छुक हैं। फ़िर रूप के साथ सद्चरित्र, बल के साथ दया, धन के साथ उदारता, पद के साथ न्याय, और बुद्धि के साथ विवेक पूर्वक हम सुखी होते हैं। इतना ही बात है।

सारा मनुष्य जाति का सुखी या दुखी होने का इतिहास इतना ही है। चाहे विगत में हो, वर्तमान में हो, या भविष्य में हो। तीनो काल में सुखी या दुखी होने की प्रक्रिया इतना ही है। ये "निर्णायक" विधि से स्पष्ट है। "निर्णायक" मतलब - इसमें अब तर्क कुछ भी नहीं है।

विद्यार्थी निष्ठा से सुखी होते हैं। 

विद्या को पाने का निष्ठा यदि बना रहता है तो विद्यार्थी सुखी रहता है। निष्ठा जब टूट जाती है तो दुखी रहता है, इधर-उधर झांकता है। विद्या का मतलब है - ज्ञान, विवेक, विज्ञान से संपन्न होना। ज्ञान, विज्ञान, विवेक संपन्न होने के लिए जो उपक्रम है, उसमें सदा-सदा अपना ध्यान लगा रहता है - इसका नाम है "निष्ठा"। यदि अपना ध्यान लगना बंद हो जाता है, या ध्यान उचट जाता है - उसका मतलब निष्ठा नहीं है। निष्ठा नहीं होने से मानव का विद्या से संपन्न होना या ज्ञान-विवेक-विज्ञान संपन्न होना सम्भव नहीं है। समझने के लिए निष्ठा चाहिए, हमारा मन लगना चाहिए, हमको इसमें तुलना चाहिए। विद्या से संपन्न होने की अपेक्षा को बनाए रखना चाहिए। विद्या से संपन्न होने के बीच में कोई रोड़ा नहीं लाना चाहिए। बीच में रोड़ा हो तो समझना बनता नहीं है। इतना ही निष्ठा का मतलब है।

निष्ठा पूर्वक हम समझने लगते हैं। निष्ठा पूर्वक समझना सुगम हो जाता है। निष्ठा नहीं होने से दुर्गम है ही - यह तो स्वाभाविक है।

अध्ययन पूर्वक ही मनुष्य समझदार होता है। दूसरा किसी विधि से समझदार नहीं होता। अध्ययन का मतलब है - अनुभव की रोशनी में स्मरण-पूर्वक किया गया कार्य-कलाप। शब्दों को हम स्मरण में लाते हैं, शब्दों से इंगित वस्तु को अस्तित्व में पहचान लिया - मतलब, अध्ययन हुआ। जैसे - "पानी" एक शब्द है। पानी एक वस्तु है। पानी अस्तित्व में एक अस्तित्व-सहज वस्तु है। "पानी" जो शब्द बोला वह स्मरण में जाता है। पानी वस्तु अस्तित्व में होता है। वस्तु का बोध होता है। वस्तु का बोध होने के चार भाग हैं - जानना, मानना, पहचानना, और निर्वाह करना।

जब कभी वस्तु का बोध होता है तो वह अपने सम्पूर्णता के साथ होता है। उसके बाद वस्तु क्यों है और कैसा है - इसका जो ज्ञान होता है, वह अनुभव है। ज्ञान रूप में हम जब संपन्न होते हैं, प्रमाणित होते हैं - उसका नाम है, अनुभव। वस्तु का नाम बताना - यह कोई ज्ञान नहीं है। वेदों में लाखों ऋचाएं हैं। हमारे पूर्वजों ने शब्द को "प्रमाण" माना। शब्द को बोल कर पहले संतुष्टि होता होगा, अब नहीं होता। अब शब्द के साथ "अर्थ" का निष्पत्ति आवश्यक हो गया है। अर्थ के साथ ज्ञान होना आवश्यक हो गया है। इस तरह शब्द, शब्द का अर्थ, अर्थ का ज्ञान।  अर्थ क्या होता है? अर्थ अस्तित्व में वस्तु होता है। वस्तु क्यों है, कैसा है? - इसका ज्ञान होता है। वस्तु का ज्ञान होता है, मतलब हम वस्तु को समझ गए। वस्तु को समझ गए - मतलब वस्तु के "दृष्टा" हुए।

- अनुभव-शिविर (जनवरी २००६ ), अमरकंटक में बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से

Tuesday, November 3, 2009

कार्य - कारण - क्रियाकलाप

सुदूर विगत से मानव-इतिहास में जो लोग अपने को "विद्वान" मानते रहे - वे अनेक विधाओं में जिज्ञासा, शोध, और अनुसन्धान करते रहे। यह सब को "शुभ" के अर्थ में समाहित करते रहे। "कार्य-कारण" को लेकर शोध प्रवृत्तियां और उसके अनुसार "क्रियाकलाप" आदि-मानव काल से ही होता रहा। यह हर मनुष्य में होने वाली कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर होता रहा। इसी क्रम में मनुष्य "भय" से मुक्त होने और "प्रलोभन" से तृप्त होने के प्रयत्न करते आया। यह क्रमागत विधि से वनस्थली-युग, दूसरा - ऋषिकुल युग, तीसरा - गुरुकुल युग के रूप में परिलक्षित होना घटना-क्रम विधि से स्पष्ट हो गया।

भारत में यह क्रम अब चलते-चलते "भौतिकवादी युग" के रूप में पहचाना जाता है। इसके पूर्व युगों को "आदर्शवादी युग" माना गया। चाहे भौतिकवादी विधि से हो, या आदर्शवादी विधि से हो - "मानव का अध्ययन" अभी तक ओझिल रहा है।

आदर्शवाद ने मानव को "प्रमाण" नहीं माना। हर "आदर्श संपन्न" व्यक्ति पर शंकाएं होती रही। ऋषि-कुल का सर्वोच्च वैभव राजा जनक के समय में होने को अभी भी कुछ विद्वान-मनीषी माना करते हैं, और उल्लेखित करते हैं। कथा लिखी हुई है - याज्ञवल्क्य जी द्वारा पहली बार "ब्रह्म विद्या शिविर" राजा जनक के दरबार में लगाया गया। उसी कथा में लिखा है, याज्ञवल्क्य जी उस सभा में प्रस्तुत विद्वानों के प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ रहे। अंत में उनके श्राप देने की धमकी का भी उल्लेख है। श्राप-ग्रस्त होने के लिए बुद्धिजीवी तैयार नहीं हो पाये - परिणाम-स्वरूप वह समारोह अनुत्तरित रह गया। इसके बाद "ब्रह्म विद्या शिविर" अभी तक किसी ने लगाया नहीं।

आगे वेदान्त ग्रंथों की ओर ध्यान देने से पता चलता है - उसमें सत्य ही "ज्ञान" और "अनंत" रूप में होने, और सभी जीवों के ज्ञान-पूर्वक "जीवन-मुक्त" होने का उपदेश प्रस्तावित है। इसे प्रमाणित करने के लिए विविध परम्पराओं ने उपदेश पूर्वक ध्यान, समाधि, संयम तक साधना-विधियों का अभ्यास बताया है। दूसरे - आराधना, उपासना क्रम में ध्यान, समाधि, संयम की अभ्यास विधियां बतायी गयी हैं। तीसरे विधि से - योगक्रम पद्दति पूर्वक धारणा , ध्यान, समाधि के लक्ष्य को पार करने के लिए अनेक प्रतिभाशाली, बुद्धि-जीवी द्वारा पक्के इरादे के साथ साधना किया जाना अभी भी कहीं कहीं देखने को मिलता है। लेकिन इन तीनो विधियों से वांछित फल-परिणाम परम्परा के रूप में, अर्थात पीढी से पीढी के रूप में उपलब्ध होता हुआ देखने को नहीं मिला।

२१वी शताब्दी तक यही देखने-सुनने को मिला - "यह हजारों-लाखों वर्ष तप करने की बात है।" अभी भी बहुत से विद्वान, जिज्ञासु घोर-तप करता हुआ देखने को मिलता ही है। ऐसे तपस्वियों का सम्मान भी होता हुआ देखने को मिलता है। ऐसे गिने-चुने प्रतिभाओं से मानव-परम्परा के लिए आवश्यकीय उपलब्धियां नहीं हो पायी। यदि आप हम अच्छे तरह से निरीक्षण-परीक्षण करें तो पता चलता है - "मानव परम्परा व्यक्तिवाद और समुदायवाद से मुक्त नहीं हो पाया।" व्यक्तिवाद और समुदायवाद ही अपने-पराये की दीवारों का कारण है - जिससे अनेक प्रकार के मतभेद, और भाषा, वेश के आधार पर मानव विभाजित होता गया। आदर्शवादी विधि से - मानव-जाति को अपने-पराये की दीवारों से मुक्त विधि से सोचने, समझने, और करने के लिए कोई सूत्र-व्याख्या हाथ नहीं लगा है।

आदर्श-वादी विधि में आज्ञा-पालन, उपदेश, और तर्क-विहीन अनुशासन विधि से धर्म-गद्दियों द्वारा संचालित प्रणालियाँ, और उन्ही का गौरव-सम्मान करते हुए भी "घुटन" का कारण बना रहा। इन्ही गतिविधियों के साथ विज्ञान-संसार स्थापित हुआ। विज्ञानं-विधि क्रम में तर्क का समुचित दरवाजा खुल गया। सभी तर्क करने की छूट मिली। विज्ञान विधि से निर्मित औजारों, और दमनकारी/विध्वंसकारी औजारों के प्रति शासन-परम्पराएं विवश होती गयी। विज्ञानं-विधि के क्रम में ही प्रौद्योगिकी विधा द्वारा बहुमुखी उत्पादन कार्यों को साध लिया गया। इस तरह जो उत्पादित वस्तुएं सभी परम्पराओं के लिए आकर्षक होना स्वीकार हुआ। इसी हौसले के साथ विज्ञान-शिक्षा का लोकव्यापीकरण हुआ - जिसको व्यक्तिवाद/समुदायवाद न कहते हुए भी वह "विशेषज्ञता" और पेटेंटी (intellectual property right) में ग्रस्त हो गया। इस तरह विज्ञान-विधि व्यापार और लाभ से संलग्न हो गयी। विज्ञान-शिक्षा के लोकव्यापीकरण होने से लाभोन्मादी, भोगोन्मादी, कामोन्मादी शिक्षा पूरे संसार में फैला। इस तरह उन्माद-त्रय "प्रलोभन" का आधार हुआ, और सामरिक-तंत्र और कार्यक्रम "भय" का आधार हुआ। विज्ञानं-युग के पहले भी मानव-जाती "भय" और "प्रलोभन" से ग्रसित रहा ही है। भले ही वह पहले स्वर्ग के लिए "प्रलोभन" और नर्क के लिए "भय" और पाप-पुण्य शब्दों की छाया में पला हो। विज्ञानं-विधि से पूर्णतया सुविधा-संग्रह के लिए "प्रलोभन" और युद्ध-संग्राम-ध्वंस-विध्वंस तथा दंड-विधानों के प्रति "भय" प्रभावित हो गया।

उक्त क्रम में हर मानव (७०० करोड़ लोग) का प्रकारांतर से, अर्थात कायिक-वाचिक-मानसिक कृत-कारित-अनुमोदित भेदों से, "अपराध" में फंसे रहना स्पष्ट हो गया। इसकी गवाही है - धरती का बीमार होना, प्रदूषण असहनीय स्थिति में पहुंचना, सामरिक-तंत्र द्वारा सर्वनाश के कगार पर पहुँचा देना, द्रोह-विद्रोह-शोषण-युद्ध क्रम में वन-खनिज का अनानुपाती शोषण होना। उपरोक्त घटना-क्रम की गवाहियों को देखें तो - पिछले १००-१५० वर्षों में विज्ञान-शिक्षा सर्व-देश में फ़ैल गयी, और विज्ञानं-मानसिकता द्वारा ही अपराधिक-घटनाओं को घटित कराने के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रवृत्तियाँ पनपी हैं। इससे यह सकारात्मक तथ्य भी समझ में आता है - मानव का स्वीकृति होने पर उसे वास्तविकताओं का शिक्षा विधि से अध्ययन कराया जा सकता है। इसी आधार पर "चेतना विकास - मूल्य शिक्षा" के नाम से अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन, मध्यस्थ-दर्शन को शिक्षा में बहाने के लिए प्रस्तुत किया गया है। इससे कार्य-कारण और क्रियाकलाप को सकारात्मक रूप में पहचानने और प्रयोग करने का अवसर उपलब्ध हो गया है।

अस्तित्व-मूलक मानव केंद्रित चिंतन विधि से कार्य-कारण का स्वरूप "सह-अस्तित्व" रूप में प्रमाणित हुआ है। सह-अस्तित्व का नित्य-वर्तमान, नित्य-प्रभावी, और नित्य-वैभव होना अध्ययन-गम्य हुआ है। सह-अस्तित्व स्वयं व्यापक में सम्पूर्ण एक-एक वस्तु डूबा-भीगा-घिरा हुआ क्रियाशील होना अध्ययन-गम्य हुआ है। साम्य-ऊर्जा रुपी व्यापक वस्तु में सभी एक-एक वस्तुएं - चाहे वे छोटे से छोटे हों, या बड़े से बड़े हों - संपृक्त होने के आधार पर ऊर्जा-संपन्न, बल-संपन्न, और चुम्बकीय-बल संपन्न रहना समझ में आता है। अनंत छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी इकाइयाँ जो क्रियाशील हैं, उनको व्यापक से अलग करने का कोई रास्ता, कोई विधि, कोई प्रक्रिया है ही नहीं। इसी कारण से सह-अस्तित्व सदा-सदा के लिए अविभाज्य वैभव है, प्रभाव है, वर्तमान है। इस प्रकार मूल रूप में व्यापक वस्तु ही सम्पूर्ण कार्यों का कारण रूप में होना पाया जाता है। "कार्य" अनेक रूप में होना भी दृष्टव्य है। जबकि "कारण" एक ही स्वरूप में होना बोध होता है। इस अध्ययन से यह समझ आता है - कार्य और कारण का अलग होना, अलग रहना, अलग करना - इन तीनो तरीके की परिकल्पना "भ्रमात्मक" है। कार्य के बिना कारण का पता चलता नहीं है। कारण के बिना कार्य का होना सम्भव नहीं है। इसी निरीक्षण, परीक्षण, और सर्वेक्षण पूर्वक पाये जाने वाले निष्कर्ष के आधार पर सुगम, संगीतमय, और सार्थक - "विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति" सहज वैभव को हृदयंगम करना, आत्म-सात करना, और प्रमाणित करना हर व्यक्ति के लिए सम्भावना उदय हो गया है। इससे हर व्यक्ति में समझदारी से "समाधान", हर परिवार में समझदारी और श्रम से "समाधान और समृद्धि", सर्व-मानव अखंड-समाज रूप में होने से "समाधान, समृद्धि, और अभय", और परिवार-मूलक-स्वराज्य-व्यवस्था स्वरूप में होने से "समाधान, समृद्धि, अभय, और सह-अस्तित्व" प्रमाणित होता है। सम्पूर्ण मानव जाति के प्रमाणित होने की सम्भावना उदय होने के क्रम में यह लेख "सूचना" के रूप में प्रस्तुत है। इन सूचनाओं के आधार पर व्यक्ति अपने सोच-विचार को विधिवत संलग्न करने से ऊपर कहे गए "सुगम, संगीतमय, और सार्थक" अर्थ हर व्यक्ति में साक्षात्कार हो सकता है।

"कार्य-कारण" समझ में आने के बाद "क्रिया-कलाप" का स्वरूप सहज रूप में समझ में आता है।

अस्तित्व में सम्पूर्ण क्रियाकलाप चार अवस्थाओं के रूप में फैला हुआ है। कार्य-कारण संपन्न पदार्थ-अवस्था परिणाम-अनुषंगी विधि से विकास-क्रम में यथा-स्थिति, सम्पूर्णता, और त्व-सहित व्यवस्था विधियों से वैभवित रहना पाया जाता है। इन्ही पदार्थ-अवस्था की विभिन्न वस्तुओं के संयोग-वियोग विधि पूर्वक यौगिक-क्रिया का प्रगटन, संवर्धन क्रम में प्राण-कोशा, प्राण-सूत्र, और उन प्राण-सूत्रों के रचना-विधि सम्पन्नता के आधार पर विभिन्न रचनाएँ बीज-वृक्ष विधि से आवर्तनशील-परम्परा के रूप में होना देखने को मिलता है। यही प्राण-कोशायें रचना-विधि में विकास पूर्वक जीव-शरीर रचना संपन्न किया जाना, और उसका वंश-अनुशंगीयता विधि से आवर्तनशील होना स्पष्ट हो चुका है। जीव-अवस्था में अनेकानेक प्रकार की शरीर-रचनाएँ आवर्तनशील होने के उपरांत ही मानव-शरीर रचना घटित होना, और प्रजनन-विधि क्रम में वंशों के रूप में देखने को मिला है। इसी को "नस्ल" और "रंग" के रूप में मानव ने पहचाना।

उक्त विधि से - सम्पूर्ण अस्तित्व "होने" से, और क्रियाकलाप स्वरूप में "रहने" से - विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति के रूप में अस्तित्व "वर्तमान" होना स्पष्ट हुआ। सम्पूर्ण वर्तमान सह-अस्तित्व स्वरूपी है। सह-अस्तित्व अपने स्वरूप में व्यापक में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति है। इस प्रकार कार्य-रूप में होना ही वर्तमान है। इसको समझने वाला मानव ही है। प्रमाणित करने वाला भी केवल मानव ही है।

चारों अवस्थाओं को "व्यवस्था" के रूप में पहचानना मानव-चेतना विधि से सम्भव हो गया। जीव-चेतना विधि से अथवा ईश्वर-चेतना विधि से हमे यह समझ में नहीं आया था - "वर्तमान", "प्रमाण", और "जागृति" वास्तविक रूप में कैसे होता है, क्यों होता है? २१वी शताब्दी से ही मानव-चेतना स्पष्ट होना शुरू हुई। मानव-चेतना विधि से ही अखंडता और सार्वभौमता स्पष्ट होती है। जीव-चेतना विधि से हम व्यक्तिवादी और समुदाय-वादी चेतना तक ही पहुँच पाते हैं। जीव-चेतना वश ही मनुष्य-जाति अपने-पराये के चक्कर में आयी। जीव-चेतना विधि से ही मनुष्य-जाति ने मनुष्येत्तर प्रकृति को अपने "भोग" की वस्तु मान लिया। मानव को धरती पर प्रगट करने के लिए मनुष्येत्तर प्रकृति सम्पूर्ण प्रकार से मानव के लिए "अनुकूलता" को प्रकट किया। मानव प्रगट होने के बाद कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर संवेदनशीलता के अर्थ में "अनुकूलता" और "प्रतिकूलता" को तय करता रहा। मानव अपनी अनुकूलता के लिए विविध प्रकार से शोषण किया और प्रतिकूलता को निर्मित करता रहा। मनुष्य ने यह सब करने को लाभवादी, भोगवादी, और कामवादी मानसिकता के अर्थ में आवश्यक माना। इसी के फल-परिणाम में धरती का बीमार होना हुआ, और सार्थक रूप में दूर-संचार (दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, दूर-गमन) का प्राप्त होना घटित हुआ।

अभी तक कोई ऐसा समुदाय देखने को नहीं मिला जो अपने-पराये की दीवारों से मुक्ति और अपराध-मुक्ति दिलाने के प्रस्ताव से संपन्न हो। अपराध-मुक्ति और अपने-पराये की दीवारों से मुक्ति न्याय-सम्मत, समाधान-सम्मत, और सत्य-सम्मत मानसिकता पूर्वक ही सम्भव है। मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान पूर्वक यह अध्ययन-गम्य हो चुकी है। इसका लोकव्यापीकरण होना शेष है। यही जागृति और प्रमाण का साक्षी होगा।

मानव समझदारी पूर्वक "समाधान संपन्न" हो सकता है। साथ ही यह भी समझ आता है - हर मनुष्य समझदार हो सकता है। यही मुख्य बात है। मानव परम्परा में ही समाधान सहज प्रमाण होना सम्भव है, और अब इसकी आवश्यकता बन चुकी है। हर परिवार समझदारी से समाधान, और श्रम से समृद्धि संपन्न होना स्वाभाविक है। जीव-चेतना में श्रम कोई करता है, वस्तु से संपन्न होने का अधिकार किसी दूसरे का रहता है। यह महान ग़लत हो गया। इसमें सांत्वना लगाने के लिए "बौद्धिक श्रम" और "भौतिक श्रम" का काल्पनिक भाषा दिया गया। इसके परिशीलन से पता चलता है - बौद्धिकता जीवन-सहज प्रगटन है। बौद्धिकता से विचारशीलता पूर्वक मानव-परम्परा में "श्रम" होना पाया जाता है। यह श्रम "निपुणता" और "कुशलता" में नियोजित होता है।

जीवन ही ज्ञान, विवेक, और विज्ञान को अभिव्यक्त या प्रकाशित करता है। ज्ञान ही विवेक और विज्ञान के रूप में विचार-पूर्वक प्रकाशित होता है। ऐसे विचार का स्त्रोत ज्ञान ही है। ज्ञान सह-अस्तित्व स्वरूपी है। सह-अस्तित्व सहज अस्तित्व में कोई विभाजन-रेखा नहीं है - क्योंकि सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी है। इसका भाग-विभाग होता नहीं है। जो कुछ भी एक-एक रूप में दिखता है यह सब सह-अस्तित्व सूत्र में सूत्रित है। एक-एक के सह-अस्तित्व का सूत्र मूल रूप में व्यापक ही है। व्यापक में ही एक-एक डूबा, भीगा, घिरा है। एक-एक के व्यापक से अलग होने की कोई व्यवस्था नहीं है, न यह अलग होता है। मानव अभी तक जो प्रयोग और यांत्रिक विधियों को अपनाया है, उनमें से ऐसी कोई विधि नहीं है जो वस्तु को व्यापक से बाहर कर दे। मानव को इस तथ्य को हृदयंगम करना ही एक मात्र उपाय है। इसी से मानव-चेतना उजागर होने, प्रगट होने, और व्यवहार में प्रमाणित होने का सर्व-शुभ सूत्र है।

मानव "होने" के साथ और "होने" के स्वरूप में जागृत होता है, और प्रमाणित होता है। "होने" के प्रति भ्रमित रहना ही विगत में मानव की सारी करतूत के मूल में है। "होने" के प्रति भ्रमित रहना ही वर्तमान में मानव की सारी समस्याओं के मूल में है। मानव अपने में, से, के लिए "होने" के सम्बन्ध में भ्रमित रहने से ही संसार के साथ धोखा-धडी हुई, फलस्वरूप मानव अनेक प्रकार की समस्याओं में फंस गया। हर समस्याएं मानव-कृत हैं, न कि अस्तित्व-सहज। अस्तित्व में कोई समस्या नहीं है। अस्तित्व के लिए कोई समस्या नहीं है। मानव के न रहने के बाद भी अस्तित्व रहता ही है।

अभी इस धरती के मानव तमाम विधा में भ्रमित रहते हुए, तकनीकी विधि से प्राप्त संचार-यंत्रों के आधार पर अनेक मानव-विहीन धरतियों को पहचान चुका है। अभी भी और धरतियों की खोज चल रही है। इस धरती से ज्यादा, इस धरती के समान, अथवा इस धरती से थोड़ा कम साधनों से संपन्न दूसरी धरती को खोजने की अपेक्षा में इस धरती की वस्तुओं को बरबाद कर रहा है। मानव इस समृद्ध धरती पर सुदूर विगत से अभी तक विधिवत जीना सीखा नहीं है। बल्कि अनुकूल रूप में प्रस्तुत इस धरती को प्रतिकूल बनाते हुए शान, जश्न मनाता ही रहा है। इस विश्लेषण से मानव अभी "कितने पानी में है", या मानव का "हैसियत" अभी क्या है - यह स्पष्ट हो जाता है।

मानव ने अपनी इसी हैसियत से अपने लिए ही अड़चन पैदा किया है। इससे मानव के धरती पर बने रहने पर प्रश्न-चिह्न लग गया है। मानव द्वारा उपजाई हुई समस्याएं मानव के ही गले की फांसी हो गयी हैं। मानव अपने अस्तित्व के प्रति सशंकित होना शुरू हो गया है। इस स्थिति का निराकरण "चेतना विकास - मूल्य शिक्षा" विधि को अपनाना ही एक मात्र उपाय है। इसके लिए प्रस्ताव मानव-सम्मुख प्रस्तुत हो चुका है। इसको परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक जांचते हुए (समाधान के लिए पर्याप्त है या नहीं?) अपनाना ही सभी समुदायों के लिए शुभ-अवसर है।

- सर्व-शुभ हो! -

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

Sunday, November 1, 2009

जीवन विद्या - एक परिचय

बाबा श्री नागराज शर्मा ने अक्टूबर २५ १९९७ से अक्टूबर २७ १९९७ में चारामा, आन्वरी-आश्रम में जो उदबोधन किया था, उसको "जीवन विद्या - एक परिचय" नाम से एक पुस्तक में प्रकाशित किया गया। यहाँ वही उदबोधन क्रम से प्रस्तुत है। आशा है - यह सभी के लिए उपयोगी होगा।