सुदूर विगत से मानव-इतिहास में जो लोग अपने को "विद्वान" मानते रहे - वे अनेक विधाओं में जिज्ञासा, शोध, और अनुसन्धान करते रहे। यह सब को "शुभ" के अर्थ में समाहित करते रहे। "कार्य-कारण" को लेकर शोध प्रवृत्तियां और उसके अनुसार "क्रियाकलाप" आदि-मानव काल से ही होता रहा। यह हर मनुष्य में होने वाली कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर होता रहा। इसी क्रम में मनुष्य "भय" से मुक्त होने और "प्रलोभन" से तृप्त होने के प्रयत्न करते आया। यह क्रमागत विधि से वनस्थली-युग, दूसरा - ऋषिकुल युग, तीसरा - गुरुकुल युग के रूप में परिलक्षित होना घटना-क्रम विधि से स्पष्ट हो गया।
भारत में यह क्रम अब चलते-चलते "भौतिकवादी युग" के रूप में पहचाना जाता है। इसके पूर्व युगों को "आदर्शवादी युग" माना गया। चाहे भौतिकवादी विधि से हो, या आदर्शवादी विधि से हो - "मानव का अध्ययन" अभी तक ओझिल रहा है।
आदर्शवाद ने मानव को "प्रमाण" नहीं माना। हर "आदर्श संपन्न" व्यक्ति पर शंकाएं होती रही। ऋषि-कुल का सर्वोच्च वैभव राजा जनक के समय में होने को अभी भी कुछ विद्वान-मनीषी माना करते हैं, और उल्लेखित करते हैं। कथा लिखी हुई है - याज्ञवल्क्य जी द्वारा पहली बार "ब्रह्म विद्या शिविर" राजा जनक के दरबार में लगाया गया। उसी कथा में लिखा है, याज्ञवल्क्य जी उस सभा में प्रस्तुत विद्वानों के प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ रहे। अंत में उनके श्राप देने की धमकी का भी उल्लेख है। श्राप-ग्रस्त होने के लिए बुद्धिजीवी तैयार नहीं हो पाये - परिणाम-स्वरूप वह समारोह अनुत्तरित रह गया। इसके बाद "ब्रह्म विद्या शिविर" अभी तक किसी ने लगाया नहीं।
आगे वेदान्त ग्रंथों की ओर ध्यान देने से पता चलता है - उसमें सत्य ही "ज्ञान" और "अनंत" रूप में होने, और सभी जीवों के ज्ञान-पूर्वक "जीवन-मुक्त" होने का उपदेश प्रस्तावित है। इसे प्रमाणित करने के लिए विविध परम्पराओं ने उपदेश पूर्वक ध्यान, समाधि, संयम तक साधना-विधियों का अभ्यास बताया है। दूसरे - आराधना, उपासना क्रम में ध्यान, समाधि, संयम की अभ्यास विधियां बतायी गयी हैं। तीसरे विधि से - योगक्रम पद्दति पूर्वक धारणा , ध्यान, समाधि के लक्ष्य को पार करने के लिए अनेक प्रतिभाशाली, बुद्धि-जीवी द्वारा पक्के इरादे के साथ साधना किया जाना अभी भी कहीं कहीं देखने को मिलता है। लेकिन इन तीनो विधियों से वांछित फल-परिणाम परम्परा के रूप में, अर्थात पीढी से पीढी के रूप में उपलब्ध होता हुआ देखने को नहीं मिला।
२१वी शताब्दी तक यही देखने-सुनने को मिला - "यह हजारों-लाखों वर्ष तप करने की बात है।" अभी भी बहुत से विद्वान, जिज्ञासु घोर-तप करता हुआ देखने को मिलता ही है। ऐसे तपस्वियों का सम्मान भी होता हुआ देखने को मिलता है। ऐसे गिने-चुने प्रतिभाओं से मानव-परम्परा के लिए आवश्यकीय उपलब्धियां नहीं हो पायी। यदि आप हम अच्छे तरह से निरीक्षण-परीक्षण करें तो पता चलता है - "मानव परम्परा व्यक्तिवाद और समुदायवाद से मुक्त नहीं हो पाया।" व्यक्तिवाद और समुदायवाद ही अपने-पराये की दीवारों का कारण है - जिससे अनेक प्रकार के मतभेद, और भाषा, वेश के आधार पर मानव विभाजित होता गया। आदर्शवादी विधि से - मानव-जाति को अपने-पराये की दीवारों से मुक्त विधि से सोचने, समझने, और करने के लिए कोई सूत्र-व्याख्या हाथ नहीं लगा है।
आदर्श-वादी विधि में आज्ञा-पालन, उपदेश, और तर्क-विहीन अनुशासन विधि से धर्म-गद्दियों द्वारा संचालित प्रणालियाँ, और उन्ही का गौरव-सम्मान करते हुए भी "घुटन" का कारण बना रहा। इन्ही गतिविधियों के साथ विज्ञान-संसार स्थापित हुआ। विज्ञानं-विधि क्रम में तर्क का समुचित दरवाजा खुल गया। सभी तर्क करने की छूट मिली। विज्ञान विधि से निर्मित औजारों, और दमनकारी/विध्वंसकारी औजारों के प्रति शासन-परम्पराएं विवश होती गयी। विज्ञानं-विधि के क्रम में ही प्रौद्योगिकी विधा द्वारा बहुमुखी उत्पादन कार्यों को साध लिया गया। इस तरह जो उत्पादित वस्तुएं सभी परम्पराओं के लिए आकर्षक होना स्वीकार हुआ। इसी हौसले के साथ विज्ञान-शिक्षा का लोकव्यापीकरण हुआ - जिसको व्यक्तिवाद/समुदायवाद न कहते हुए भी वह "विशेषज्ञता" और पेटेंटी (intellectual property right) में ग्रस्त हो गया। इस तरह विज्ञान-विधि व्यापार और लाभ से संलग्न हो गयी। विज्ञान-शिक्षा के लोकव्यापीकरण होने से लाभोन्मादी, भोगोन्मादी, कामोन्मादी शिक्षा पूरे संसार में फैला। इस तरह उन्माद-त्रय "प्रलोभन" का आधार हुआ, और सामरिक-तंत्र और कार्यक्रम "भय" का आधार हुआ। विज्ञानं-युग के पहले भी मानव-जाती "भय" और "प्रलोभन" से ग्रसित रहा ही है। भले ही वह पहले स्वर्ग के लिए "प्रलोभन" और नर्क के लिए "भय" और पाप-पुण्य शब्दों की छाया में पला हो। विज्ञानं-विधि से पूर्णतया सुविधा-संग्रह के लिए "प्रलोभन" और युद्ध-संग्राम-ध्वंस-विध्वंस तथा दंड-विधानों के प्रति "भय" प्रभावित हो गया।
उक्त क्रम में हर मानव (७०० करोड़ लोग) का प्रकारांतर से, अर्थात कायिक-वाचिक-मानसिक कृत-कारित-अनुमोदित भेदों से, "अपराध" में फंसे रहना स्पष्ट हो गया। इसकी गवाही है - धरती का बीमार होना, प्रदूषण असहनीय स्थिति में पहुंचना, सामरिक-तंत्र द्वारा सर्वनाश के कगार पर पहुँचा देना, द्रोह-विद्रोह-शोषण-युद्ध क्रम में वन-खनिज का अनानुपाती शोषण होना। उपरोक्त घटना-क्रम की गवाहियों को देखें तो - पिछले १००-१५० वर्षों में विज्ञान-शिक्षा सर्व-देश में फ़ैल गयी, और विज्ञानं-मानसिकता द्वारा ही अपराधिक-घटनाओं को घटित कराने के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रवृत्तियाँ पनपी हैं। इससे यह सकारात्मक तथ्य भी समझ में आता है - मानव का स्वीकृति होने पर उसे वास्तविकताओं का शिक्षा विधि से अध्ययन कराया जा सकता है। इसी आधार पर "चेतना विकास - मूल्य शिक्षा" के नाम से अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन, मध्यस्थ-दर्शन को शिक्षा में बहाने के लिए प्रस्तुत किया गया है। इससे कार्य-कारण और क्रियाकलाप को सकारात्मक रूप में पहचानने और प्रयोग करने का अवसर उपलब्ध हो गया है।
अस्तित्व-मूलक मानव केंद्रित चिंतन विधि से कार्य-कारण का स्वरूप "सह-अस्तित्व" रूप में प्रमाणित हुआ है। सह-अस्तित्व का नित्य-वर्तमान, नित्य-प्रभावी, और नित्य-वैभव होना अध्ययन-गम्य हुआ है। सह-अस्तित्व स्वयं व्यापक में सम्पूर्ण एक-एक वस्तु डूबा-भीगा-घिरा हुआ क्रियाशील होना अध्ययन-गम्य हुआ है। साम्य-ऊर्जा रुपी व्यापक वस्तु में सभी एक-एक वस्तुएं - चाहे वे छोटे से छोटे हों, या बड़े से बड़े हों - संपृक्त होने के आधार पर ऊर्जा-संपन्न, बल-संपन्न, और चुम्बकीय-बल संपन्न रहना समझ में आता है। अनंत छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी इकाइयाँ जो क्रियाशील हैं, उनको व्यापक से अलग करने का कोई रास्ता, कोई विधि, कोई प्रक्रिया है ही नहीं। इसी कारण से सह-अस्तित्व सदा-सदा के लिए अविभाज्य वैभव है, प्रभाव है, वर्तमान है। इस प्रकार मूल रूप में व्यापक वस्तु ही सम्पूर्ण कार्यों का कारण रूप में होना पाया जाता है। "कार्य" अनेक रूप में होना भी दृष्टव्य है। जबकि "कारण" एक ही स्वरूप में होना बोध होता है। इस अध्ययन से यह समझ आता है - कार्य और कारण का अलग होना, अलग रहना, अलग करना - इन तीनो तरीके की परिकल्पना "भ्रमात्मक" है। कार्य के बिना कारण का पता चलता नहीं है। कारण के बिना कार्य का होना सम्भव नहीं है। इसी निरीक्षण, परीक्षण, और सर्वेक्षण पूर्वक पाये जाने वाले निष्कर्ष के आधार पर सुगम, संगीतमय, और सार्थक - "विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति" सहज वैभव को हृदयंगम करना, आत्म-सात करना, और प्रमाणित करना हर व्यक्ति के लिए सम्भावना उदय हो गया है। इससे हर व्यक्ति में समझदारी से "समाधान", हर परिवार में समझदारी और श्रम से "समाधान और समृद्धि", सर्व-मानव अखंड-समाज रूप में होने से "समाधान, समृद्धि, और अभय", और परिवार-मूलक-स्वराज्य-व्यवस्था स्वरूप में होने से "समाधान, समृद्धि, अभय, और सह-अस्तित्व" प्रमाणित होता है। सम्पूर्ण मानव जाति के प्रमाणित होने की सम्भावना उदय होने के क्रम में यह लेख "सूचना" के रूप में प्रस्तुत है। इन सूचनाओं के आधार पर व्यक्ति अपने सोच-विचार को विधिवत संलग्न करने से ऊपर कहे गए "सुगम, संगीतमय, और सार्थक" अर्थ हर व्यक्ति में साक्षात्कार हो सकता है।
"कार्य-कारण" समझ में आने के बाद "क्रिया-कलाप" का स्वरूप सहज रूप में समझ में आता है।
अस्तित्व में सम्पूर्ण क्रियाकलाप चार अवस्थाओं के रूप में फैला हुआ है। कार्य-कारण संपन्न पदार्थ-अवस्था परिणाम-अनुषंगी विधि से विकास-क्रम में यथा-स्थिति, सम्पूर्णता, और त्व-सहित व्यवस्था विधियों से वैभवित रहना पाया जाता है। इन्ही पदार्थ-अवस्था की विभिन्न वस्तुओं के संयोग-वियोग विधि पूर्वक यौगिक-क्रिया का प्रगटन, संवर्धन क्रम में प्राण-कोशा, प्राण-सूत्र, और उन प्राण-सूत्रों के रचना-विधि सम्पन्नता के आधार पर विभिन्न रचनाएँ बीज-वृक्ष विधि से आवर्तनशील-परम्परा के रूप में होना देखने को मिलता है। यही प्राण-कोशायें रचना-विधि में विकास पूर्वक जीव-शरीर रचना संपन्न किया जाना, और उसका वंश-अनुशंगीयता विधि से आवर्तनशील होना स्पष्ट हो चुका है। जीव-अवस्था में अनेकानेक प्रकार की शरीर-रचनाएँ आवर्तनशील होने के उपरांत ही मानव-शरीर रचना घटित होना, और प्रजनन-विधि क्रम में वंशों के रूप में देखने को मिला है। इसी को "नस्ल" और "रंग" के रूप में मानव ने पहचाना।
उक्त विधि से - सम्पूर्ण अस्तित्व "होने" से, और क्रियाकलाप स्वरूप में "रहने" से - विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति के रूप में अस्तित्व "वर्तमान" होना स्पष्ट हुआ। सम्पूर्ण वर्तमान सह-अस्तित्व स्वरूपी है। सह-अस्तित्व अपने स्वरूप में व्यापक में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति है। इस प्रकार कार्य-रूप में होना ही वर्तमान है। इसको समझने वाला मानव ही है। प्रमाणित करने वाला भी केवल मानव ही है।
चारों अवस्थाओं को "व्यवस्था" के रूप में पहचानना मानव-चेतना विधि से सम्भव हो गया। जीव-चेतना विधि से अथवा ईश्वर-चेतना विधि से हमे यह समझ में नहीं आया था - "वर्तमान", "प्रमाण", और "जागृति" वास्तविक रूप में कैसे होता है, क्यों होता है? २१वी शताब्दी से ही मानव-चेतना स्पष्ट होना शुरू हुई। मानव-चेतना विधि से ही अखंडता और सार्वभौमता स्पष्ट होती है। जीव-चेतना विधि से हम व्यक्तिवादी और समुदाय-वादी चेतना तक ही पहुँच पाते हैं। जीव-चेतना वश ही मनुष्य-जाति अपने-पराये के चक्कर में आयी। जीव-चेतना विधि से ही मनुष्य-जाति ने मनुष्येत्तर प्रकृति को अपने "भोग" की वस्तु मान लिया। मानव को धरती पर प्रगट करने के लिए मनुष्येत्तर प्रकृति सम्पूर्ण प्रकार से मानव के लिए "अनुकूलता" को प्रकट किया। मानव प्रगट होने के बाद कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर संवेदनशीलता के अर्थ में "अनुकूलता" और "प्रतिकूलता" को तय करता रहा। मानव अपनी अनुकूलता के लिए विविध प्रकार से शोषण किया और प्रतिकूलता को निर्मित करता रहा। मनुष्य ने यह सब करने को लाभवादी, भोगवादी, और कामवादी मानसिकता के अर्थ में आवश्यक माना। इसी के फल-परिणाम में धरती का बीमार होना हुआ, और सार्थक रूप में दूर-संचार (दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, दूर-गमन) का प्राप्त होना घटित हुआ।
अभी तक कोई ऐसा समुदाय देखने को नहीं मिला जो अपने-पराये की दीवारों से मुक्ति और अपराध-मुक्ति दिलाने के प्रस्ताव से संपन्न हो। अपराध-मुक्ति और अपने-पराये की दीवारों से मुक्ति न्याय-सम्मत, समाधान-सम्मत, और सत्य-सम्मत मानसिकता पूर्वक ही सम्भव है। मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान पूर्वक यह अध्ययन-गम्य हो चुकी है। इसका लोकव्यापीकरण होना शेष है। यही जागृति और प्रमाण का साक्षी होगा।
मानव समझदारी पूर्वक "समाधान संपन्न" हो सकता है। साथ ही यह भी समझ आता है - हर मनुष्य समझदार हो सकता है। यही मुख्य बात है। मानव परम्परा में ही समाधान सहज प्रमाण होना सम्भव है, और अब इसकी आवश्यकता बन चुकी है। हर परिवार समझदारी से समाधान, और श्रम से समृद्धि संपन्न होना स्वाभाविक है। जीव-चेतना में श्रम कोई करता है, वस्तु से संपन्न होने का अधिकार किसी दूसरे का रहता है। यह महान ग़लत हो गया। इसमें सांत्वना लगाने के लिए "बौद्धिक श्रम" और "भौतिक श्रम" का काल्पनिक भाषा दिया गया। इसके परिशीलन से पता चलता है - बौद्धिकता जीवन-सहज प्रगटन है। बौद्धिकता से विचारशीलता पूर्वक मानव-परम्परा में "श्रम" होना पाया जाता है। यह श्रम "निपुणता" और "कुशलता" में नियोजित होता है।
जीवन ही ज्ञान, विवेक, और विज्ञान को अभिव्यक्त या प्रकाशित करता है। ज्ञान ही विवेक और विज्ञान के रूप में विचार-पूर्वक प्रकाशित होता है। ऐसे विचार का स्त्रोत ज्ञान ही है। ज्ञान सह-अस्तित्व स्वरूपी है। सह-अस्तित्व सहज अस्तित्व में कोई विभाजन-रेखा नहीं है - क्योंकि सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी है। इसका भाग-विभाग होता नहीं है। जो कुछ भी एक-एक रूप में दिखता है यह सब सह-अस्तित्व सूत्र में सूत्रित है। एक-एक के सह-अस्तित्व का सूत्र मूल रूप में व्यापक ही है। व्यापक में ही एक-एक डूबा, भीगा, घिरा है। एक-एक के व्यापक से अलग होने की कोई व्यवस्था नहीं है, न यह अलग होता है। मानव अभी तक जो प्रयोग और यांत्रिक विधियों को अपनाया है, उनमें से ऐसी कोई विधि नहीं है जो वस्तु को व्यापक से बाहर कर दे। मानव को इस तथ्य को हृदयंगम करना ही एक मात्र उपाय है। इसी से मानव-चेतना उजागर होने, प्रगट होने, और व्यवहार में प्रमाणित होने का सर्व-शुभ सूत्र है।
मानव "होने" के साथ और "होने" के स्वरूप में जागृत होता है, और प्रमाणित होता है। "होने" के प्रति भ्रमित रहना ही विगत में मानव की सारी करतूत के मूल में है। "होने" के प्रति भ्रमित रहना ही वर्तमान में मानव की सारी समस्याओं के मूल में है। मानव अपने में, से, के लिए "होने" के सम्बन्ध में भ्रमित रहने से ही संसार के साथ धोखा-धडी हुई, फलस्वरूप मानव अनेक प्रकार की समस्याओं में फंस गया। हर समस्याएं मानव-कृत हैं, न कि अस्तित्व-सहज। अस्तित्व में कोई समस्या नहीं है। अस्तित्व के लिए कोई समस्या नहीं है। मानव के न रहने के बाद भी अस्तित्व रहता ही है।
अभी इस धरती के मानव तमाम विधा में भ्रमित रहते हुए, तकनीकी विधि से प्राप्त संचार-यंत्रों के आधार पर अनेक मानव-विहीन धरतियों को पहचान चुका है। अभी भी और धरतियों की खोज चल रही है। इस धरती से ज्यादा, इस धरती के समान, अथवा इस धरती से थोड़ा कम साधनों से संपन्न दूसरी धरती को खोजने की अपेक्षा में इस धरती की वस्तुओं को बरबाद कर रहा है। मानव इस समृद्ध धरती पर सुदूर विगत से अभी तक विधिवत जीना सीखा नहीं है। बल्कि अनुकूल रूप में प्रस्तुत इस धरती को प्रतिकूल बनाते हुए शान, जश्न मनाता ही रहा है। इस विश्लेषण से मानव अभी "कितने पानी में है", या मानव का "हैसियत" अभी क्या है - यह स्पष्ट हो जाता है।
मानव ने अपनी इसी हैसियत से अपने लिए ही अड़चन पैदा किया है। इससे मानव के धरती पर बने रहने पर प्रश्न-चिह्न लग गया है। मानव द्वारा उपजाई हुई समस्याएं मानव के ही गले की फांसी हो गयी हैं। मानव अपने अस्तित्व के प्रति सशंकित होना शुरू हो गया है। इस स्थिति का निराकरण "चेतना विकास - मूल्य शिक्षा" विधि को अपनाना ही एक मात्र उपाय है। इसके लिए प्रस्ताव मानव-सम्मुख प्रस्तुत हो चुका है। इसको परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक जांचते हुए (समाधान के लिए पर्याप्त है या नहीं?) अपनाना ही सभी समुदायों के लिए शुभ-अवसर है।
- सर्व-शुभ हो! -
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)
भारत में यह क्रम अब चलते-चलते "भौतिकवादी युग" के रूप में पहचाना जाता है। इसके पूर्व युगों को "आदर्शवादी युग" माना गया। चाहे भौतिकवादी विधि से हो, या आदर्शवादी विधि से हो - "मानव का अध्ययन" अभी तक ओझिल रहा है।
आदर्शवाद ने मानव को "प्रमाण" नहीं माना। हर "आदर्श संपन्न" व्यक्ति पर शंकाएं होती रही। ऋषि-कुल का सर्वोच्च वैभव राजा जनक के समय में होने को अभी भी कुछ विद्वान-मनीषी माना करते हैं, और उल्लेखित करते हैं। कथा लिखी हुई है - याज्ञवल्क्य जी द्वारा पहली बार "ब्रह्म विद्या शिविर" राजा जनक के दरबार में लगाया गया। उसी कथा में लिखा है, याज्ञवल्क्य जी उस सभा में प्रस्तुत विद्वानों के प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ रहे। अंत में उनके श्राप देने की धमकी का भी उल्लेख है। श्राप-ग्रस्त होने के लिए बुद्धिजीवी तैयार नहीं हो पाये - परिणाम-स्वरूप वह समारोह अनुत्तरित रह गया। इसके बाद "ब्रह्म विद्या शिविर" अभी तक किसी ने लगाया नहीं।
आगे वेदान्त ग्रंथों की ओर ध्यान देने से पता चलता है - उसमें सत्य ही "ज्ञान" और "अनंत" रूप में होने, और सभी जीवों के ज्ञान-पूर्वक "जीवन-मुक्त" होने का उपदेश प्रस्तावित है। इसे प्रमाणित करने के लिए विविध परम्पराओं ने उपदेश पूर्वक ध्यान, समाधि, संयम तक साधना-विधियों का अभ्यास बताया है। दूसरे - आराधना, उपासना क्रम में ध्यान, समाधि, संयम की अभ्यास विधियां बतायी गयी हैं। तीसरे विधि से - योगक्रम पद्दति पूर्वक धारणा , ध्यान, समाधि के लक्ष्य को पार करने के लिए अनेक प्रतिभाशाली, बुद्धि-जीवी द्वारा पक्के इरादे के साथ साधना किया जाना अभी भी कहीं कहीं देखने को मिलता है। लेकिन इन तीनो विधियों से वांछित फल-परिणाम परम्परा के रूप में, अर्थात पीढी से पीढी के रूप में उपलब्ध होता हुआ देखने को नहीं मिला।
२१वी शताब्दी तक यही देखने-सुनने को मिला - "यह हजारों-लाखों वर्ष तप करने की बात है।" अभी भी बहुत से विद्वान, जिज्ञासु घोर-तप करता हुआ देखने को मिलता ही है। ऐसे तपस्वियों का सम्मान भी होता हुआ देखने को मिलता है। ऐसे गिने-चुने प्रतिभाओं से मानव-परम्परा के लिए आवश्यकीय उपलब्धियां नहीं हो पायी। यदि आप हम अच्छे तरह से निरीक्षण-परीक्षण करें तो पता चलता है - "मानव परम्परा व्यक्तिवाद और समुदायवाद से मुक्त नहीं हो पाया।" व्यक्तिवाद और समुदायवाद ही अपने-पराये की दीवारों का कारण है - जिससे अनेक प्रकार के मतभेद, और भाषा, वेश के आधार पर मानव विभाजित होता गया। आदर्शवादी विधि से - मानव-जाति को अपने-पराये की दीवारों से मुक्त विधि से सोचने, समझने, और करने के लिए कोई सूत्र-व्याख्या हाथ नहीं लगा है।
आदर्श-वादी विधि में आज्ञा-पालन, उपदेश, और तर्क-विहीन अनुशासन विधि से धर्म-गद्दियों द्वारा संचालित प्रणालियाँ, और उन्ही का गौरव-सम्मान करते हुए भी "घुटन" का कारण बना रहा। इन्ही गतिविधियों के साथ विज्ञान-संसार स्थापित हुआ। विज्ञानं-विधि क्रम में तर्क का समुचित दरवाजा खुल गया। सभी तर्क करने की छूट मिली। विज्ञान विधि से निर्मित औजारों, और दमनकारी/विध्वंसकारी औजारों के प्रति शासन-परम्पराएं विवश होती गयी। विज्ञानं-विधि के क्रम में ही प्रौद्योगिकी विधा द्वारा बहुमुखी उत्पादन कार्यों को साध लिया गया। इस तरह जो उत्पादित वस्तुएं सभी परम्पराओं के लिए आकर्षक होना स्वीकार हुआ। इसी हौसले के साथ विज्ञान-शिक्षा का लोकव्यापीकरण हुआ - जिसको व्यक्तिवाद/समुदायवाद न कहते हुए भी वह "विशेषज्ञता" और पेटेंटी (intellectual property right) में ग्रस्त हो गया। इस तरह विज्ञान-विधि व्यापार और लाभ से संलग्न हो गयी। विज्ञान-शिक्षा के लोकव्यापीकरण होने से लाभोन्मादी, भोगोन्मादी, कामोन्मादी शिक्षा पूरे संसार में फैला। इस तरह उन्माद-त्रय "प्रलोभन" का आधार हुआ, और सामरिक-तंत्र और कार्यक्रम "भय" का आधार हुआ। विज्ञानं-युग के पहले भी मानव-जाती "भय" और "प्रलोभन" से ग्रसित रहा ही है। भले ही वह पहले स्वर्ग के लिए "प्रलोभन" और नर्क के लिए "भय" और पाप-पुण्य शब्दों की छाया में पला हो। विज्ञानं-विधि से पूर्णतया सुविधा-संग्रह के लिए "प्रलोभन" और युद्ध-संग्राम-ध्वंस-विध्वंस तथा दंड-विधानों के प्रति "भय" प्रभावित हो गया।
उक्त क्रम में हर मानव (७०० करोड़ लोग) का प्रकारांतर से, अर्थात कायिक-वाचिक-मानसिक कृत-कारित-अनुमोदित भेदों से, "अपराध" में फंसे रहना स्पष्ट हो गया। इसकी गवाही है - धरती का बीमार होना, प्रदूषण असहनीय स्थिति में पहुंचना, सामरिक-तंत्र द्वारा सर्वनाश के कगार पर पहुँचा देना, द्रोह-विद्रोह-शोषण-युद्ध क्रम में वन-खनिज का अनानुपाती शोषण होना। उपरोक्त घटना-क्रम की गवाहियों को देखें तो - पिछले १००-१५० वर्षों में विज्ञान-शिक्षा सर्व-देश में फ़ैल गयी, और विज्ञानं-मानसिकता द्वारा ही अपराधिक-घटनाओं को घटित कराने के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रवृत्तियाँ पनपी हैं। इससे यह सकारात्मक तथ्य भी समझ में आता है - मानव का स्वीकृति होने पर उसे वास्तविकताओं का शिक्षा विधि से अध्ययन कराया जा सकता है। इसी आधार पर "चेतना विकास - मूल्य शिक्षा" के नाम से अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन, मध्यस्थ-दर्शन को शिक्षा में बहाने के लिए प्रस्तुत किया गया है। इससे कार्य-कारण और क्रियाकलाप को सकारात्मक रूप में पहचानने और प्रयोग करने का अवसर उपलब्ध हो गया है।
अस्तित्व-मूलक मानव केंद्रित चिंतन विधि से कार्य-कारण का स्वरूप "सह-अस्तित्व" रूप में प्रमाणित हुआ है। सह-अस्तित्व का नित्य-वर्तमान, नित्य-प्रभावी, और नित्य-वैभव होना अध्ययन-गम्य हुआ है। सह-अस्तित्व स्वयं व्यापक में सम्पूर्ण एक-एक वस्तु डूबा-भीगा-घिरा हुआ क्रियाशील होना अध्ययन-गम्य हुआ है। साम्य-ऊर्जा रुपी व्यापक वस्तु में सभी एक-एक वस्तुएं - चाहे वे छोटे से छोटे हों, या बड़े से बड़े हों - संपृक्त होने के आधार पर ऊर्जा-संपन्न, बल-संपन्न, और चुम्बकीय-बल संपन्न रहना समझ में आता है। अनंत छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी इकाइयाँ जो क्रियाशील हैं, उनको व्यापक से अलग करने का कोई रास्ता, कोई विधि, कोई प्रक्रिया है ही नहीं। इसी कारण से सह-अस्तित्व सदा-सदा के लिए अविभाज्य वैभव है, प्रभाव है, वर्तमान है। इस प्रकार मूल रूप में व्यापक वस्तु ही सम्पूर्ण कार्यों का कारण रूप में होना पाया जाता है। "कार्य" अनेक रूप में होना भी दृष्टव्य है। जबकि "कारण" एक ही स्वरूप में होना बोध होता है। इस अध्ययन से यह समझ आता है - कार्य और कारण का अलग होना, अलग रहना, अलग करना - इन तीनो तरीके की परिकल्पना "भ्रमात्मक" है। कार्य के बिना कारण का पता चलता नहीं है। कारण के बिना कार्य का होना सम्भव नहीं है। इसी निरीक्षण, परीक्षण, और सर्वेक्षण पूर्वक पाये जाने वाले निष्कर्ष के आधार पर सुगम, संगीतमय, और सार्थक - "विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति" सहज वैभव को हृदयंगम करना, आत्म-सात करना, और प्रमाणित करना हर व्यक्ति के लिए सम्भावना उदय हो गया है। इससे हर व्यक्ति में समझदारी से "समाधान", हर परिवार में समझदारी और श्रम से "समाधान और समृद्धि", सर्व-मानव अखंड-समाज रूप में होने से "समाधान, समृद्धि, और अभय", और परिवार-मूलक-स्वराज्य-व्यवस्था स्वरूप में होने से "समाधान, समृद्धि, अभय, और सह-अस्तित्व" प्रमाणित होता है। सम्पूर्ण मानव जाति के प्रमाणित होने की सम्भावना उदय होने के क्रम में यह लेख "सूचना" के रूप में प्रस्तुत है। इन सूचनाओं के आधार पर व्यक्ति अपने सोच-विचार को विधिवत संलग्न करने से ऊपर कहे गए "सुगम, संगीतमय, और सार्थक" अर्थ हर व्यक्ति में साक्षात्कार हो सकता है।
"कार्य-कारण" समझ में आने के बाद "क्रिया-कलाप" का स्वरूप सहज रूप में समझ में आता है।
अस्तित्व में सम्पूर्ण क्रियाकलाप चार अवस्थाओं के रूप में फैला हुआ है। कार्य-कारण संपन्न पदार्थ-अवस्था परिणाम-अनुषंगी विधि से विकास-क्रम में यथा-स्थिति, सम्पूर्णता, और त्व-सहित व्यवस्था विधियों से वैभवित रहना पाया जाता है। इन्ही पदार्थ-अवस्था की विभिन्न वस्तुओं के संयोग-वियोग विधि पूर्वक यौगिक-क्रिया का प्रगटन, संवर्धन क्रम में प्राण-कोशा, प्राण-सूत्र, और उन प्राण-सूत्रों के रचना-विधि सम्पन्नता के आधार पर विभिन्न रचनाएँ बीज-वृक्ष विधि से आवर्तनशील-परम्परा के रूप में होना देखने को मिलता है। यही प्राण-कोशायें रचना-विधि में विकास पूर्वक जीव-शरीर रचना संपन्न किया जाना, और उसका वंश-अनुशंगीयता विधि से आवर्तनशील होना स्पष्ट हो चुका है। जीव-अवस्था में अनेकानेक प्रकार की शरीर-रचनाएँ आवर्तनशील होने के उपरांत ही मानव-शरीर रचना घटित होना, और प्रजनन-विधि क्रम में वंशों के रूप में देखने को मिला है। इसी को "नस्ल" और "रंग" के रूप में मानव ने पहचाना।
उक्त विधि से - सम्पूर्ण अस्तित्व "होने" से, और क्रियाकलाप स्वरूप में "रहने" से - विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति के रूप में अस्तित्व "वर्तमान" होना स्पष्ट हुआ। सम्पूर्ण वर्तमान सह-अस्तित्व स्वरूपी है। सह-अस्तित्व अपने स्वरूप में व्यापक में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति है। इस प्रकार कार्य-रूप में होना ही वर्तमान है। इसको समझने वाला मानव ही है। प्रमाणित करने वाला भी केवल मानव ही है।
चारों अवस्थाओं को "व्यवस्था" के रूप में पहचानना मानव-चेतना विधि से सम्भव हो गया। जीव-चेतना विधि से अथवा ईश्वर-चेतना विधि से हमे यह समझ में नहीं आया था - "वर्तमान", "प्रमाण", और "जागृति" वास्तविक रूप में कैसे होता है, क्यों होता है? २१वी शताब्दी से ही मानव-चेतना स्पष्ट होना शुरू हुई। मानव-चेतना विधि से ही अखंडता और सार्वभौमता स्पष्ट होती है। जीव-चेतना विधि से हम व्यक्तिवादी और समुदाय-वादी चेतना तक ही पहुँच पाते हैं। जीव-चेतना वश ही मनुष्य-जाति अपने-पराये के चक्कर में आयी। जीव-चेतना विधि से ही मनुष्य-जाति ने मनुष्येत्तर प्रकृति को अपने "भोग" की वस्तु मान लिया। मानव को धरती पर प्रगट करने के लिए मनुष्येत्तर प्रकृति सम्पूर्ण प्रकार से मानव के लिए "अनुकूलता" को प्रकट किया। मानव प्रगट होने के बाद कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर संवेदनशीलता के अर्थ में "अनुकूलता" और "प्रतिकूलता" को तय करता रहा। मानव अपनी अनुकूलता के लिए विविध प्रकार से शोषण किया और प्रतिकूलता को निर्मित करता रहा। मनुष्य ने यह सब करने को लाभवादी, भोगवादी, और कामवादी मानसिकता के अर्थ में आवश्यक माना। इसी के फल-परिणाम में धरती का बीमार होना हुआ, और सार्थक रूप में दूर-संचार (दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, दूर-गमन) का प्राप्त होना घटित हुआ।
अभी तक कोई ऐसा समुदाय देखने को नहीं मिला जो अपने-पराये की दीवारों से मुक्ति और अपराध-मुक्ति दिलाने के प्रस्ताव से संपन्न हो। अपराध-मुक्ति और अपने-पराये की दीवारों से मुक्ति न्याय-सम्मत, समाधान-सम्मत, और सत्य-सम्मत मानसिकता पूर्वक ही सम्भव है। मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान पूर्वक यह अध्ययन-गम्य हो चुकी है। इसका लोकव्यापीकरण होना शेष है। यही जागृति और प्रमाण का साक्षी होगा।
मानव समझदारी पूर्वक "समाधान संपन्न" हो सकता है। साथ ही यह भी समझ आता है - हर मनुष्य समझदार हो सकता है। यही मुख्य बात है। मानव परम्परा में ही समाधान सहज प्रमाण होना सम्भव है, और अब इसकी आवश्यकता बन चुकी है। हर परिवार समझदारी से समाधान, और श्रम से समृद्धि संपन्न होना स्वाभाविक है। जीव-चेतना में श्रम कोई करता है, वस्तु से संपन्न होने का अधिकार किसी दूसरे का रहता है। यह महान ग़लत हो गया। इसमें सांत्वना लगाने के लिए "बौद्धिक श्रम" और "भौतिक श्रम" का काल्पनिक भाषा दिया गया। इसके परिशीलन से पता चलता है - बौद्धिकता जीवन-सहज प्रगटन है। बौद्धिकता से विचारशीलता पूर्वक मानव-परम्परा में "श्रम" होना पाया जाता है। यह श्रम "निपुणता" और "कुशलता" में नियोजित होता है।
जीवन ही ज्ञान, विवेक, और विज्ञान को अभिव्यक्त या प्रकाशित करता है। ज्ञान ही विवेक और विज्ञान के रूप में विचार-पूर्वक प्रकाशित होता है। ऐसे विचार का स्त्रोत ज्ञान ही है। ज्ञान सह-अस्तित्व स्वरूपी है। सह-अस्तित्व सहज अस्तित्व में कोई विभाजन-रेखा नहीं है - क्योंकि सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी है। इसका भाग-विभाग होता नहीं है। जो कुछ भी एक-एक रूप में दिखता है यह सब सह-अस्तित्व सूत्र में सूत्रित है। एक-एक के सह-अस्तित्व का सूत्र मूल रूप में व्यापक ही है। व्यापक में ही एक-एक डूबा, भीगा, घिरा है। एक-एक के व्यापक से अलग होने की कोई व्यवस्था नहीं है, न यह अलग होता है। मानव अभी तक जो प्रयोग और यांत्रिक विधियों को अपनाया है, उनमें से ऐसी कोई विधि नहीं है जो वस्तु को व्यापक से बाहर कर दे। मानव को इस तथ्य को हृदयंगम करना ही एक मात्र उपाय है। इसी से मानव-चेतना उजागर होने, प्रगट होने, और व्यवहार में प्रमाणित होने का सर्व-शुभ सूत्र है।
मानव "होने" के साथ और "होने" के स्वरूप में जागृत होता है, और प्रमाणित होता है। "होने" के प्रति भ्रमित रहना ही विगत में मानव की सारी करतूत के मूल में है। "होने" के प्रति भ्रमित रहना ही वर्तमान में मानव की सारी समस्याओं के मूल में है। मानव अपने में, से, के लिए "होने" के सम्बन्ध में भ्रमित रहने से ही संसार के साथ धोखा-धडी हुई, फलस्वरूप मानव अनेक प्रकार की समस्याओं में फंस गया। हर समस्याएं मानव-कृत हैं, न कि अस्तित्व-सहज। अस्तित्व में कोई समस्या नहीं है। अस्तित्व के लिए कोई समस्या नहीं है। मानव के न रहने के बाद भी अस्तित्व रहता ही है।
अभी इस धरती के मानव तमाम विधा में भ्रमित रहते हुए, तकनीकी विधि से प्राप्त संचार-यंत्रों के आधार पर अनेक मानव-विहीन धरतियों को पहचान चुका है। अभी भी और धरतियों की खोज चल रही है। इस धरती से ज्यादा, इस धरती के समान, अथवा इस धरती से थोड़ा कम साधनों से संपन्न दूसरी धरती को खोजने की अपेक्षा में इस धरती की वस्तुओं को बरबाद कर रहा है। मानव इस समृद्ध धरती पर सुदूर विगत से अभी तक विधिवत जीना सीखा नहीं है। बल्कि अनुकूल रूप में प्रस्तुत इस धरती को प्रतिकूल बनाते हुए शान, जश्न मनाता ही रहा है। इस विश्लेषण से मानव अभी "कितने पानी में है", या मानव का "हैसियत" अभी क्या है - यह स्पष्ट हो जाता है।
मानव ने अपनी इसी हैसियत से अपने लिए ही अड़चन पैदा किया है। इससे मानव के धरती पर बने रहने पर प्रश्न-चिह्न लग गया है। मानव द्वारा उपजाई हुई समस्याएं मानव के ही गले की फांसी हो गयी हैं। मानव अपने अस्तित्व के प्रति सशंकित होना शुरू हो गया है। इस स्थिति का निराकरण "चेतना विकास - मूल्य शिक्षा" विधि को अपनाना ही एक मात्र उपाय है। इसके लिए प्रस्ताव मानव-सम्मुख प्रस्तुत हो चुका है। इसको परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक जांचते हुए (समाधान के लिए पर्याप्त है या नहीं?) अपनाना ही सभी समुदायों के लिए शुभ-अवसर है।
- सर्व-शुभ हो! -
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)
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