ज्ञान सारे अस्तित्व के साथ है।
मानव कितना विस्तार तक ज्ञान रूप में फ़ैल सकता है, आप सोच लो! अनंत और असीम अस्तित्व विशाल रूप में समझ में आता है। जबकि उसके आंशिक रूप में ही मनुष्य का जीना बन जाता है। यह "ज्ञान-समृद्धि" की बात है।
प्रश्न: इसको फ़िर से समझाइये।
उत्तर: इस धरती पर ७०० करोड़ आदमी हैं। हम सभी ७०० करोड़ के साथ जीते नहीं हैं। सीमित संख्या के लोगों के साथ हम जीते हैं। ७०० करोड़ आदमी के साथ जीने का सूत्र हमको अध्ययन पूर्वक अनुभव में आया रहता है - जबकि जीते हम सीमित संख्या के लोगों के साथ ही हैं। यह ज्ञान-समृद्धि हुआ कि नहीं? ज्ञान-समृद्धि होने पर ही सुरक्षित रूप में जीना बनता है।
ज्ञान-समृद्धि होने के बाद "वस्तु-समृद्धि" की ओर जाते हैं। "वस्तु-समृद्धि" शरीर-पोषण, शरीर-संरक्षण, और समाज-गति के अर्थ में है। आहार, आवास, अलंकार, दूर-गमन, दूर-श्रवण, और दूर-दर्शन संबन्धी वस्तुएं इसी के लिए प्रयोजनशील हैं।
जो जितना जान पाता है - उतना चाह नहीं पाता, जितना चाह पाता है - उतना कर नहीं पाता, जितना कर पाता है - उतना भोग नहीं पाता। अनुभव पूर्वक मनुष्य के "जानने" का क्षेत्र विशालतम है। अनुभव पूर्वक चाहने, करने, भोगने का क्षेत्र उत्तरोत्तर कम होता है। यह ज्ञान-समृद्धि है। भ्रमित अवस्था में इसके विपरीत स्थिति रहती है। मनुष्य भोगने के क्षेत्र को अधिकतम माने रहता है। भोगने के लिए ही करना, उसी के लिए चाहना। यह "जानने" तक पहुँचता ही नहीं है। इसलिए स्वयं में "खोखलापन" बना ही रहता है।
ज्ञान-समृद्ध होने के लिए मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)
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