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Thursday, March 19, 2009

परमाणु व्यवस्था का मूल स्वरूप है.

अनुसंधान पूर्वक मैंने देखा (समझा) - परमाणु अपने स्वरूप में एक व्यवस्था है। हर परमाणु परमाणु-अंशों का एक निश्चित गठन है। परमाणु-अंशों में व्यवस्था की प्यास है। कम से कम दो अंश के परमाणु में एक निश्चित व्यवस्था है। गठनशील परमाणु में निश्चित आचरण नहीं हो - तो वह विकास (गठन-पूर्णता) तक नहीं पहुँच सकता।

गठन-पूर्णता होने के बाद परमाणु से कोई प्रस्थापन-विस्थापन होने की सम्भावना ही नहीं रहती, इसलिए उसकी बल और शक्तियां अक्षय हो जाती हैं। सत्ता में सम्पृक्तता वश हर परमाणु (गठनशील या गठन-पूर्ण) में चुम्बकीय बल सम्पन्नता है। चैतन्य परमाणु (जीवन) में यह बल-सम्पन्नता चैतन्य-बल के रूप में है। जैसे - आस्वादन एक चैतन्य बल है। इसी तरह तुलन, चिंतन, बोध, और अनुभव चैतन्य बल हैं। जीवन को इन पाँच बलों के स्वरूप में देखा। जीवन-गति को चैतन्य-शक्तियों के स्वरूप में देखा। प्रमाण-शक्ति स्वरूप में एक गति है। उसी तरह - संकल्प-शक्ति, चित्रण शक्ति, विश्लेषण शक्ति, चयन शक्ति। पाँच क्रियाएं स्थिति में, और पाँच गति में मिल कर जीवन-क्रियाकलाप को पहचाना गया। उसके detail में उसको १२२ आचरणों के स्वरूप में पहचाना।

प्रश्न: प्रचलित-विज्ञान तो परमाणु के मूल में अस्थिरता और अनिश्चयता बताता हैवह कैसे?

उत्तर: प्रचिलित विज्ञानियों ने परमाणु के विखंडन पूर्वक परमाणु-अंशों को खोल दिया। मनुष्य अपना प्रभाव डाले बिना वह खुलता नहीं है। खुलने के बाद परमाणु अपने स्वाभाविक स्वरूप में नहीं रहा। उस पर मनुष्य का प्रभाव रहा। मनुष्य प्रभाव में परमाणु विकृत स्वरूप में रहा। विकृत स्वरूप को मनुष्य ने सही मान कर परमाणु को अस्थिर अनिश्चित ठहरा दिया। जबकि परमाणु वास्तविकता में व्यवस्था का मूल स्वरूप है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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