(१) नियति-क्रम में मनुष्य शरीर रचना ऐसी हुई जिससे जीवन द्वारा कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता मनुष्य द्वारा प्रकट होने लगी।
(२) मनुष्य कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता वश "सुख की चाहत" को व्यक्त करता है।
(३) मनुष्य में सुख की सहज-अपेक्षा है। मनुष्य में सुख की अपेक्षा को समाप्त नहीं किया जा सकता।
(४) समाधान ही सुख है। समाधानित हुए बिना सुखी नहीं हुआ जा सकता।
(५) अध्ययन विधि से समाधानित होना सहज है।
मनुष्य जो सोच-विचार करता है - उस सोच-विचार के मूल में "ज्ञान" होना आवश्यक है। अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान - ये तीनो मिल कर ज्ञान हुआ। यही अध्ययन की वस्तु है। इसी ज्ञान के आधार पर "विवेक" और "विज्ञान" कार्य करता है। ज्ञान मूल में होने से विवेक सम्मत विज्ञान, और विज्ञान सम्मत विवेक होता है। इस तरह ज्ञान-मूलक सोच-विचार से योजना, कार्य-योजना, और उसके क्रियान्वयन से फल-परिणाम होते हैं। ज्ञान-मूलक कर्मो के फल-परिणाम भी ज्ञान-सम्मत होते हैं। यही समाधान का स्वरूप है। मनुष्य के कर्म के फल-परिणाम जब तक ज्ञान-अनुरूप नहीं हैं - तब तक समाधान नहीं हुआ।
भ्रमित मनुष्य के सोच-विचार, योजना, कार्य-योजना के मूल में ज्ञान-विवेक-विज्ञान नहीं रहता। इसलिए भ्रमित मनुष्य के कर्मो के फल-परिणाम ज्ञान-अनुरूप नहीं होते, और समस्याकारी ही होते हैं।
मानवीयता पूर्वक जीने की बात समझदारी पूर्वक ही आयेगी। समझदारी से ही समाधान होता है। समझदारी अनुभव में ही होता है। नासमझी के सारे काम जीवन साड़े चार क्रिया में कर लेता है। जीवन की दसों क्रिया को प्रमाणित करने के लिए अनुभव ही है। यह मेरी जांची हुई बात है - अनुभव के बिना मनुष्य का मानवत्व सहित व्यवस्था में जीना बनता नहीं है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
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