सत्ता को स्थिति-पूर्ण स्वरूप में पहचाना। प्रकृति को स्थिति-शील स्वरूप में पहचाना।
सत्ता क्रिया नहीं हैं। प्रकृति क्रिया है।
सत्ता में संपृक्त प्रकृति ही अस्तित्व है।
क्रिया को स्थिति-गति स्वरूप में पहचाना।
अस्तित्व में तीन ही तरह की क्रियाएं हैं - भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया, और जीवन क्रिया। अस्तित्व में चारों अवस्थाओं का प्रकटन - इन तीनो क्रियाओं का ही जोड़-जुगाड़ है।
स्थिति को "होने" के स्वरूप में पहचाना। प्रकृति की कोई भी वास्तविकता "है" - वही उसकी स्थिति है। नियति-क्रम विधि से अस्तित्व में वास्तविकताओं का प्रकटन है - उसके अनुसार उनकी स्थिति है। स्थिति हर वस्तु (वास्तविकता) की प्रतिबद्धता है। "होना" हर वस्तु का धर्म है।
गति को व्यवस्था में रहने, स्थानान्तरण, और परिवर्तन के स्वरूप में पहचाना। स्थानान्तरण और परिवर्तन सम और विषम गति है - जिसकी मनुष्य गणना कर सकता है। व्यवस्था में रहना "मध्यस्थ-गति" है। मध्यस्थ-गति गणना में नहीं आती, मनुष्य उसको केवल समझ सकता है।
प्रश्न: सत्ता स्थिति-पूर्ण है, इसका क्या आशय है?
उत्तर: परिवर्तन पूर्वक सत्ता आया नहीं है। परिवर्तन उसमें होता नहीं है। इसलिए स्थिति-पूर्ण है।
प्रकृति में परिवर्तन होता है। जड़-प्रकृति में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन होता है। चैतन्य प्रकृति (जीवन) में केवल गुणात्मक परिवर्तन सम्भव है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक; दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
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