"पठन विधि" और "अध्ययन विधि" के भेद को समझने की ज़रूरत है।
"पठन विधि" में भय-प्रलोभन हमारी परिकल्पना में स्थापित रहता है। प्रलोभन के पक्ष में जो पठन है, उसको स्वीकार लेता है - बाकी को नकार देता है। अध्ययन विधि में भय-प्रलोभन आता नहीं है। अभी जैसे अपना ही उदाहरण लें - आप हमारे संयोग में हम डांट-फटकार के साथ भी चले हैं, प्यार-पुचकार से भी चले हैं। क्या आपको कोई भय-प्रलोभन हुआ? "आपको चाहिए - नहीं चाहिए?", "आप समझे - नहीं समझे?" इन्ही दो column में मेरी सारी प्रस्तुति है। इसी अर्थ में मेरा सारा तर्क है।
प्रचलित-विज्ञान का तर्क नकारात्मक खूंटे से बंधा रहता है। ईश्वर-वाद का तर्क रहस्य के खूंटे से बंधा रहता है। यहाँ तर्क सकारात्मक खूंटे से बंधा रहता है। सकारात्मक खूंटे से बांधे बिना आप कोई निश्चित जगह पहुँच भी नहीं सकते।
इसलिए यहाँ पहला परिशीलन यही है - "आपको जागृत होना है या भ्रमित ही रहना है?" मानव जाति जागृति को नकार नहीं पाता है।
फ़िर जागृति के तीन स्तर बताये - (१) चार विषय (आहार, निद्रा, भय, और मैथुन), (२) पाँच संवेदनाएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध), और (३) न्याय, धर्म, सत्य। इनमें से आप जागृति के किस स्तर पर जीना चाहते हैं? - यह पूछा। इसका उत्तर - "न्याय धर्म सत्य में जागृत होना है।" - यही निकलता है। जागृति के पहले दो खाके "जागृति-क्रम" में गण्य हैं। तीसरा खाका - न्याय, धर्म, सत्य का - "जागृति" में गण्य है। जागृति प्रमाणित होने के तीन स्तर हैं - मानव चेतना, देव चेतना, और दिव्य-चेतना।
यह तर्क व्यवहार-संगत नहीं है - यह कहना बनता नहीं है। यह तर्क समझ (ज्ञान-विवेक-विज्ञानं) के विरुद्ध है - यह भी कहना बनता नहीं है। यह तर्क नियति-विरोधी है, तृप्ति-दायक नहीं है - यह भी कहना बनता नहीं है। यह तर्क "व्यवहार प्रमाण" में न्याय और समृद्धि से जुड़ता है। "विचार प्रमाण" में समाधान से जुड़ता है। "अनुभव प्रमाण" में सत्य से जुड़ता है।
कुल मिला कर - मनुष्य में जागृति की सहज-अपेक्षा पर मध्यस्थ-दर्शन का सारा तर्क जुड़ा हुआ है। जागृति की अपेक्षा मनुष्य में आदि-काल से है। "हर व्यक्ति समझदार हो सकता है।" - यहाँ से यह बात शुरू है। यही इस प्रस्तुति का आधार है।
संवाद, प्रबोधन, और परिशीलन पूर्वक हम अध्ययन-कक्ष में पहुँचते हैं। अध्ययन-कक्ष में पहुंचना, मतलब वस्तु के प्रति निर्भीक रूप में कल्पनाशीलता को दौडाना। उसके बाद तुलन होना। उसके बाद साक्षात्कार होना।
अपनी कल्पना में वस्तु के प्रति जो आप पहले से परिकल्पना बना रखे हैं, उसके आधार पर तुलन नहीं करना है। यदि पूर्व स्मृतियों और परिकल्पनाओं के आधार पर तुलन करते हैं - तो वह "अच्छा लगने" के आधार पर ही होता है। विगत की सभी स्मृतियों और परिकल्पनाओं के आधार पर तुलन में भय और प्रलोभन के प्रति विवशता रहती ही है। यह प्रस्ताव "अच्छा लगने" के स्थान पर "अच्छा होने" के लिए है। "अच्छा होने" के लिए भय और प्रलोभन से मुक्त हो कर तुलन करने की आवश्यकता है।
धैर्य से, सार्थकता की चोटी से बाँध कर हर कदम रखा जाए। आतुरता करते हैं, तो वह "प्रयोग" ही हुआ। धैर्य से चलते हैं, तो "पद्यति" है। अब आगे की ज़िंदगी में हमें प्रयोग नहीं करने हैं, पद्यति पर चलना है। हर व्यक्ति को शोध पूर्वक पद्यति के साथ पैर रखना है।
प्रश्न: "प्रयोग" और "पद्यति" में क्या अंतर है?
उत्तर: प्रयोग होता है - अज्ञात को ज्ञात करने के लिए, और अप्राप्त को प्राप्त करने के लिए। परम्परा में जो प्रावधानित नहीं है - तब प्रयोग या अनुसंधान करने की आवश्यकता होती है।
"प्राप्ति" को लेकर हम देखते हैं - सामान्याकंक्षा (आहार, आवास, अलंकार) और महत्त्वाकांक्षा (दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, और दूर-गमन) संबन्धी सभी वस्तुएं मनुष्य को प्रयोग पूर्वक प्राप्त हो चुकी हैं। ये सभी मनाकार को साकार करने के रूप में हैं। अप्राप्ति को लेकर अब जो प्रयोग हैं - वे व्यापार को बुलंद करने के लिए ही हैं। और कोई प्रयोग धरती पर शेष नहीं रह गया। अप्राप्त को प्राप्त करने का कोई खाका अब शेष बचा नहीं है।
अज्ञात को ज्ञात करने का पक्ष अभी तक खाली रहा है। अज्ञात को ज्ञात करना मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने के अर्थ में है। उसके लिए ही मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन करने के लिए प्रस्ताव है। अध्ययन करना कोई प्रयोग नहीं है। अध्ययन एक निश्चित पद्यति है। इस प्रस्ताव के अध्ययन करने के बाद यदि आप पाते हैं - यह पूरा नहीं पड़ता, तो पुनः प्रयोग किया जाए!
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
1 comment:
Rakesh,
"धैर्य से, सार्थकता की चोटी से बाँध कर हर कदम रखा जाए। आतुरता करते हैं, तो वह "प्रयोग" ही हुआ। धैर्य से चलते हैं, तो "पद्यति" है। अब आगे की ज़िंदगी में हमें प्रयोग नहीं करने हैं, पद्यति पर चलना है। हर व्यक्ति को शोध पूर्वक पद्यति के साथ पैर रखना है।"
Looks like this paragraph outlines how to study the proposal. It tells clearly the we have to study systematically. Everybody has to convince himself on every step and proceed further. No hurry should be done in study.
Regards,
Gopal.
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