IIT में fission-fusion में PhD करने वाले विद्यार्थियों ने मुझसे पूछा - "हम यह सब fission-fusion की पढ़ाई क्यों कर रहे हैं?"
मैंने उनको उत्तर दिया - आराम की रोटी खाने के लिए। जहाँ आपको रोटी मिलने का आश्वासन है, आप वही करते हो। लेकिन मैं आपको इतना बता दूँ - जिस बात की रोटी खाने आप जा रहे हो, उसमें आदमी की हैसियत से आप जी नहीं पाओगे। fission-fusion का क्या प्रयोजन है? क्या अपने घर में atom-bomb डालोगे?
कितना बड़ा foundation में हाथ डालने वाला बात है यह! थोड़ा सा सोच के तुम बताओ। कितना भारी खतरा हम मोल लिए हैं! इस खतरे का मुझे ज्ञान नहीं है, ऐसा नहीं है। लोगों को मेरा ऐसा कहना कितना प्रिय-अप्रिय लगता है, इसका मुझे ज्ञान है। प्रिय लगना, अप्रिय लगना के आधार पर तुलन करना जीव-जानवरों के लिए है।
उन्होंने फ़िर पूछा - "इससे कैसे छूटें हम?"
इस पूरे विकल्प को पहले अच्छे से समझो - फ़िर समाधान संपन्न होने पर अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन करने में संलग्न हो जाओ। आपके अभी नौकरी वाले तरीके में "जीना" तो बनेगा नहीं। पैसा जरूर हो सकता है। पैसे से वितृष्णा बढ़ना ही है। जैसे यदि आपके पास २ पैसा हो गया, तो ४ पैसे की प्यास बनता ही है। पैसे से हमको तृप्ति मिलेगी या वस्तु से तृप्ति मिलेगी - इसको तय करो! वस्तु से तृप्ति मिलती है, यह समझ में आता है - तो वस्तु के उत्पादन में लगो!
अभी सबसे बड़ी विपदा यही है - पढने के बाद श्रम नहीं करना है। इस प्रस्ताव को लेकर बुद्धिजीवियों के गले में फांसी यहीं पर लगती है। जितना ज्यादा जो पढ़ा - वह श्रम से उतना ही कट गया। श्रम किए बिना पैसा पैदा करना - वैध है, या अवैध है? आप ही तय करो!
प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम-नियोजन करने से उपयोगिता-मूल्य स्थापित होता है। जैसे - लकड़ी से इस मेज़ को बनाया। इस मेज़ का उपयोगिता-मूल्य इसमें निहित है। इसको बनाने में जो श्रम लगा, उसके आधार पर इसका विनिमय किया जा सकता है। इसी तरह हर उत्पादित-वस्तु का विनिमय उसके लिए नियोजित श्रम के आधार पर किया जा सकता है। श्रम के आधार पर विनिमय करना न्यायिक होगा या पैसे के आधार पर - आप ही तय करो!
मनुष्य की उपयोगिता की वस्तुएं हैं - आहार, आवास, अलंकार, दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, और दूर-गमन संबन्धी। इन ६ के अलावा मनुष्य की उपयोगिता की वस्तुएं आप पहचान नहीं पाओगे। इसके अलावा जो वस्तुएं हैं - जैसे युद्द सामग्री - वे मनुष्य के लिए "उपयोगी" नहीं हैं। अच्छी तरह से देख लेना आप इसको!
व्यापार और नौकरी में "जीने" का कोई स्थान ही नहीं है। व्यापार में आदमी के साथ कम देना, ज्यादा लेना का तौर-तरीका है। इसमें "जीना" कहाँ हुआ? नौकरी में भी वैसा ही है। जीने के बारे में सोचा जाए, या जीने के नकली-साधन (पैसा) के बारे में सोचा जाए? यह सोचने का एक मुद्दा है। जीने में तृप्ति है। जीने के लिए नकली साधन (पैसा) को लेकर सारा समय लगा देना - कहाँ तक न्याय है? भौतिक वस्तुएं जीने के लिए असली साधन हैं। भौतिक-वस्तुएं प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम-नियोजन द्वारा मनुष्य उत्पादित करता है। अभी विश्व के १२% से कम जनसँख्या उत्पादन-कार्य में लगे हैं। यदि हर व्यक्ति अपने श्रम को उत्पादन करने के लिए नियोजित करने का मन बना ले तो वस्तु कितना होगा - आप सोच लो! समाधान-सम्पन्नता पूर्वक बनी आर्थिक-व्यवस्था में वस्तु से समृद्ध होंगे, न कि पैसे से।
समाधान-सम्पन्नता पूर्वक ही परिवार में समृद्धि के साथ जीने का तौर-तरीका आता है। समाधान-सम्पन्नता से पहले आदमी की तरह जीना तो बनेगा नहीं। मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव समाधान-संपन्न होने के लिए है।
सुविधा-संग्रह के चक्कर से मुक्त हुआ जाए और अच्छे से जिया जाए। इसके लिए पुनर्विचार ज़रूरी है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)
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