"ज्ञान" का मतलब है - सह-अस्तित्व में अनुभव। और कोई ज्ञान होता नहीं है! प्रचलित-विज्ञान (भौतिकवाद) या आदर्शवाद के अनुसार "ज्ञान" के नाम पर जो प्रतिपादित हुआ, उससे अपराध ही होता है। लोगों ने उसके अनुसार आचरण करके देख लिया - उससे दुर्घटना ही हुई, सद्घटना कोई घटित हुई नहीं। दुर्घटना है - धरती का बीमार होना, प्रदूषण छा जाना, व्यक्तिवाद-समुदायवाद के रूप में अपने-पराये की दूरियां बढ़ जाना।
अस्तित्व में मनुष्य एक सामाजिक-न्यायिक इकाई है। "साथ-साथ होने" की अपेक्षा मनुष्य में सहज है। भौतिकवाद (प्रचलित विज्ञानं) और आदर्शवाद दोनों व्यक्तिवाद की ओर ही ले जाते हैं। व्यक्तिवाद का मतलब है - समानान्तर विचारधाराएं , जो कभी मिलने वाले नहीं हैं। इससे हम एक दूसरे के साथ दूरी बना कर रखने वाले हो गए। दूरी बना कर रखने के कारण हम एक-दूसरे के साथ विश्वास पूर्वक जीने में समर्थ नहीं हुए। लोगों को साथ-साथ लाने के लिए कृत्रिम आधारों की आवश्वकता बन गयी।
भौतिकवाद ने "सुविधा-संग्रह" का कृत्रिम आधार दिया - साथ-साथ लाने के लिए। लेकिन सुविधा-संग्रह का कोई तृप्ति-बिन्दु ही नहीं है। सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ चलने पर "संघर्ष" (द्रोह, विद्रोह, शोषण, युद्ध) अवश्यम्भावी हो जाता है। इस तरह भौतिकवाद व्यवहारिक सिद्ध नहीं हुआ।
आदर्शवाद ने "रहस्यमयी ईश्वर" (भक्ति-विरक्ति) का कृत्रिम आधार दिया - साथ-साथ लाने के लिए। रहस्यमयता में ही "कल्याण" का चित्रण किया। रहस्य के प्रति आस्थाएं बनी। अपने-अपने रहस्य के प्रति कट्टरताएं और समुदायवादिता पनपी। समुदायवादिता के साथ "अपना-पराया" जुड़ा ही है। इस तरह आदर्शवाद व्यवहारिक सिद्ध नहीं हुआ।
इस तरह दोनों विधियों से मनुष्यों को साथ-साथ लाने के प्रयास असफल हो गए। दोनों विधियों से प्रयत्न खूब हुआ, लोगों ने पूरा जी-जान लगाए। भक्ति-विरक्ति में तत्कालीन "अच्छे" कहलाये जाने वाले लोग जी-जान लगाए। सुविधा-संग्रह में ज्ञानी-अज्ञानी-विज्ञानी तीनो गोता लगा दिए! इस तरह गोता लगाने पर हम घोर-संकट की स्थिति में पहुँच गए, जब धरती ही बीमार हो गयी। अब पुनर्विचार की आवश्यकता बन गयी। साथ-साथ लाने के कृत्रिम-आधारों पर प्रश्न-चिन्ह लग गया।
पूरा मनुष्य-परम्परा ही सुविधा-संग्रह के चक्कर में उलझा है। पूरा मनुष्य-परम्परा ही भ्रमित है। जैसे कुए में भांग घुल गयी हो - ऐसा स्थिति बन गयी है। अब क्या किया जाए? आप-हम उस जगह में खड़े हैं। आप कुछ भी करो, वही भांग-मिला पानी है। सुविधा-संग्रह के लक्ष्य से हम छूटते नहीं हैं। धरती को ही बीमार कर दिया - तो रहोगे कहाँ पर? इसलिए पुनर्विचार की आवश्यकता है।
पुनर्विचार के लिए मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्ववाद "विकल्प" के रूप में प्रस्तुत है। विकल्प इसलिए - क्योंकि यह पिछली दोनों विचारधाराओं से जुड़ा नहीं है।
विकल्प के लिए प्रधान मुद्दा है - "ज्ञान" स्पष्ट होना। ज्ञान के मुद्दे पर हम स्पष्ट किए हैं, अध्ययन कराने का वादा किए हैं, अध्ययन होता भी है, आंशिक रूप में आप स्वयं उसमें भागीदारी किए हो - और वह है, सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व का दर्शन होना। सह-अस्तित्व स्वरूप में पूरा अस्तित्व होने का ज्ञान होना। सहअस्तित्व में ही जीवन-ज्ञान होना। सहअस्तित्व में ही मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान होना। यह तीनो समझ में आने से, उससे संतुष्टि मिलने से, उससे तृप्ति मिलने से - "ज्ञान" हुआ।
तृप्ति का पहला घाट है - "मैं सब कुछ समझ गया हूँ।" सह-अस्तित्व में अनुभव होने पर तत्काल स्वयं में यह स्थिति बनती है। इसका नाम है - "दृष्टा पद"।
इस तरह समझदार होने पर स्वयं को प्रमाणित करने की योग्यता आती है। प्रमाणित करना = अन्य व्यक्ति को अपने जैसा समझदार बना देना। प्रमाणित करने का मतलब यही है। इस तरह एक व्यक्ति यदि दस व्यक्तियों को अपने स्वरूप में परिणित करता है - उससे संसार का "उपकार" है। यही "ज्ञान का प्रमाण" है। भौतिकवादी विधि से laboratory में अपने शरीर का प्रतिरूप तैयार कर लेने को "ज्ञान" माना है। ईश्वरवादी विधि में चेले बनाने को ज्ञान का प्रमाण माना है। जो जितना ज्यादा चेले बनाता है - वह उतना "अच्छा" गुरु! इन दोनों के विकल्प में यहाँ अनेक व्यक्तियों को अपने जैसा समझदार बना लेने को "ज्ञान का प्रमाण" कह रहे हैं।
"मैं सब कुछ समझ गया हूँ।" - मुझ में यह विश्वास डगमगाने की बात अभी तक आया नहीं है। सन् १९७५ में मैंने यह स्थिति हासिल की थी। तब से आज तक जितनी भी घटनाएं हुई, परिस्थितियाँ आईं - वह जड़ हिला नहीं। "अनुभव-ज्ञान में स्थिरता है" - इस बात को माना जाए या नहीं माना जाए?
मैंने प्रतिपादित किया है - "अस्तित्व स्थिर है, विकास और जागृति निश्चित है।" यह प्रचलित-विज्ञान के अस्थिरता-अनिश्चयता मूलक प्रतिपादन पर कितना बड़ा प्रहार है, आप सोच लो! यह hitting point है - इसको मैं अच्छे से जानता हूँ। hitting इसलिए आवश्यक है, क्योंकि नींद वालों को जगाना आवश्यक है। यह hitting point होते हुए भी इसमें कितना प्यार घुला है - आप सोच लो! प्यार घुला है - इसीलिये मैं सफल हो जाता हूँ। "आदमी बनो, मगरमच्छ मत बनो! मगरमच्छ बनने से धरती को बीमार कर दिया, जो ठीक नहीं हुआ।" - यह प्यार नहीं है, तो और क्या है? क्या इस बात का विरोध भी करना बनता है किसी से? इससे दूर भागना बन सकता है। इससे दूर भागते हैं तो हाथ-पैर ठंडा होना बनता ही है। हाथ-पैर ठंडा होता है तो आज नहीं तो कल इसी दरवाजे पर आयेंगे।
प्रश्न: ज्ञान की पारदर्शीयता से क्या आशय है?
उत्तर: मैं यहीं बैठा हूँ, अभी मैंने आपके सामने सारे विगत की राज-गद्दी, धर्म-गद्दी, व्यापार-गद्दी का समीक्षा प्रस्तुत किया। यह ज्ञान की पारदर्शीयता है या नहीं? अनुभव-मूलक ज्ञान से सभी विगत का समीक्षा हो गया - इसको ज्ञान की पारदर्शीयता कहा जाए या नहीं? मैं यहीं बैठा हूँ, संसार में गया नहीं हूँ, किसी से data collect नहीं किया हूँ। अनुभव होने से अस्तित्व सहअस्तित्व स्वरूप में कैसे है - यह समझ में आ गया। अस्तित्व क्यों है - यह भी समझ में आ गया। सहअस्तित्व में अनुभव के आधार पर मैं अस्तित्व में हर बात का विश्लेषण और समीक्षा प्रस्तुत करता हूँ। इसको ज्ञान की पारदर्शीयता का प्रमाण माना जाए या नहीं?
आप मेरा उदाहरण देखो - मैंने बिना कुछ आधुनिक संसार की पढ़ाई किए समग्र अस्तित्व का ज्ञान हासिल किया है। आधुनिक संसार की पढ़ाई की कौनसी सार्थकता है, जो मेरे दर्शन में नहीं आयी है? इसको ज्ञान की पारदर्शीयता माना जाए या नहीं माना जाए?
मैं किसी भी घटना को देखने जाता हूँ तो मुझे वह घटना-परिस्थिति तो समझ में आता ही है, उससे ज्यादा भी समझ में आता है। उस घटना या परिस्थिति के समाधान तक पहुँच जाता हूँ मैं। इसको ज्ञान की पारदर्शीयता माना जाए या नहीं माना जाए? मुझ में यह qualification साधना-समाधि-संयम पूर्वक अनुभव-संपन्न होने पर आया। उससे पहले यह qualification मुझ में नहीं था। यह qualification सभी में हो, उसी के लिए मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है।
सह-अस्तित्व में अनुभव पूर्वक हम ज्ञान के प्रति पारदर्शी हो जाते हैं।
प्रश्न: ज्ञान की पारदर्शीयता का क्या फायदा हुआ?
उत्तर: इससे नकारात्मक और सकारात्मक का नीर-क्षीर न्याय होता है। सकारात्मक भाग मानव के "जीने" में आता है। नकारात्मक भाग अपराध में जाता है। नकारात्मक भाग को मैंने "अपराध" नाम दिया है। तात्विक रूप में नकारात्मक और सकारात्मक दोनों घटनाएं ही हैं। नकारात्मक घटनाओं में कोई क्रम-बद्धता नहीं होती। सकारात्मक घटनाएं एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी क्रम-वत जुड़ते चले जाते हैं। इन दोनों में यही अन्तर है।
प्रश्न: ज्ञान की पारगामियता से क्या आशय है?
उत्तर: स्वयं में समझ के आधार पर जब मैं अस्तित्व की व्याख्या प्रस्तुत करता हूँ, तो आप में समझने की इच्छा पैदा होता है। ज्ञान एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में transfer होता है। यही ज्ञान की पारगामियता का प्रमाण है। मेरा प्रतिरूप यही है। जीवन का प्रतिरूप होता है - न कि शरीर का! अनुभव मूलक ज्ञान का प्रतिरूप होता है। यह सिद्धांत है। विज्ञानी जो शरीर का प्रतिरूप बनाने में लगे हैं, वह कितना व्यर्थ है - आप सोच लो!
प्रश्न: ज्ञान की पारगामीयता से क्या फायदा हुआ?
उत्तर: इससे उपकार की विधि निकल गयी। समझे हुए को समझाना, सीखे हुए को सिखाना, किए हुए को करना - यही उपकार है। ज्ञान की पारगामियता है - तभी समझा हुआ व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को समझाने में समर्थ हो सकता है। ज्ञान की पारगामियता है - तभी तो शिक्षा विधि से ज्ञान का लोकव्यापीकरण सम्भव है।
जब कोई व्यक्ति मेरे सम्मुख प्रस्तुत होता है तो वह ऐसे क्यों प्रस्तुत हो रहा है, यह मुझे तुंरत समझ में आ जाता है। फ़िर उसको कैसे समझाना है, उसका design मुझमें अपने आप से निकल आता है। वह design सफल हो जाता है। इसमें मुझे कोई श्रम नहीं करना पड़ता - यह स्वयं-स्फूर्त रूप में हो जाता है। ज्ञान पारदर्शी है, पारगामी है - तभी यह सम्भव है।
ज्ञान पूर्वक ही मनुष्य भ्रम-मुक्ति, अपने-पराये से मुक्ति, और अपराध-मुक्ति को पाता है। सकारात्मक रूप में कहें तो - सर्वमानव को एक जाति के रूप में पहचानना बनता है। "मानव जाति एक है" - यह पहचानना अनुभवमूलक ज्ञान से ही बन पाता है। और किसी विधि से बनता होगा तो आप बताओ! "मानव जाति एक है" - यह पहचानना किसी मशीन से सम्भव हो, तो बताओ! "मानव जाति एक है" - यह रहस्य विधि से पहचानना सम्भव हो, तो आप बताइये!
सहअस्तित्व में अनुभव ही ज्ञान है। सत्ता में संपृक्त प्रकृति स्वरूपी अस्तित्व क्यों है, और कैसा है - इसका उत्तर स्वयं में स्थापित होना ही अनुभव है। सऊर से जीने की शुरुआत यहाँ से है। इसके अलावा दूसरे किसी विधि से बात बन नहीं पा रही है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)
अस्तित्व में मनुष्य एक सामाजिक-न्यायिक इकाई है। "साथ-साथ होने" की अपेक्षा मनुष्य में सहज है। भौतिकवाद (प्रचलित विज्ञानं) और आदर्शवाद दोनों व्यक्तिवाद की ओर ही ले जाते हैं। व्यक्तिवाद का मतलब है - समानान्तर विचारधाराएं , जो कभी मिलने वाले नहीं हैं। इससे हम एक दूसरे के साथ दूरी बना कर रखने वाले हो गए। दूरी बना कर रखने के कारण हम एक-दूसरे के साथ विश्वास पूर्वक जीने में समर्थ नहीं हुए। लोगों को साथ-साथ लाने के लिए कृत्रिम आधारों की आवश्वकता बन गयी।
भौतिकवाद ने "सुविधा-संग्रह" का कृत्रिम आधार दिया - साथ-साथ लाने के लिए। लेकिन सुविधा-संग्रह का कोई तृप्ति-बिन्दु ही नहीं है। सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ चलने पर "संघर्ष" (द्रोह, विद्रोह, शोषण, युद्ध) अवश्यम्भावी हो जाता है। इस तरह भौतिकवाद व्यवहारिक सिद्ध नहीं हुआ।
आदर्शवाद ने "रहस्यमयी ईश्वर" (भक्ति-विरक्ति) का कृत्रिम आधार दिया - साथ-साथ लाने के लिए। रहस्यमयता में ही "कल्याण" का चित्रण किया। रहस्य के प्रति आस्थाएं बनी। अपने-अपने रहस्य के प्रति कट्टरताएं और समुदायवादिता पनपी। समुदायवादिता के साथ "अपना-पराया" जुड़ा ही है। इस तरह आदर्शवाद व्यवहारिक सिद्ध नहीं हुआ।
इस तरह दोनों विधियों से मनुष्यों को साथ-साथ लाने के प्रयास असफल हो गए। दोनों विधियों से प्रयत्न खूब हुआ, लोगों ने पूरा जी-जान लगाए। भक्ति-विरक्ति में तत्कालीन "अच्छे" कहलाये जाने वाले लोग जी-जान लगाए। सुविधा-संग्रह में ज्ञानी-अज्ञानी-विज्ञानी तीनो गोता लगा दिए! इस तरह गोता लगाने पर हम घोर-संकट की स्थिति में पहुँच गए, जब धरती ही बीमार हो गयी। अब पुनर्विचार की आवश्यकता बन गयी। साथ-साथ लाने के कृत्रिम-आधारों पर प्रश्न-चिन्ह लग गया।
पूरा मनुष्य-परम्परा ही सुविधा-संग्रह के चक्कर में उलझा है। पूरा मनुष्य-परम्परा ही भ्रमित है। जैसे कुए में भांग घुल गयी हो - ऐसा स्थिति बन गयी है। अब क्या किया जाए? आप-हम उस जगह में खड़े हैं। आप कुछ भी करो, वही भांग-मिला पानी है। सुविधा-संग्रह के लक्ष्य से हम छूटते नहीं हैं। धरती को ही बीमार कर दिया - तो रहोगे कहाँ पर? इसलिए पुनर्विचार की आवश्यकता है।
पुनर्विचार के लिए मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्ववाद "विकल्प" के रूप में प्रस्तुत है। विकल्प इसलिए - क्योंकि यह पिछली दोनों विचारधाराओं से जुड़ा नहीं है।
विकल्प के लिए प्रधान मुद्दा है - "ज्ञान" स्पष्ट होना। ज्ञान के मुद्दे पर हम स्पष्ट किए हैं, अध्ययन कराने का वादा किए हैं, अध्ययन होता भी है, आंशिक रूप में आप स्वयं उसमें भागीदारी किए हो - और वह है, सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व का दर्शन होना। सह-अस्तित्व स्वरूप में पूरा अस्तित्व होने का ज्ञान होना। सहअस्तित्व में ही जीवन-ज्ञान होना। सहअस्तित्व में ही मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान होना। यह तीनो समझ में आने से, उससे संतुष्टि मिलने से, उससे तृप्ति मिलने से - "ज्ञान" हुआ।
तृप्ति का पहला घाट है - "मैं सब कुछ समझ गया हूँ।" सह-अस्तित्व में अनुभव होने पर तत्काल स्वयं में यह स्थिति बनती है। इसका नाम है - "दृष्टा पद"।
इस तरह समझदार होने पर स्वयं को प्रमाणित करने की योग्यता आती है। प्रमाणित करना = अन्य व्यक्ति को अपने जैसा समझदार बना देना। प्रमाणित करने का मतलब यही है। इस तरह एक व्यक्ति यदि दस व्यक्तियों को अपने स्वरूप में परिणित करता है - उससे संसार का "उपकार" है। यही "ज्ञान का प्रमाण" है। भौतिकवादी विधि से laboratory में अपने शरीर का प्रतिरूप तैयार कर लेने को "ज्ञान" माना है। ईश्वरवादी विधि में चेले बनाने को ज्ञान का प्रमाण माना है। जो जितना ज्यादा चेले बनाता है - वह उतना "अच्छा" गुरु! इन दोनों के विकल्प में यहाँ अनेक व्यक्तियों को अपने जैसा समझदार बना लेने को "ज्ञान का प्रमाण" कह रहे हैं।
"मैं सब कुछ समझ गया हूँ।" - मुझ में यह विश्वास डगमगाने की बात अभी तक आया नहीं है। सन् १९७५ में मैंने यह स्थिति हासिल की थी। तब से आज तक जितनी भी घटनाएं हुई, परिस्थितियाँ आईं - वह जड़ हिला नहीं। "अनुभव-ज्ञान में स्थिरता है" - इस बात को माना जाए या नहीं माना जाए?
मैंने प्रतिपादित किया है - "अस्तित्व स्थिर है, विकास और जागृति निश्चित है।" यह प्रचलित-विज्ञान के अस्थिरता-अनिश्चयता मूलक प्रतिपादन पर कितना बड़ा प्रहार है, आप सोच लो! यह hitting point है - इसको मैं अच्छे से जानता हूँ। hitting इसलिए आवश्यक है, क्योंकि नींद वालों को जगाना आवश्यक है। यह hitting point होते हुए भी इसमें कितना प्यार घुला है - आप सोच लो! प्यार घुला है - इसीलिये मैं सफल हो जाता हूँ। "आदमी बनो, मगरमच्छ मत बनो! मगरमच्छ बनने से धरती को बीमार कर दिया, जो ठीक नहीं हुआ।" - यह प्यार नहीं है, तो और क्या है? क्या इस बात का विरोध भी करना बनता है किसी से? इससे दूर भागना बन सकता है। इससे दूर भागते हैं तो हाथ-पैर ठंडा होना बनता ही है। हाथ-पैर ठंडा होता है तो आज नहीं तो कल इसी दरवाजे पर आयेंगे।
प्रश्न: ज्ञान की पारदर्शीयता से क्या आशय है?
उत्तर: मैं यहीं बैठा हूँ, अभी मैंने आपके सामने सारे विगत की राज-गद्दी, धर्म-गद्दी, व्यापार-गद्दी का समीक्षा प्रस्तुत किया। यह ज्ञान की पारदर्शीयता है या नहीं? अनुभव-मूलक ज्ञान से सभी विगत का समीक्षा हो गया - इसको ज्ञान की पारदर्शीयता कहा जाए या नहीं? मैं यहीं बैठा हूँ, संसार में गया नहीं हूँ, किसी से data collect नहीं किया हूँ। अनुभव होने से अस्तित्व सहअस्तित्व स्वरूप में कैसे है - यह समझ में आ गया। अस्तित्व क्यों है - यह भी समझ में आ गया। सहअस्तित्व में अनुभव के आधार पर मैं अस्तित्व में हर बात का विश्लेषण और समीक्षा प्रस्तुत करता हूँ। इसको ज्ञान की पारदर्शीयता का प्रमाण माना जाए या नहीं?
आप मेरा उदाहरण देखो - मैंने बिना कुछ आधुनिक संसार की पढ़ाई किए समग्र अस्तित्व का ज्ञान हासिल किया है। आधुनिक संसार की पढ़ाई की कौनसी सार्थकता है, जो मेरे दर्शन में नहीं आयी है? इसको ज्ञान की पारदर्शीयता माना जाए या नहीं माना जाए?
मैं किसी भी घटना को देखने जाता हूँ तो मुझे वह घटना-परिस्थिति तो समझ में आता ही है, उससे ज्यादा भी समझ में आता है। उस घटना या परिस्थिति के समाधान तक पहुँच जाता हूँ मैं। इसको ज्ञान की पारदर्शीयता माना जाए या नहीं माना जाए? मुझ में यह qualification साधना-समाधि-संयम पूर्वक अनुभव-संपन्न होने पर आया। उससे पहले यह qualification मुझ में नहीं था। यह qualification सभी में हो, उसी के लिए मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है।
सह-अस्तित्व में अनुभव पूर्वक हम ज्ञान के प्रति पारदर्शी हो जाते हैं।
प्रश्न: ज्ञान की पारदर्शीयता का क्या फायदा हुआ?
उत्तर: इससे नकारात्मक और सकारात्मक का नीर-क्षीर न्याय होता है। सकारात्मक भाग मानव के "जीने" में आता है। नकारात्मक भाग अपराध में जाता है। नकारात्मक भाग को मैंने "अपराध" नाम दिया है। तात्विक रूप में नकारात्मक और सकारात्मक दोनों घटनाएं ही हैं। नकारात्मक घटनाओं में कोई क्रम-बद्धता नहीं होती। सकारात्मक घटनाएं एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी क्रम-वत जुड़ते चले जाते हैं। इन दोनों में यही अन्तर है।
प्रश्न: ज्ञान की पारगामियता से क्या आशय है?
उत्तर: स्वयं में समझ के आधार पर जब मैं अस्तित्व की व्याख्या प्रस्तुत करता हूँ, तो आप में समझने की इच्छा पैदा होता है। ज्ञान एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में transfer होता है। यही ज्ञान की पारगामियता का प्रमाण है। मेरा प्रतिरूप यही है। जीवन का प्रतिरूप होता है - न कि शरीर का! अनुभव मूलक ज्ञान का प्रतिरूप होता है। यह सिद्धांत है। विज्ञानी जो शरीर का प्रतिरूप बनाने में लगे हैं, वह कितना व्यर्थ है - आप सोच लो!
प्रश्न: ज्ञान की पारगामीयता से क्या फायदा हुआ?
उत्तर: इससे उपकार की विधि निकल गयी। समझे हुए को समझाना, सीखे हुए को सिखाना, किए हुए को करना - यही उपकार है। ज्ञान की पारगामियता है - तभी समझा हुआ व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को समझाने में समर्थ हो सकता है। ज्ञान की पारगामियता है - तभी तो शिक्षा विधि से ज्ञान का लोकव्यापीकरण सम्भव है।
जब कोई व्यक्ति मेरे सम्मुख प्रस्तुत होता है तो वह ऐसे क्यों प्रस्तुत हो रहा है, यह मुझे तुंरत समझ में आ जाता है। फ़िर उसको कैसे समझाना है, उसका design मुझमें अपने आप से निकल आता है। वह design सफल हो जाता है। इसमें मुझे कोई श्रम नहीं करना पड़ता - यह स्वयं-स्फूर्त रूप में हो जाता है। ज्ञान पारदर्शी है, पारगामी है - तभी यह सम्भव है।
ज्ञान पूर्वक ही मनुष्य भ्रम-मुक्ति, अपने-पराये से मुक्ति, और अपराध-मुक्ति को पाता है। सकारात्मक रूप में कहें तो - सर्वमानव को एक जाति के रूप में पहचानना बनता है। "मानव जाति एक है" - यह पहचानना अनुभवमूलक ज्ञान से ही बन पाता है। और किसी विधि से बनता होगा तो आप बताओ! "मानव जाति एक है" - यह पहचानना किसी मशीन से सम्भव हो, तो बताओ! "मानव जाति एक है" - यह रहस्य विधि से पहचानना सम्भव हो, तो आप बताइये!
सहअस्तित्व में अनुभव ही ज्ञान है। सत्ता में संपृक्त प्रकृति स्वरूपी अस्तित्व क्यों है, और कैसा है - इसका उत्तर स्वयं में स्थापित होना ही अनुभव है। सऊर से जीने की शुरुआत यहाँ से है। इसके अलावा दूसरे किसी विधि से बात बन नहीं पा रही है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)
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