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Tuesday, March 10, 2009

शरीर यात्रा

शरीर को जीवन मान कर जब जीते हैं - तो यह सोच बुढापे में जा कर fail हो ही जाती है। बचपन में अभिभावकों के संरक्षण में बच्चे कुछ करते हैं, फ़िर युवावस्था में कुछ करते हैं, प्रौढावस्था में अपना जलवा दिखाते हैं, और बुढापे में चारों खाने चित्त पड़ जाते हैं। वैसे ही जैसे अखाडे में पहलवान चारों खाने चित्त गिर जाता है!

प्रश्न : बुढापे में चारों खाने चित्त होने के स्थान पर होना क्या चाहिए?

संबंधों का निर्वाह होना चाहिए। माँ-बाप को अपने घर पर ही मरना चाहिए - nursing-homes में नहीं! nursing-homes में उनके मरने का इंतज़ार करने के लिए उन्ही के बच्चे ले जाते हैं। अपने घर में अपने विश्वसनीय जनों के सान्निध्य में शरीर-त्याग करना ज्यादा अच्छा है। क्या ठीक होगा? - आप ही सोच कर तय करो।

जब तक मरणासन्न वृद्ध की साँस चलती है - आस रखो। उसकी जो सेवा की आवश्यकता है, वह कर दो। जैसे बच्चे निस्सहाय होते हैं, उनकी सेवा करके उनके माता-पिता उनको बड़े बनाते हैं... ठीक उसी तरह बुजुर्गों की आख़िरी साँसों के समय में उनकी अपेक्षाओं को पहचान कर उनकी सेवा करते रहने में क्या तकलीफ है? यह आपको करना नहीं है - यह आपकी कायरता है। विवेक पूर्वक सोचा जाए तो उसके अलावा बचने की कोई जगह नहीं है। चाहे यह देश हो, या कोई और देश हो!

चिंतन-अभ्यास शरीर यात्रा पर्यंत चलता रहता है। यह अपने घर-परिवार के लोगों के बीच आश्वस्ति पूर्वक होता है। जैसे - आपके सामने मैंने यह पूरा चिंतन व्यक्त किया। आपके सामने इस चिंतन को बनाए रखने में मुझे विश्वास होगा या नहीं?

जीवन मूलक विधि से सोचते हैं तो हम "अच्छी तरह जीने" की जगह में पहुँचते हैं। शरीर की अपनी मर्यादा है। उससे समाधान यही है - "आयु के अनुसार काम"। जैसे - कोई बच्चा पैदा होते ही तो pilot का काम करना नहीं शुरू कर देता। किसी आयु में ही कर पाता है। आयु शरीर की ही होती है। आयु के अनुसार शरीर काम करने योग्य होता है। जीवन की कोई आयु नहीं होती। जीवन में केवल जागृति या भ्रम ही होता है।

जागृति के लिए मनुष्य सदा से ही प्रयास रत रहा है। पहले भी था, आज भी है, आगे भी रहेगा। प्रयास तो रहा है - विधिवत हो या विधि को छोड़ कर हो। "मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन" विधि-वत प्रयास के लिए एक प्रस्ताव है।

हर अभिभावक अपने में जो त्रुटियां मानता हैं, वे अपने बच्चों में न हों - यह सोचता है। यह इस बात की गवाही है - मनुष्य स्वयं जागृत न हो, तो भी उसकी आगे परम्परा से जागृति की अपेक्षा रहती है।

जीवन के "सार ज्ञान" को संसार में आवंटित करके शरीर की यात्रा को पूरा करना हर व्यक्ति चाहता है। जिसको भी वह "सार" माना रहता है। इसी से मनुष्य जाति एक पीढी से दूसरा पीढी enrich होता आया है। इसी विधि से मनुष्य पहले जीव-चेतना में चार विषयों की सीमा से पाँच संवेदनाओं की सीमा में आया। अब पाँच संवेदना से मानव-चेतना का रास्ता (अध्ययन विधि) बन गया है। मानव-चेतना में संज्ञानीयता पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित होती हैं। इस प्रस्ताव की मनुष्य परम्परा से coupling केवल संवेदनाओं के part में है। संवेदनाओं के part में हम जुड़े हैं - संवेदनाएं नियंत्रित होने की जगह के लिए। और कुछ भी नहीं है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

4 comments:

Gopal Bairwa said...

Rakesh,

"इस प्रस्ताव की मनुष्य परम्परा से coupling केवल संवेदनाओं के part में है। संवेदनाओं के part में हम जुड़े हैं - संवेदनाएं नियंत्रित होने की जगह के लिए। और कुछ भी नहीं है।"


Could you plz. explain this part more. It is not very clear to me.

Regards,
Gopal.

Rakesh Gupta said...

It means, this proposal is an alternative to the prevalent lines of thinking.

Jeevan expresses sensations (samvednayen) when it enlivens the body. This is the expression of "mun" faculty of jeevan. More subtle to sensations are the thoughts (which is the faculty of "vritti" in jeevan). Thoughts have patterns based on past experiences and beliefs. Beliefs and past-experiences are subtler than thoughts (which is the faculty of "chitta" in jeevan). This is the limit to which present humankind is operating.

"इस प्रस्ताव की मनुष्य परम्परा से coupling केवल संवेदनाओं के part में है। संवेदनाओं के part में हम जुड़े हैं - संवेदनाएं नियंत्रित होने की जगह के लिए। और कुछ भी नहीं है।"

Of the three levels described above - this proposal doesn't have any link (coupling) with thought-patterns and desires. It's only link is with mun. One pays attention to this proposal through mun, which leads to different thought-patterns in vritti, and which leads to perfect-recognition (sakshatkar) of existence expressing itself as coexistence in chitta. This leads to bodh in buddhi, and anubhav in atma. Which makes one capable of realizing values in relationships.

Regards,
Rakesh.

Rakesh Gupta said...

इसको इस तरह भी समझ सकते हैं:-

१. जीवन मनुष्य-शरीर को जीवंत बनाता है तो मनुष्य में संवेदनाएं प्रकट होती हैं.
२. मनुष्य ने अभी तक जो भी प्रयास किया है, संवेदनाओं की सीमा में ही किया है.
३. मनुष्य में सुख-संपन्न होने की, समाधान संपन्न होने की, ज्ञान-विवेक-विज्ञान संपन्न होने की सहज-अपेक्षा है.
४. मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन पूर्वक यह अपेक्षा पूरी होने की सम्भावना है.
५. अध्ययन के लिए विद्यार्थी द्वारा संवेदनाओं का प्रयोग आवश्यक है - वस्तु पर ध्यान देने के लिए.
६. अध्ययन की उपलब्धि है - अनुभव. = संज्ञानशीलता. = समाधान सम्पन्नता. = ज्ञान, विवेक, विज्ञान सम्पन्नता
७. संज्ञानशीलता में संवेदनाएं नियंत्रित हो जाती हैं.

Raju Neera said...

अधूरापन

रात के बाद
अगली सुबह
नई होती है मेरे लिए
बार-बार इस अहसास से
कि पुनर्जन्म हुआ है
बीता हुआ कल
बीती सदी की तरह लगता है
अधूरे कामों की फेहरिस्त
लंबी हो जाती है
बीते कल से जुड़ने का जरिया बन जाते हैं अधूरे काम
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
अधूरे कामों को पूरा करते आ रहे हैं हम
काम को पूरा करना अकेले के बस में नहीं
इस तरह अधूरे काम जोड़ते हैं
पिछ्ले दिन को अगले दिन से
पिछली पीढ़ी को अगली पीढ़ी से
आदमी को आदमी से