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Sunday, March 8, 2009

परिवार में ही व्यवस्था की शुरुआत है.

समाधान ही सुख है।

यंत्र के पास समाधान नहीं है। यंत्र साधन है।
किताब में समाधान नहीं है। किताब सूचना है।

समाधान किसके पास होता है?
जागृत-मनुष्य के पास।

यह अपने में समझ में आने से अपने में उत्साह भी जागना चाहिए। हम समझ सकते हैं, और समझा भी सकते हैं। हम जी सकते हैं, जीने दे सकते हैं। हम अपने समझे होने का प्रमाण समझा पाने में प्रस्तुत कर सकते हैं। हम अपने जीने का प्रमाण जीने दे सकने के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं।

परिवार में ही जीने दे कर जीने की शुरुआत है। परिवार में ही व्यवस्था की शुरुआत है। परिवार में ही completion भी है। हमारी sincerity की पहचान - ज्ञान का पहचान, विवेक का पहचान, विज्ञान का पहचान - सर्वप्रथम परिवार में ही है। इससे बहुत बड़ा impetus यह आया - संबंधों में जीना हमारी प्राथमिक आवश्यकता बन जाती है।

संबंधों में जीने के लिए "विश्वास" ही एक मात्र आधार है। संबंधों में निर्वाह निरंतरता को बनाए रखना ही "निष्ठा" है। संबंधों के निर्वाह में मूल्यों का प्रकटन है - जैसे वात्सल्य, ममता, कृतज्ञता, गौरव, सम्मान, प्रेम, स्नेह, श्रद्धा, और विश्वास। इस प्रकार ९ मूल्य सभी संबंधों में प्रकट होने लग गए।

संबंधों में मूल्यों का प्रकटन ज्ञान की सर्वप्रथम उपलब्धि है।

इस तरह हर जगह मैं मूल्यों को निष्ठा पूर्वक निर्वाह करने के योग्य हो जाता हूँ। संबंधों को जब पहचानते हैं - तो संबंधों के साथ धोखाधड़ी नहीं होता। संबंधों को हम ठीक पहचानते नहीं हैं - तभी संबंधों में धोखाधड़ी होती है। मनुष्य जहाँ सम्बन्ध को सटीक नहीं पहचानता - वहीं सारा कुकर्म है। कितना सारा पोल खुल गया! यहाँ से पोल खुल जाता है। हर जगह संबंधों की पहचान के साथ जीना है, या धोखाधड़ी करते हुए ही जीना है? - आप तय करो! न्याय पूर्वक जीने का रास्ता बनाना है या नहीं? एक लोहार जैसा चोट हमारे सिर पर आता है।

इस बात पर संवाद नहीं कर सकते हैं - मैं नहीं कह रहा हूँ। आप ही decide करो, आप ही निर्णय लो! कोई जबरदस्ती नहीं है।

सत्य जी (Late Prof Yashpal Satya from IIT Delhi) ने जो जीवन विद्या के साथ experiment किया उसका यही result था - "जब संवाद का मुद्दा बनाते हैं, तो हर व्यक्ति सकारात्मक बात का पक्षधर हो जाता है।"

लेकिन सहमत होने भर से हम विद्वान हो गए - ऐसा कुछ नहीं है। सहमति के साथ निष्ठा जोड़ने पर - अध्ययन में लगने पर - विद्वान होना, समझदार होना बन जाता है। अध्ययन के द्वार तक आप पहुँच चुके हैं - अब उसके पार आपको पहुंचना है। अध्ययन के लिए जो प्रबंध हैं - वे आप के पास सूचना के रूप में हैं। परिभाषा विधि से शब्द द्वारा वस्तु की कल्पना होती है। अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में पहचान हुई - तो हम समझदार हुए।

जब अध्ययन कर लिया, तो अध्ययन करा सकने की स्थिति आती है। अध्ययन कराने का मतलब है - हम ज्ञान को जब अपने में प्रमाणित करते रहते हैं, तो दूसरे में उसकी आवश्यकता बन जाती है। जैसे - मैं विश्वास का निर्वाह करता हूँ, तो मेरी संतानों में विश्वास के निर्वाह करने की आवश्यकता बन जाती है। इस ढंग से सार्थक विधि को हम पकड़ लिए।

असामान्य विधि से व्यवस्था को पहचानने की कोई विधि नहीं है। सामान्य विधि से ही व्यवस्था में जीने से परस्परता में विश्वास होना स्वाभाविक हो जाता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

1 comment:

Gopal Bairwa said...

Very nice article. It provides the JV students an idea where to start applying JV in life.