मनुष्य अनुभव पूर्वक संज्ञानीयता के साथ जब जीने लगता है तो जितने भी निरर्थकताएं उसके सामने आते हैं, वे निरस्त हो जाते हैं, उनका प्रभाव नहीं हो पाता। यही भ्रांत-अभ्रांत है। अनुभव में दृष्टा-पद समाई रहती है। दृष्टा-पद विधि से इन सब निरर्थकताओं का निराकरण होता रहता है तथा व्यवहार विधि से जागृति प्रमाणित होती जाती है। प्रमाण का प्रभाव चारों तरफ फ़ैल जाता है। उससे मानव सुरक्षित हो जाता है। अनुभव का प्रभाव बढ़ता ही जाता है, घटता नहीं है। अंततोगत्वा अनुभव-प्रभाव ही जीने का वैभव है। आज की स्थिति में सारी मानव-जाति व्यर्थ की बातें करने में और सुविधा-संग्रह के लिए जान देने में लगे हैं। अब यहाँ प्रस्ताव है – उपयोगिता, सदुपयोगिता और प्रयोजनशीलता के पक्ष में जी-जान लगाया जाए। जिसमे अपराध-मुक्ति का रास्ता है।
सुविधा-संग्रह विधि से अपराध-मुक्ति के लिए कोई रास्ता, कोई द्वार, कोई खिड़की, कोई छेद ही नहीं है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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