जीवन देखता है। जीवन बुद्धि पूर्वक ही देखता है। बुद्धि यदि शामिल नहीं है तो जीवन द्वारा देखना बनता ही नहीं है। भ्रमित स्थिति में बुद्धि भ्रमित-चित्रणों को स्वीकारता नहीं है – बुद्धि की इस स्थिति का नाम ही ‘अहंकार’ है। बुद्धि केवल शाश्वत वस्तु को ही स्वीकारता है। अध्ययन पूर्वक अर्थ कल्पना में आता है, जिससे जीवन सह-अस्तित्व में तदाकार होता है – जिसको बुद्धि स्वीकारता है। फलस्वरूप अनुभव होता है। अनुभव पूर्वक प्रमाणित हो जाते हैं। दो टूक बात तो यही है।
प्रक्रिया के बाद ही कोई फल-परिणाम होता है। बिना प्रक्रिया के कोई फल-परिणाम होता नहीं है। सोच-विचार प्रक्रिया के द्वारा ही “निश्चयन” होता है। बिना सोच-विचार के कैसे निश्चयन होगा? अध्ययन प्रक्रिया के फल-स्वरूप ही अनुभव होता है।
शरीर को छोड़ देने के बाद भी जीवन बुद्धि पूर्वक देखता है, सुनता है। किन्तु शरीर छोड़ी हुई स्थिति में अर्थ को स्वीकारने का अधिकार नहीं होता है। प्रमाण के साथ ही स्वीकृति होती है। अर्थात मानव-परंपरा में जीते हुए ही जीवन में सच्चाई के लिए स्वीकृतियां बनती हैं।
सभी मानवों में जीवन समान बल और समान शक्ति के साथ है। उसका प्रयोग कैसे भी कर लो! यहाँ हमारी एक ज़ोरदार पैरवी है कि जीवन का न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक प्रयोग किया जाए। उसमे सब सहमत होते हैं। इस सहमति के आधार पर हमने मध्यस्थ-दर्शन के इस प्रस्ताव को रखा है।
- बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)
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