जीवन-ज्ञान के लिए आशा ही जिज्ञासा है. अध्ययन में मन लगता है तो अनुभव होता है. मन नहीं लगता है, तो पूरा ठीक से सुना भी या नहीं, यह भी कहा नहीं जा सकता. मानव सुनता है या यंत्र सुनता है? – इसका भी निर्णय होना आवश्यक है. हमारे सुनने से कल्याण होगा, या यंत्र के सुनने से कल्याण होगा? – इसका भी निर्णय होना आवश्यक है.
हम सुनते नहीं हैं, हमारा मन दूसरी चीजों में लगा रहता है – इसलिए समझ में नहीं आता है. मन एक साथ तीन दिशाओं में काम करता रहता है. जिस शब्द को सुना उस वस्तु के अर्थ के साथ यदि हमारी कल्पनाशीलता तदाकार होता है, तब सुना. नहीं तो क्या सुना?
प्रश्न: अध्ययन में मन कैसे लगे?
मन कहीं न कहीं लगा ही रहता है. अध्ययन यदि प्राथमिकता में आता है, तो अध्ययन में मन लगता है. समझने के लिए मन लगता है तो समझ में आता है. समझने के लिए मन नहीं लगता है, तो ऊट-पटाँग जगह लगा ही रहता है. अभी चाहे ज्ञानी हों, विज्ञानी हों, अज्ञानी हों – तीनो का मन सुविधा-संग्रह में ही लगा रहता है. उससे छूटे बिना समाधान-समृद्धि के लिए मन कैसे लगेगा? अभी जिस परंपरा में हम हैं, वह झूठ है – कितने लोग इस निर्णय पर पहुँच गए हैं? परंपरा ने जो झूठ दिया उसी का हम अभ्यासी हो गए हैं. जैसे, “आचरण पहले, विचार बाद में” - यह झूठ परंपरा में है. इस झूठ को पालने के लिए संसार में हज़ार उपाय हैं. दूसरा उदाहरण, “सबसे बलशाली को ही जीने का अधिकार है” - यह झूठ भी परंपरा में है.
हम जो चाहते हैं, उसमे हमारा मन लगता ही है. हम किसी वस्तु को चाहें और उसमे हमारा मन न लगे, ऐसा होता नहीं है. हमारे चाहना में ही आनाकानी है. आनाकानी है, क्योंकि हम दूसरी किन्ही चीजों में लगे रहते हैं. मन जिसको ज्यादा मूल्यवान माना रहता है, उसमे लगा रहता है.
प्रश्न: प्राथमिकता कैसे निश्चित होती है?
तुलन पूर्वक. यह बड़ी चीज है, या वह बड़ी चीज है – इसका तुलन.
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
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