ANNOUNCEMENTS



Saturday, April 16, 2011

आहार-विहार-व्यवहार

आहार-विहार-व्यवहार द्वारा मानव अपनी स्वस्थ-मानसिकता का प्रदर्शन करता है. आहार से आशय है – खान-पान, जैसे – शाकाहार-दुग्धपान या मांसाहार-मद्यपान. विहार से आशय है – रहन-सहन, जैसे – ओढना-पहनना, मनोरंजन, व्यायाम, खेल-कूद, घूमना आदि. व्यवहार से आशय है – मानव परस्परता में मूल्यों की पहचान और निर्वाह.

आहार-विहार-व्यवहार को लेकर सभी मानवों में एकरूपता होने की आवश्यकता है या नहीं है? यदि है, तो उस एकरूपता का क्या स्वरूप होगा?

आहार-विहार-व्यवहार की सुनिश्चयता के पश्चात ही मानवीय परंपरा की शुरुआत होता है. इससे पहले मानव समुदाय परंपरा में रहता है. अभी तक मानव समुदाय-चेतना या जीवचेतना में जिया है. इसलिए मानवों में आहार-विहार-व्यवहार की एकरूपता का कोई स्वरूप नहीं है. होना क्या चाहिए? – इस बारे में सोचा जा सकता है. इसको हर व्यक्ति सोच सकते है. हर व्यक्ति में सोचने का अधिकार समान रूप से कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता के रूप में रखा हुआ है.

विकल्प विधि से मानवचेतना पूर्वक आहार-विहार-व्यवहार का निश्चयन होता है. जीवचेतना में मानव का आहार-विहार-व्यवहार का स्वरूप सुनिश्चित होता ही नहीं है. जैसे – हाथी का आहार अलग है, बाघ का अलग है, गाय का अलग है, कुत्ते का अलग है. इसी तरह जीव-चेतना में जीते हुए मनुष्यों का आहार भी अलग-अलग होना स्वाभाविक हुआ. विहार और व्यवहार का स्वरूप भी जीवचेतना में जीते मानवों में अलग-अलग है.

आहार-विहार-व्यवहार की एकरूपता का स्वरूप ही समाज है. आहार-विहार-व्यवहार अलग-अलग रहते तक हम समाज कैसे बनाएंगे? “समाज” की परिकल्पना बहुत पहले से है. जीव-चेतना में जीते हुए मानव समुदाय से ऊपर उठ नहीं पाया. अभी समुदायों को ही समाज माने बैठे हैं. इन समुदायों में संघर्ष और युद्ध भावी हो गया.

संघर्ष और युद्ध को मोलते हुए आदमी सामाजिक कैसे हो पायेगा? अभी तक तो नहीं हुआ. हमको तो नहीं लगता कि संघर्ष और युद्ध के चलते आदमी सामाजिक हो सकता है. पैसे के लिए ही युद्ध होता है. पैसे के लिए ही संघर्ष होता है. पैसे को खा कर किसी का पेट नहीं भरता, फिर भी पैसे पर सभी ज्ञानी, विज्ञानी, अज्ञानी लटटू हैं! पैसे से वस्तु मिलता है, यह सोच कर पैसे पर लटटू हैं. वस्तु मिलना बंद हो गया तो पैसे का क्या करेंगे? हम १० व्यक्तियों में से कोई भी उत्पादन नहीं करे, और दसों के पास भी पैसे हों तो उनको वस्तु कहाँ से मिलेगा? जितना पैसे में पहले वस्तु मिलता था, आज उससे ज्यादा पैसे में मिलता है. तृप्ति वस्तु से ही है, पैसे से तृप्ति मिलती नहीं है. पैसा क्या है? – नोट. नोट क्या है - छापाखाना. छापाखाना क्या है – कागज़. एक माचिस की तीली से कितना भी ढेर कागज़ का हो, राख का ढेर बन जाता है.

यदि यह समझ आता है तो “सुधार” की आवश्यकता स्वीकार होती है. क्या सुधार होना है? जीवचेतना से मानवचेतना में संक्रमित होना है. समझदारी से समाधान और श्रम से समृद्धि को सिद्ध करना है. समझदारी से समाधान होता है, तो श्रम से समृद्धि का रास्ता बनता है. समाधान-समृद्धि पूर्वक ही लफ्फाजी समाप्त होता है, संघर्ष समाप्त होता है, युद्ध समाप्त होता है, शोषण समाप्त होता है. अभी तक आयी दोनों विचारधाराओं – आदर्शवाद और भौतिकवाद – दोनों से व्यक्तिवाद और समुदायवाद ही होता है. आदर्शवादी देवासुर संग्राम की दुहाई देते हैं, भौतिकवादी मानवों के बीच संग्राम की दुहाई देते हैं. इन दोनों विचारधाराओं के तले दबे हुए सभी मानवों में इस “सुधार” की अपेक्षा और आवश्यकता बनी हुई है. “सुधार” के स्वरूप में मानव-चेतना, देवचेतना, दिव्यचेतना को प्रस्तावित किया है. इसका नाम दिया है – “चेतना विकास”. चेतना-विकास के साथ ही है – “मूल्य शिक्षा”.

- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से

No comments: