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Monday, April 18, 2011

अनुभव

आज मकर-संक्रांति का दिन है. ऐसे शुभ वेला में आप हम सब मिले हैं. यह संयोग और निष्ठा की बात है. संयोग तो रहा ही. निष्ठा होने से हम यहाँ मिले. मिलने में आशय यही है – अनुभव कैसे हो? अभी यहाँ सर्वाधिक लोगों में अनुभव का ही लक्ष्य है. आदर्शवादी विधि से अब तक माना गया था कि अनुभव असाध्य है, और किसी बिरले को ही अनुभव उपलब्ध होगा. अभी विकल्प विधि से हम शुरू किये हैं कि – “सबको अनुभव होगा. अनुभव कर सकने का अधिकार सबके पास है” यहाँ जितने भी लोग बैठे हैं, वे सभी पठन का अधिकार रखते हैं, या पठन-शील हैं. उनमे से कुछ अध्ययन-शील हैं. अनुभव-शील व्यक्ति उससे और कम हैं.

शब्दों का पठन करते हैं. शब्दों का निश्चित अर्थ होता है. उस निश्चित अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है. वस्तु के साथ हमारा मन तदाकार होता है और उसको सत्य मानना बनता है – तो हम अध्ययन किये, नहीं तो हम अध्ययन किये नहीं हैं, पठन भर किये हैं. अनुभव होना उसके आगे ही है. पठन भर से चेतना-विकास होता नहीं है. हम मान भले ही लें कि हमारा चेतना-विकास हो गया है, पर चेतना-विकास हुआ नहीं रहता है.

चेतना विकास का मतलब है – मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना में जी पाना. मानव-चेतना पूर्वक सर्व-मानव के व्यवस्था का स्वरूप समझ में आता है. इससे स्पष्ट होता है – “मानव-जाति एक है” और “मानव-धर्म एक है”. इन दोनों बातों के साथ मानव स्वाभाविक रूप में अन्य मानवों के साथ विश्वास करने योग्य होता है.

पठन के बाद, अस्तित्व में वस्तु के साथ मन तदाकार होता है, और उसको सत्य “मानना” बनता है – तो हम अध्ययन में सफल हुए. अनुभव होना इसके एक कदम आगे है – किन्तु इतने से सत्य को “मानना” बन जाता है. इस तरह सत्य को “मान” कर हम मानव-चेतना में जीना शुरू करते हैं. इस तरह हम सर्व-मानव के साथ व्यवस्था में जीने के स्वरूप के बारे में स्पष्ट होते हैं. इसी के साथ मानव का मानव के साथ विश्वास करना बनता है.

अभी तक मानव का मानव के साथ विश्वास करना नहीं बना था. विश्वास के न होने से ही सभी अवैध बातों को वैध मान लिया. इसी कारण वश धरती बीमार हो गयी, अपराध प्रवृत्ति बढ़ गयी, प्रदूषण छा गया, अपने-पराये की दूरियां बढ़ गयी. हमने तो मजा मार लिया – आगे पीढ़ी को क्या दिया? आगे पीढ़ी के लिए क्या छोड़ कर जा रहे हैं? यह सोचने पर अपने में एक स्तंभित होने की स्थिति बनती है. इस स्थिति को ठीक से देखने पर यही निकलता है – हमको ऐसा नहीं करना चाहिए था. अब क्या करें? अब तो अपराध करना बंद करें! अपराध को छोड़ने के पक्ष में हम काम शुरू कर देते हैं. अपराध-मुक्ति का पहला प्रमाण समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना ही है. समाधान का क्या कोई विरोध भी होता है?

“समाधान चाहिए या समस्या चाहिए?” – हमारे यह पूछने पर उत्तर में सभी कहते हैं, “समाधान चाहिए”. “समस्या के बिना समाधान कहाँ होगा?” – यह भी एक बार चर्चा में आया था. उनसे हमने पूछा – “समाधान की निरंतरता चाहिए या समस्या की निरंतरता चाहिए?” इसके उत्तर में निकला – “समाधान की निरंतरता चाहिए”. फिर पूछा – “समाधान की निरंतरता होने पर समस्या कहाँ रहेगा?” यदि प्रकाश की निरंतरता हो गयी तो उसके बाद अन्धकार कहाँ रहेगा? सच्चाई की निरंतरता हो गयी तो झूठ का कहाँ स्थान रहेगा? सुख की निरंतरता हो गयी तो दुःख का स्थान कहाँ रहेगा? यह सब बात हो चुकी है. कुल मिला कर, विश्वास पूर्वक जीने के लिए आवश्यक है – सकारात्मकता के लिए अपनी प्रवृत्ति को लगाया जाए. नकारात्मक भाग में अपनी प्रवृत्ति को न लगाया जाए.

मानव के पास यह दोनों (सकारात्मक और नकारात्मक) के लिए अवकाश है. सकारात्मकता को चाहता है, नकारात्मकता के पक्ष में हो जाता है. अभी तक ऐसा ही है. शिक्षा ऐसा ही है. व्यवस्था ऐसा ही है. संविधान ऐसा ही है. जैसे – अहिंसा को चाहते हैं, पर हिंसा किये बिना दंड-संहिता होता नहीं है. दंड-सहित में यंत्रणा को कितने विधियों से दिया जा सकता है – यही लिखा है. भारत में व्यास जी ने दंड-नीति को लिखा, उससे पहले मनु-धर्म शास्त्र में प्रायश्चित्त का जिक्र है. अपराध को पहचानने के लिए “अपराध-शाखा” खोला है. अपराध-शाखा का यह मानना है – हर व्यक्ति प्रकारांतर से अपराधी है. लाभोंमादी, कामोंमादी, भोगोंमादी शिक्षा में अपराध के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता. इस तरह कहाँ पहुंचेगे? इस तरह मानव के “सही स्वरूप” को कैसे पाया जाए? यह सोचने का मुद्दा बनता है या नहीं?

इससे निकलने का सूत्र दिया – मानव पहले अपने में विश्वास संपन्न हों. उसके लिए विकल्प स्वरूप में प्रस्तुत मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना का अध्ययन करें. शब्द से इंगित वस्तु के साथ हमारा मन तदाकार हुआ तो हमने यह अध्ययन किया. तदाकार होने पर हमको अपने में विश्वास होता है. विश्वास के साथ जीने में अभिव्यक्त होते हैं तो अनुभव होता है. अनुसंधान विधि में मैंने पहले अनुभव किया, बाद में अभिव्यक्त करना शुरू किया. अध्ययन विधि में अभिव्यक्ति के साथ अनुभव होता है.

विगत में बतायी गयी ध्यान विधियों से थोड़ी देर के लिए हमारा मन अपनी प्रवृत्तियों से चुप होता है, उसको हम “शान्ति” मान लेते हैं. जबकि परिवार में समाधान-समृद्धि पूर्वक हम जी पाते हैं, और उसकी निरंतरता होती है – तब शान्ति होती है. उसके पहले शान्ति मिलता नहीं है.

जब सारे मानव समाधान-समृद्धि पूर्वक जी पाते हैं – तब अभयता होती है. कुछ लोग अपराध करें, कुछ न करें – उसमे अभयता कहाँ हुआ? सर्व-मानव के जागृत होने पर अभयता प्रमाणित होता है. इसके लिए जो प्रबुद्ध कहलाते हैं, समझदार कहलाते हैं – उन्ही को भागीदारी करने के लिए, मदद करने के लिए आगे आना होगा. इस बात का प्रमाण मैं स्वयं हूँ. अनुसन्धान विधि से मैं समझा, और फिर अनुभव-मूलक विधि से समझाना शुरू किया. इस बात के लोकव्यापीकरण क्रम में पहले ऐसा लगता था – सुनने-समझने वाले कम हैं, समझाने वाले ज्यादा हैं. आज की स्थिति में ऐसा लगता है – समझाने वाले कम हैं, सुनने-समझने वाले ज्यादा हैं. इससे पता चलता है – सर्वाधिक लोगों में सुख के प्रति, समाधान के प्रति, प्रामाणिकता के प्रति, ईमानदारी के प्रति सहमति बनी हुई है.

“मानव जीव-चेतना वश ही सारा अपराध किया है. मानव-चेतना के साथ सारा न्याय ही करेगा.” ऐसा मान करके यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया है. मानव-चेतना विधि में स्त्रोत को बनाए रखते हुए अपनी निश्चित आवश्यकताओं के अर्थ में उत्पादन करने की बात होती है. जीव-चेतना में सुविधा-संग्रह लक्ष्य के लिए, स्त्रोत को उजाड़ते हुए, अनिश्चित आवश्यकताओं के लिए उत्पादन करना बनता है. यदि समाधान-समृद्धि लक्ष्य स्वीकार होता है, और उसके लिए प्रयास करना बनता है, तो जीव-चेतना से हम मुक्ति पा सकते हैं. समाधान-समृद्धि की जगह यदि सुविधा-संग्रह लक्ष्य को रखते हैं तो जीव-चेतना को छोड़ नहीं पाते हैं. इसको हर व्यक्ति अपने में मूल्यांकन करेगा. इस मूल्यांकन को दूसरा कोई नहीं करेगा. इससे पहले भक्ति-विरक्ति पूर्वक जीने का प्रस्ताव रहस्य में फंस गया. रहस्य से ज्यादा सुलभ सुविधा-संग्रह को मानव ने माना – इसीलिये उसमे लग गए. कुल मिला कर जीव-चेतना में जीने से मानव-परंपरा का सोच-विचार ही गलत हो गया है, उसको सुधारने की आवश्यकता है. जीव-चेतना में जीने से सारी गलतियों को सही मान बैठा है. यहाँ से छूटने के लिए मार्ग है – मानव-चेतना में जिए! मानव-चेतना में जीने से स्वयं में विश्वास होता है. जीव-चेतना में जीने से स्वयं में विश्वास होता नहीं है, दूसरों पर विश्वास होता नहीं है. ऐसे में मानव पतंगे जैसे हिलता ही रहता है.

“मानव का अध्ययन” न आदर्शवाद से हुआ, न भौतिकवाद से हुआ. आदर्शवाद मनोकामना पूरी होने की बात कहा है, ज्ञान होने की बात कहा है, मोक्ष होने की बात कहा है. उसके लिए वेद-विचार की बात मानने को कहा है. आदर्शवाद में भक्ति-विरक्ति लक्ष्य के साथ जीने की बात है. ईश्वर को रिझाना भक्ति है – ऐसा बताया. उसके बाद भौतिकवाद ने वेद-विचार को दर-किनार करके लाभोंमादी, कामोंमादी, भोगोंमादी शिक्षा दिया. भौतिकवाद में सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ जीने की बात है. सामरिक-तंत्रों को बढा दिया, उनको सीमा-सुरक्षा के लिए लगा कर वहाँ सकल कुकर्मो को करने की अनुमति दिया. अब इस लाभोन्माद, कामोन्माद, भोगोन्माद, और सीमा-सुरक्षा से कैसे निकलें? इसमें मानव की चाहत से ही निकलना होगा. अनियंत्रित संवेदनाओं मे उड़ना चाहिए, या संवेदनाएं नियंत्रित रहनी चाहिए? इसके उत्तर में सभी जगह से यही आवाज आता है – संवेदनाएं नियंत्रित रहना चाहिए. संवेदनाएं नियंत्रित रहने की स्थिति में लाभोन्माद कहाँ टिकेगा? कामोन्माद कहाँ टिकेगा? भोगोन्माद कहाँ टिकेगा? अनियंत्रित संवेदनाओं में बहने से तृप्ति-बिंदु कहाँ मिलेगा? अब मानव को निर्णय करना है – भक्ति-विरक्ति लक्ष्य के साथ जीना है, सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ जीना है, या समाधान-समृद्धि लक्ष्य के साथ जीना है? यह स्वयं में शोध करने, निर्णय लेने, और प्रमाणित करने की बात है. प्रमाणित होने के क्रम में अपने प्रतिरूप में संसार को बसाना.



- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से

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