प्रश्न: अनुभव के लिए हमारे प्रयासों में और क्या पैनापन लाया जाए?
उत्तर: अनुभव के लिए एक ही विधि है – वह है अध्ययन। अध्ययन में पारंगत होना ही एक मात्र रास्ता है. पूरा समझना ही एक मात्र रास्ता है। अध्ययन के लिए आपको बताया है - शब्द का अर्थ होता है, अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। वस्तु के साथ हमारा कल्पनाशीलता तदाकार होने पर अध्ययन हुआ। तदाकार होने के बाद वह छूटता नहीं है, हमारा स्वत्व हो जाता है, उसको प्रकट करने के क्रम में अनुभव हो जाता है। अध्ययन विधि में प्रकट होने के क्रम में अनुभव होता है।
अनुसन्धान विधि में पहले अनुभव होता है, उसके बाद हम प्रकट होते हैं। ज्ञान-संपन्न होने की बात अध्ययन विधि से पूरा हो जाता है। अनुसन्धान एक अनिश्चित विधि है. सब कोई अनुसन्धान कर नहीं पायेंगे।
ज्ञान के साथ ही हम आहार, विहार, और व्यवहार में संयत हो पाते हैं। उससे पहले कोई संयत नहीं होगा. ज्ञान के रूप में, विचार के रूप में, और आचरण के रूप में यह प्रस्ताव पूरा पड़ता है या नहीं – आप बताइये। सभी मोड मुद्दे पर समाधान संपन्न होना अनुभव के बाद ही बनता है। उसके लिए जीने में (व्यवहार और कर्म) अभ्यास है। अभ्यास के साथ अभिव्यक्ति को जोड़ा है. अभिव्यक्ति क्रम में ही पता चलता है – हम पूरा हुए या नहीं हुए। अध्ययन विधि में सच्चाई के अभिव्यक्ति, सम्प्रेश्ना, प्रकाशन में हम यदि पूरा पड़ते हैं, तो अनुभव तक पहुँचते हैं। अध्ययन से हमको समझना है. जो समझे हैं, उसकी अभिव्यक्ति होते-होते एक दिन पूरा होने की स्थिति तक पहुँचते हैं। संबोधन में जो अभिव्यक्त किया वह अध्ययन के अनुरूप रहा या नहीं रहा – इसका मूल्यांकन करना। इस तरह, अभिव्यक्ति और अध्ययन के संयोग से हम संसार के साथ पूरा पड़ पायेंगे। केवल अभिव्यक्ति करते रहेंगे, अध्ययन नहीं करेंगे – उससे भी हम पूरा नहीं पड़ेंगे। केवल अध्ययन करते रहेंगे, अभिव्यक्ति नहीं करेंगे – उससे भी हम पूरा नहीं पड़ेंगे। यह दोनों एक साथ हैं।
अध्ययन और अभिव्यक्ति के संयोग से समाधान होता है – जिससे संतुष्टि मिलता है। यही अनुभव तक पहुँचने की विधि है। हम अपने ढंग से चल कर अनुभव तक पहुँच जायेंगे – ऐसा होता नहीं है। अध्ययन और अभिव्यक्ति के संयोग से समाधान होता है। इस तरह समाधान हमको होना है या हमे सुनने वाले को होना है? इसको भी सोचा जाए. समाधान पहले हमको होना है। फिर हमको सुनने वाले को यदि समाधान होता है, तो हमारा समाधानित होना प्रमाणित हो गया। उसके पहले क्या प्रमाण हुआ?
सैंकडो वर्षों से उपदेश विधि से चल कर के हम थोडा भी सुधार तक पहुंचे नहीं हैं, टस से मस नहीं हुए, भ्रम यथावत बना रहा। अब अध्ययन-विधि से स्वयं में बदलाव होता है या नहीं, इसको पहले देखो। अपने स्वयं को सुधार के लिए शामिल किये बिना हम पूरा हो जायेंगे – ऐसा कोई वादा इस विधि से होता नहीं है। “स्व-कृपा” पूर्णता के लिए आवश्यक है। पहले ऐसा सोचा गया था – कोई एक आदमी अच्छा हो जाए, तो उसको देख कर बाकी सब अपने आप अच्छे हो जायेंगे। पर ऐसा हुआ नहीं. “अच्छे लोग” तो हुए हैं। पर “अच्छे लोगों” का अनुकरण हुआ, ऐसा नहीं है।
“सभी समझ सकते हैं” – यहाँ से इस प्रस्ताव की शुरुआत है. अभी तक मानव-इतिहास में ऐसा नहीं था. कोई व्यक्ति यदि समझ गया तो उसको प्रणाम करने से, उसकी सेवा करने से बाकी लोग तर जायेंगे – ऐसा माना गया था. सभी मानव सामरस्यता पूर्वक कैसे जी सकते हैं – यह स्वरूप समझ आने से हमारे “जीने” की शुरुआत होती है. सभी मानवों के सामरस्यता पूर्वक जीने का स्वरूप बना – समाधान-समृद्धि. “समझदारी से समाधान, श्रम से समृद्धि”. समझदारी के लिए पाँच सूत्रों का प्रस्ताव रखा है – सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, सह-अस्तित्व में विकास, सह-अस्तित्व में जागृति क्रम, सह-अस्तित्व में जागृति.
आदर्शवाद में कहा गया – आचरण पहले, विचार बाद में. यहाँ कह रहे हैं – विचार पहले, आचरण बाद में. इसी लिए इस प्रस्ताव को “विकल्प” कहा है. बिना विचार के कोई आचरण होता नहीं है.
वेद-विचार संसार में कुकर्मो को रोकने में समर्थ नहीं रहा. इसके बाद आये भौतिकवादी विचार से कुकर्म सर्वाधिक हुआ.
इसलिए मध्यस्थ-दर्शन के इस प्रस्ताव को इन दोनों के विकल्प स्वरूप में प्रस्तुत किया. इससे निकला – हर मानव स्वेच्छा से समझदार हो सकते हैं. हर मानव किसी आयु के बाद अपने को समझदार मान ही लेता है.
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
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