सभी मोड-मुद्दे पर समाधान संपन्न होना अनुभव के बाद ही बनता है. उसके लिए जीने में (व्यवहार और कर्म) अभ्यास है. अभ्यास दो ही भागों में है – समाधान के लिए और समृद्धि के लिए. अभ्यास के साथ अभिव्यक्ति को जोड़ा है. अभिव्यक्ति क्रम में ही पता चलता है – हम पूरा हुए या नहीं हुए. अध्ययन विधि में सच्चाई के अभिव्यक्ति, सम्प्रेश्ना, प्रकाशन में हम यदि पूरा पड़ते हैं, तो अनुभव तक पहुँचते हैं.
अभिव्यक्ति है – सर्वतोमुखी समाधान को प्रमाणित करना. जैसे मुझे संसार में कोई समस्या दिखता ही नहीं है. केवल अपने समाधान को प्रमाणित करने की बात है – दूसरों को अपने जैसा बना कर.
सम्प्रेषणा है – पूर्णता के अर्थ में प्रेषित करना. पूर्णता है – गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता. मानव ही पूर्णता को व्यक्त कर सकता है. जीव, वनस्पति, मिट्टी-पत्थर पूर्णता को संप्रेषित नहीं कर सकता.
“जीना” प्रकाशन है. फिर “जीने दे कर जीना” का प्रकाशन है. “जीने देकर जीना” ही “जीने” का प्रमाण है. दूसरे मानव को अपने जैसा समझदार बना देना ही “जीने देना” है. (मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ) स्त्रोत को बनाए रखते हुए उसका उपयोग-सदुपयोग करना (उत्पादन करना या ऊर्जा प्राप्त करना) ही “जीने देना” है.
“मैं समझ सकता हूँ, जी सकता हूँ” – यह पहला घाट है. “मैं समझा सकता हूँ, जीने दे कर जी सकता हूँ” – यह दूसरा घाट है. जीने दिए बिना परंपरा कहाँ से होगा? हमारी संतान को हम जीने न दें – तो परंपरा कैसे होगा?
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
No comments:
Post a Comment