भाषा को बदलना विद्वता नहीं है। जो आपने सुना उसको दूसरे शब्दों में बदल दिया तो आप समझे कहाँ? जो मैंने कहा, उसको आपने बदल दिया – वहाँ भ्रान्ति होता ही है। बदली हुई भाषा से वह अर्थ इंगित ही नहीं होता है, तो भ्रान्ति के अलावा क्या होगा? मूल शब्द का छूटने को ही विद्वता मान लिया। जैसा भाषा है, उसको सुना जाए, उससे जो अर्थ इंगित है, उसको अपनाया जाए। इसमें किसको क्या तकलीफ है?
- बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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