आदर्शवाद में “भक्ति” को लेकर कहा गया – ईश्वर को रिझाने के अर्थ में भजन और सेवा करना भक्ति है। ईश्वर रहस्यमय रहे आया. यहाँ मानव-संचेतना वादी मनोविज्ञान में कहा गया – मानव-संबंधों में मूल्यों को प्रमाणित करना भक्ति है। अब इन दोनों में से क्या चाहिए? – आप ही निर्णय कीजिये।
- अनुभव-शिविर जनवरी २०११ – अमरकंटक में बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन पर आधारित
This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
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Tuesday, April 19, 2011
अनुभव के लिए अड़चन
हर व्यक्ति अपने तरह से जीना शुरू करता है। जीव-चेतना में सुविधा-संग्रह पूर्वक जीना शुरू करता है। उसको वह त्यागना नहीं चाहता है। सूक्ष्म रूप में देखें तो इतना ही अड़चन है। और कुछ भी नहीं है। इसी में देरी लगती है। जबकि समाधान-समृद्धि में सुविधा-संग्रह दोनों विलय होता है - इस बात में विश्वास नहीं कर पाता है। समाधान-समृद्धि गुरु-मूल्य है। सुविधा-संग्रह लघु-मूल्य है। गुरु-मूल्य में लघु-मूल्य विलय होता है।
अनुभव है – अनुक्रम से स्वीकृति, और अनुक्रम से अभिव्यक्ति। अनुक्रम है – विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति. सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान में मैं पारंगत हूँ और प्रमाणित हूँ – यही अनुभव है।
- अनुभव-शिविर जनवरी २०११ – अमरकंटक में बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन पर आधारित
अनुभव है – अनुक्रम से स्वीकृति, और अनुक्रम से अभिव्यक्ति। अनुक्रम है – विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति. सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान में मैं पारंगत हूँ और प्रमाणित हूँ – यही अनुभव है।
- अनुभव-शिविर जनवरी २०११ – अमरकंटक में बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन पर आधारित
मानव-चेतना
“मानव-चेतना” एक शब्द है। इस शब्द का अर्थ है – ज्ञान। ज्ञान रासायनिक-भौतिक वस्तु नहीं है। जड़-चैतन्य वस्तु सत्ता में संपृक्त है. सत्ता व्यापक वस्तु है, जिसमे भीगे रहने से जड़-प्रकृति ऊर्जा-संपन्न है, और चैतन्य-प्रकृति ज्ञान-सम्पन्न है। जड़-प्रकृति की चुम्बकीय-बल सम्पन्नता और क्रियाशीलता (पहचानने-निर्वाह करने के रूप में) उसकी ऊर्जा-सम्पन्नता वश है। चैतन्य-प्रकृति की क्रियाशीलता (जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने के रूप में) उसकी ज्ञान-सम्पन्नता वश है। जानने-मानने और पहचानने-निर्वाह करने की बात सभी मानवों में है। एक ही बात का उपदेश दिया है – “जो मानते हो, उसको जान लो और जो जानते हो, उसको मान लो”।
चेतना के चार स्तर हैं – जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। इसमें से जीव-चेतना मानव के लिए अविकसित चेतना है। मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना विकसित चेतना है। मानव-चेतना में जीने से मानव उपकारी होता है। उपकारी होने का मतलब – स्वयं में विश्वास, सर्व-मानव में विश्वास, और मनुष्येत्तर प्रकृति में विश्वास। इस प्रकार मानव-चेतना में मानव मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम-नियंत्रण-संतुलन पूर्वक और मानव के साथ न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक जी पाता है। यही जीने देना, जीना है। अब मानव को सोचना होगा – मानव-चेतना में जीना है, या जीव-चेतना में जीना है? पहले स्वयं मानव-चेतना में जीने का अभ्यास करना, फिर शिक्षा के लिए प्रयत्न करना, फिर अखंड-समाज के लिए प्रयत्न करना, फिर सार्वभौम व्यवस्था के लिए प्रयत्न करना। ऐसा एक से जुडी दूसरी श्रंखला है। स्वयं जिए बिना पहले हम सार्वभौम-व्यवस्था को स्थापित नहीं कर सकते। पहले हमको स्वयं जीना पड़ेगा। हम स्वयं कुछ भी करते रहें और सार्वभौम-व्यवस्था बन जाए – यह हो नहीं सकता।
- अनुभव-शिविर जनवरी २०११ – अमरकंटक में बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन पर आधारित
चेतना के चार स्तर हैं – जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। इसमें से जीव-चेतना मानव के लिए अविकसित चेतना है। मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना विकसित चेतना है। मानव-चेतना में जीने से मानव उपकारी होता है। उपकारी होने का मतलब – स्वयं में विश्वास, सर्व-मानव में विश्वास, और मनुष्येत्तर प्रकृति में विश्वास। इस प्रकार मानव-चेतना में मानव मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम-नियंत्रण-संतुलन पूर्वक और मानव के साथ न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक जी पाता है। यही जीने देना, जीना है। अब मानव को सोचना होगा – मानव-चेतना में जीना है, या जीव-चेतना में जीना है? पहले स्वयं मानव-चेतना में जीने का अभ्यास करना, फिर शिक्षा के लिए प्रयत्न करना, फिर अखंड-समाज के लिए प्रयत्न करना, फिर सार्वभौम व्यवस्था के लिए प्रयत्न करना। ऐसा एक से जुडी दूसरी श्रंखला है। स्वयं जिए बिना पहले हम सार्वभौम-व्यवस्था को स्थापित नहीं कर सकते। पहले हमको स्वयं जीना पड़ेगा। हम स्वयं कुछ भी करते रहें और सार्वभौम-व्यवस्था बन जाए – यह हो नहीं सकता।
- अनुभव-शिविर जनवरी २०११ – अमरकंटक में बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन पर आधारित
विश्वास
स्वयं में विश्वास न होने का प्रमाण है, हमारा अपने ही संतान पर विश्वास न हो पाना। अपनी संतान पर विश्वास होने के बाद ही गाँव-मोहल्ले में अन्य लोगों के साथ विश्वास करना बनेगा, फिर सम्पूर्ण धरती के साथ विश्वास करना बनेगा। विश्वास होना चाहिए या नहीं होना चाहिए? विश्वास फैलना चाहिए या नहीं फैलना चाहिए? भौतिकवाद के अनुसार “विश्वास” कोई वास्तविकता नहीं है, केवल काल्पनिक बात है। जबकि यहाँ कहा गया है – कल्पनाशीलता हर मानव के पास एक ऐसी पूंजी है, जिसके आधार पर सच्चाई के साथ तदाकार होने की बात होती है। कल्पनाशीलता ही तदाकार होता है। हमारी कल्पनाशीलता सच्चाई के साथ तदाकार होने पर हम विश्वास करेंगे या नहीं करेंगे? मानव ने पत्थर, मिट्टी, मणि, धातु, वनस्पतियों, और जीवों पर विश्वास किया है। मानव का मानव के साथ विश्वास करना लेकिन बन नहीं पाया है। पति पत्नी के साथ और पत्नी पति के साथ विश्वास नहीं करे, तो वे जियेंगे कैसे? माता-पिता अपने बच्चों के साथ और बच्चे अपने माता-पिता के साथ विश्वास नहीं करें, तो वे जियेंगे कैसे? मानव का अध्ययन ही नहीं हुआ – तो मानव पर विश्वास कैसे करना होगा? मानव का अध्ययन न भौतिकवाद से हुआ न आदर्शवाद से हुआ। दोनों ने आदमी को जीव ही कहा। इन दोनों वादों के चलते यह धरती ही बीमार हो गयी। तब यह मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद का विकल्पात्मक प्रस्ताव आया है – जिससे स्पष्ट हुआ, मानव चेतना में जीने से स्वयं में विश्वास होता है, सम्पूर्ण अस्तित्व में विश्वास होता है, स्वयं के आचरण में विश्वास होता है, शिक्षा में विश्वास होता है। शिक्षा में मानव-चेतना आने पर शिक्षा में विश्वास होता है।
- अनुभव-शिविर जनवरी २०११ – अमरकंटक में बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन पर आधारित
- अनुभव-शिविर जनवरी २०११ – अमरकंटक में बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन पर आधारित
Monday, April 18, 2011
अनुभव
आज मकर-संक्रांति का दिन है. ऐसे शुभ वेला में आप हम सब मिले हैं. यह संयोग और निष्ठा की बात है. संयोग तो रहा ही. निष्ठा होने से हम यहाँ मिले. मिलने में आशय यही है – अनुभव कैसे हो? अभी यहाँ सर्वाधिक लोगों में अनुभव का ही लक्ष्य है. आदर्शवादी विधि से अब तक माना गया था कि अनुभव असाध्य है, और किसी बिरले को ही अनुभव उपलब्ध होगा. अभी विकल्प विधि से हम शुरू किये हैं कि – “सबको अनुभव होगा. अनुभव कर सकने का अधिकार सबके पास है” यहाँ जितने भी लोग बैठे हैं, वे सभी पठन का अधिकार रखते हैं, या पठन-शील हैं. उनमे से कुछ अध्ययन-शील हैं. अनुभव-शील व्यक्ति उससे और कम हैं.
शब्दों का पठन करते हैं. शब्दों का निश्चित अर्थ होता है. उस निश्चित अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है. वस्तु के साथ हमारा मन तदाकार होता है और उसको सत्य मानना बनता है – तो हम अध्ययन किये, नहीं तो हम अध्ययन किये नहीं हैं, पठन भर किये हैं. अनुभव होना उसके आगे ही है. पठन भर से चेतना-विकास होता नहीं है. हम मान भले ही लें कि हमारा चेतना-विकास हो गया है, पर चेतना-विकास हुआ नहीं रहता है.
चेतना विकास का मतलब है – मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना में जी पाना. मानव-चेतना पूर्वक सर्व-मानव के व्यवस्था का स्वरूप समझ में आता है. इससे स्पष्ट होता है – “मानव-जाति एक है” और “मानव-धर्म एक है”. इन दोनों बातों के साथ मानव स्वाभाविक रूप में अन्य मानवों के साथ विश्वास करने योग्य होता है.
पठन के बाद, अस्तित्व में वस्तु के साथ मन तदाकार होता है, और उसको सत्य “मानना” बनता है – तो हम अध्ययन में सफल हुए. अनुभव होना इसके एक कदम आगे है – किन्तु इतने से सत्य को “मानना” बन जाता है. इस तरह सत्य को “मान” कर हम मानव-चेतना में जीना शुरू करते हैं. इस तरह हम सर्व-मानव के साथ व्यवस्था में जीने के स्वरूप के बारे में स्पष्ट होते हैं. इसी के साथ मानव का मानव के साथ विश्वास करना बनता है.
अभी तक मानव का मानव के साथ विश्वास करना नहीं बना था. विश्वास के न होने से ही सभी अवैध बातों को वैध मान लिया. इसी कारण वश धरती बीमार हो गयी, अपराध प्रवृत्ति बढ़ गयी, प्रदूषण छा गया, अपने-पराये की दूरियां बढ़ गयी. हमने तो मजा मार लिया – आगे पीढ़ी को क्या दिया? आगे पीढ़ी के लिए क्या छोड़ कर जा रहे हैं? यह सोचने पर अपने में एक स्तंभित होने की स्थिति बनती है. इस स्थिति को ठीक से देखने पर यही निकलता है – हमको ऐसा नहीं करना चाहिए था. अब क्या करें? अब तो अपराध करना बंद करें! अपराध को छोड़ने के पक्ष में हम काम शुरू कर देते हैं. अपराध-मुक्ति का पहला प्रमाण समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना ही है. समाधान का क्या कोई विरोध भी होता है?
“समाधान चाहिए या समस्या चाहिए?” – हमारे यह पूछने पर उत्तर में सभी कहते हैं, “समाधान चाहिए”. “समस्या के बिना समाधान कहाँ होगा?” – यह भी एक बार चर्चा में आया था. उनसे हमने पूछा – “समाधान की निरंतरता चाहिए या समस्या की निरंतरता चाहिए?” इसके उत्तर में निकला – “समाधान की निरंतरता चाहिए”. फिर पूछा – “समाधान की निरंतरता होने पर समस्या कहाँ रहेगा?” यदि प्रकाश की निरंतरता हो गयी तो उसके बाद अन्धकार कहाँ रहेगा? सच्चाई की निरंतरता हो गयी तो झूठ का कहाँ स्थान रहेगा? सुख की निरंतरता हो गयी तो दुःख का स्थान कहाँ रहेगा? यह सब बात हो चुकी है. कुल मिला कर, विश्वास पूर्वक जीने के लिए आवश्यक है – सकारात्मकता के लिए अपनी प्रवृत्ति को लगाया जाए. नकारात्मक भाग में अपनी प्रवृत्ति को न लगाया जाए.
मानव के पास यह दोनों (सकारात्मक और नकारात्मक) के लिए अवकाश है. सकारात्मकता को चाहता है, नकारात्मकता के पक्ष में हो जाता है. अभी तक ऐसा ही है. शिक्षा ऐसा ही है. व्यवस्था ऐसा ही है. संविधान ऐसा ही है. जैसे – अहिंसा को चाहते हैं, पर हिंसा किये बिना दंड-संहिता होता नहीं है. दंड-सहित में यंत्रणा को कितने विधियों से दिया जा सकता है – यही लिखा है. भारत में व्यास जी ने दंड-नीति को लिखा, उससे पहले मनु-धर्म शास्त्र में प्रायश्चित्त का जिक्र है. अपराध को पहचानने के लिए “अपराध-शाखा” खोला है. अपराध-शाखा का यह मानना है – हर व्यक्ति प्रकारांतर से अपराधी है. लाभोंमादी, कामोंमादी, भोगोंमादी शिक्षा में अपराध के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता. इस तरह कहाँ पहुंचेगे? इस तरह मानव के “सही स्वरूप” को कैसे पाया जाए? यह सोचने का मुद्दा बनता है या नहीं?
इससे निकलने का सूत्र दिया – मानव पहले अपने में विश्वास संपन्न हों. उसके लिए विकल्प स्वरूप में प्रस्तुत मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना का अध्ययन करें. शब्द से इंगित वस्तु के साथ हमारा मन तदाकार हुआ तो हमने यह अध्ययन किया. तदाकार होने पर हमको अपने में विश्वास होता है. विश्वास के साथ जीने में अभिव्यक्त होते हैं तो अनुभव होता है. अनुसंधान विधि में मैंने पहले अनुभव किया, बाद में अभिव्यक्त करना शुरू किया. अध्ययन विधि में अभिव्यक्ति के साथ अनुभव होता है.
विगत में बतायी गयी ध्यान विधियों से थोड़ी देर के लिए हमारा मन अपनी प्रवृत्तियों से चुप होता है, उसको हम “शान्ति” मान लेते हैं. जबकि परिवार में समाधान-समृद्धि पूर्वक हम जी पाते हैं, और उसकी निरंतरता होती है – तब शान्ति होती है. उसके पहले शान्ति मिलता नहीं है.
जब सारे मानव समाधान-समृद्धि पूर्वक जी पाते हैं – तब अभयता होती है. कुछ लोग अपराध करें, कुछ न करें – उसमे अभयता कहाँ हुआ? सर्व-मानव के जागृत होने पर अभयता प्रमाणित होता है. इसके लिए जो प्रबुद्ध कहलाते हैं, समझदार कहलाते हैं – उन्ही को भागीदारी करने के लिए, मदद करने के लिए आगे आना होगा. इस बात का प्रमाण मैं स्वयं हूँ. अनुसन्धान विधि से मैं समझा, और फिर अनुभव-मूलक विधि से समझाना शुरू किया. इस बात के लोकव्यापीकरण क्रम में पहले ऐसा लगता था – सुनने-समझने वाले कम हैं, समझाने वाले ज्यादा हैं. आज की स्थिति में ऐसा लगता है – समझाने वाले कम हैं, सुनने-समझने वाले ज्यादा हैं. इससे पता चलता है – सर्वाधिक लोगों में सुख के प्रति, समाधान के प्रति, प्रामाणिकता के प्रति, ईमानदारी के प्रति सहमति बनी हुई है.
“मानव जीव-चेतना वश ही सारा अपराध किया है. मानव-चेतना के साथ सारा न्याय ही करेगा.” ऐसा मान करके यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया है. मानव-चेतना विधि में स्त्रोत को बनाए रखते हुए अपनी निश्चित आवश्यकताओं के अर्थ में उत्पादन करने की बात होती है. जीव-चेतना में सुविधा-संग्रह लक्ष्य के लिए, स्त्रोत को उजाड़ते हुए, अनिश्चित आवश्यकताओं के लिए उत्पादन करना बनता है. यदि समाधान-समृद्धि लक्ष्य स्वीकार होता है, और उसके लिए प्रयास करना बनता है, तो जीव-चेतना से हम मुक्ति पा सकते हैं. समाधान-समृद्धि की जगह यदि सुविधा-संग्रह लक्ष्य को रखते हैं तो जीव-चेतना को छोड़ नहीं पाते हैं. इसको हर व्यक्ति अपने में मूल्यांकन करेगा. इस मूल्यांकन को दूसरा कोई नहीं करेगा. इससे पहले भक्ति-विरक्ति पूर्वक जीने का प्रस्ताव रहस्य में फंस गया. रहस्य से ज्यादा सुलभ सुविधा-संग्रह को मानव ने माना – इसीलिये उसमे लग गए. कुल मिला कर जीव-चेतना में जीने से मानव-परंपरा का सोच-विचार ही गलत हो गया है, उसको सुधारने की आवश्यकता है. जीव-चेतना में जीने से सारी गलतियों को सही मान बैठा है. यहाँ से छूटने के लिए मार्ग है – मानव-चेतना में जिए! मानव-चेतना में जीने से स्वयं में विश्वास होता है. जीव-चेतना में जीने से स्वयं में विश्वास होता नहीं है, दूसरों पर विश्वास होता नहीं है. ऐसे में मानव पतंगे जैसे हिलता ही रहता है.
“मानव का अध्ययन” न आदर्शवाद से हुआ, न भौतिकवाद से हुआ. आदर्शवाद मनोकामना पूरी होने की बात कहा है, ज्ञान होने की बात कहा है, मोक्ष होने की बात कहा है. उसके लिए वेद-विचार की बात मानने को कहा है. आदर्शवाद में भक्ति-विरक्ति लक्ष्य के साथ जीने की बात है. ईश्वर को रिझाना भक्ति है – ऐसा बताया. उसके बाद भौतिकवाद ने वेद-विचार को दर-किनार करके लाभोंमादी, कामोंमादी, भोगोंमादी शिक्षा दिया. भौतिकवाद में सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ जीने की बात है. सामरिक-तंत्रों को बढा दिया, उनको सीमा-सुरक्षा के लिए लगा कर वहाँ सकल कुकर्मो को करने की अनुमति दिया. अब इस लाभोन्माद, कामोन्माद, भोगोन्माद, और सीमा-सुरक्षा से कैसे निकलें? इसमें मानव की चाहत से ही निकलना होगा. अनियंत्रित संवेदनाओं मे उड़ना चाहिए, या संवेदनाएं नियंत्रित रहनी चाहिए? इसके उत्तर में सभी जगह से यही आवाज आता है – संवेदनाएं नियंत्रित रहना चाहिए. संवेदनाएं नियंत्रित रहने की स्थिति में लाभोन्माद कहाँ टिकेगा? कामोन्माद कहाँ टिकेगा? भोगोन्माद कहाँ टिकेगा? अनियंत्रित संवेदनाओं में बहने से तृप्ति-बिंदु कहाँ मिलेगा? अब मानव को निर्णय करना है – भक्ति-विरक्ति लक्ष्य के साथ जीना है, सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ जीना है, या समाधान-समृद्धि लक्ष्य के साथ जीना है? यह स्वयं में शोध करने, निर्णय लेने, और प्रमाणित करने की बात है. प्रमाणित होने के क्रम में अपने प्रतिरूप में संसार को बसाना.
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
शब्दों का पठन करते हैं. शब्दों का निश्चित अर्थ होता है. उस निश्चित अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है. वस्तु के साथ हमारा मन तदाकार होता है और उसको सत्य मानना बनता है – तो हम अध्ययन किये, नहीं तो हम अध्ययन किये नहीं हैं, पठन भर किये हैं. अनुभव होना उसके आगे ही है. पठन भर से चेतना-विकास होता नहीं है. हम मान भले ही लें कि हमारा चेतना-विकास हो गया है, पर चेतना-विकास हुआ नहीं रहता है.
चेतना विकास का मतलब है – मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना में जी पाना. मानव-चेतना पूर्वक सर्व-मानव के व्यवस्था का स्वरूप समझ में आता है. इससे स्पष्ट होता है – “मानव-जाति एक है” और “मानव-धर्म एक है”. इन दोनों बातों के साथ मानव स्वाभाविक रूप में अन्य मानवों के साथ विश्वास करने योग्य होता है.
पठन के बाद, अस्तित्व में वस्तु के साथ मन तदाकार होता है, और उसको सत्य “मानना” बनता है – तो हम अध्ययन में सफल हुए. अनुभव होना इसके एक कदम आगे है – किन्तु इतने से सत्य को “मानना” बन जाता है. इस तरह सत्य को “मान” कर हम मानव-चेतना में जीना शुरू करते हैं. इस तरह हम सर्व-मानव के साथ व्यवस्था में जीने के स्वरूप के बारे में स्पष्ट होते हैं. इसी के साथ मानव का मानव के साथ विश्वास करना बनता है.
अभी तक मानव का मानव के साथ विश्वास करना नहीं बना था. विश्वास के न होने से ही सभी अवैध बातों को वैध मान लिया. इसी कारण वश धरती बीमार हो गयी, अपराध प्रवृत्ति बढ़ गयी, प्रदूषण छा गया, अपने-पराये की दूरियां बढ़ गयी. हमने तो मजा मार लिया – आगे पीढ़ी को क्या दिया? आगे पीढ़ी के लिए क्या छोड़ कर जा रहे हैं? यह सोचने पर अपने में एक स्तंभित होने की स्थिति बनती है. इस स्थिति को ठीक से देखने पर यही निकलता है – हमको ऐसा नहीं करना चाहिए था. अब क्या करें? अब तो अपराध करना बंद करें! अपराध को छोड़ने के पक्ष में हम काम शुरू कर देते हैं. अपराध-मुक्ति का पहला प्रमाण समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना ही है. समाधान का क्या कोई विरोध भी होता है?
“समाधान चाहिए या समस्या चाहिए?” – हमारे यह पूछने पर उत्तर में सभी कहते हैं, “समाधान चाहिए”. “समस्या के बिना समाधान कहाँ होगा?” – यह भी एक बार चर्चा में आया था. उनसे हमने पूछा – “समाधान की निरंतरता चाहिए या समस्या की निरंतरता चाहिए?” इसके उत्तर में निकला – “समाधान की निरंतरता चाहिए”. फिर पूछा – “समाधान की निरंतरता होने पर समस्या कहाँ रहेगा?” यदि प्रकाश की निरंतरता हो गयी तो उसके बाद अन्धकार कहाँ रहेगा? सच्चाई की निरंतरता हो गयी तो झूठ का कहाँ स्थान रहेगा? सुख की निरंतरता हो गयी तो दुःख का स्थान कहाँ रहेगा? यह सब बात हो चुकी है. कुल मिला कर, विश्वास पूर्वक जीने के लिए आवश्यक है – सकारात्मकता के लिए अपनी प्रवृत्ति को लगाया जाए. नकारात्मक भाग में अपनी प्रवृत्ति को न लगाया जाए.
मानव के पास यह दोनों (सकारात्मक और नकारात्मक) के लिए अवकाश है. सकारात्मकता को चाहता है, नकारात्मकता के पक्ष में हो जाता है. अभी तक ऐसा ही है. शिक्षा ऐसा ही है. व्यवस्था ऐसा ही है. संविधान ऐसा ही है. जैसे – अहिंसा को चाहते हैं, पर हिंसा किये बिना दंड-संहिता होता नहीं है. दंड-सहित में यंत्रणा को कितने विधियों से दिया जा सकता है – यही लिखा है. भारत में व्यास जी ने दंड-नीति को लिखा, उससे पहले मनु-धर्म शास्त्र में प्रायश्चित्त का जिक्र है. अपराध को पहचानने के लिए “अपराध-शाखा” खोला है. अपराध-शाखा का यह मानना है – हर व्यक्ति प्रकारांतर से अपराधी है. लाभोंमादी, कामोंमादी, भोगोंमादी शिक्षा में अपराध के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता. इस तरह कहाँ पहुंचेगे? इस तरह मानव के “सही स्वरूप” को कैसे पाया जाए? यह सोचने का मुद्दा बनता है या नहीं?
इससे निकलने का सूत्र दिया – मानव पहले अपने में विश्वास संपन्न हों. उसके लिए विकल्प स्वरूप में प्रस्तुत मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना का अध्ययन करें. शब्द से इंगित वस्तु के साथ हमारा मन तदाकार हुआ तो हमने यह अध्ययन किया. तदाकार होने पर हमको अपने में विश्वास होता है. विश्वास के साथ जीने में अभिव्यक्त होते हैं तो अनुभव होता है. अनुसंधान विधि में मैंने पहले अनुभव किया, बाद में अभिव्यक्त करना शुरू किया. अध्ययन विधि में अभिव्यक्ति के साथ अनुभव होता है.
विगत में बतायी गयी ध्यान विधियों से थोड़ी देर के लिए हमारा मन अपनी प्रवृत्तियों से चुप होता है, उसको हम “शान्ति” मान लेते हैं. जबकि परिवार में समाधान-समृद्धि पूर्वक हम जी पाते हैं, और उसकी निरंतरता होती है – तब शान्ति होती है. उसके पहले शान्ति मिलता नहीं है.
जब सारे मानव समाधान-समृद्धि पूर्वक जी पाते हैं – तब अभयता होती है. कुछ लोग अपराध करें, कुछ न करें – उसमे अभयता कहाँ हुआ? सर्व-मानव के जागृत होने पर अभयता प्रमाणित होता है. इसके लिए जो प्रबुद्ध कहलाते हैं, समझदार कहलाते हैं – उन्ही को भागीदारी करने के लिए, मदद करने के लिए आगे आना होगा. इस बात का प्रमाण मैं स्वयं हूँ. अनुसन्धान विधि से मैं समझा, और फिर अनुभव-मूलक विधि से समझाना शुरू किया. इस बात के लोकव्यापीकरण क्रम में पहले ऐसा लगता था – सुनने-समझने वाले कम हैं, समझाने वाले ज्यादा हैं. आज की स्थिति में ऐसा लगता है – समझाने वाले कम हैं, सुनने-समझने वाले ज्यादा हैं. इससे पता चलता है – सर्वाधिक लोगों में सुख के प्रति, समाधान के प्रति, प्रामाणिकता के प्रति, ईमानदारी के प्रति सहमति बनी हुई है.
“मानव जीव-चेतना वश ही सारा अपराध किया है. मानव-चेतना के साथ सारा न्याय ही करेगा.” ऐसा मान करके यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया है. मानव-चेतना विधि में स्त्रोत को बनाए रखते हुए अपनी निश्चित आवश्यकताओं के अर्थ में उत्पादन करने की बात होती है. जीव-चेतना में सुविधा-संग्रह लक्ष्य के लिए, स्त्रोत को उजाड़ते हुए, अनिश्चित आवश्यकताओं के लिए उत्पादन करना बनता है. यदि समाधान-समृद्धि लक्ष्य स्वीकार होता है, और उसके लिए प्रयास करना बनता है, तो जीव-चेतना से हम मुक्ति पा सकते हैं. समाधान-समृद्धि की जगह यदि सुविधा-संग्रह लक्ष्य को रखते हैं तो जीव-चेतना को छोड़ नहीं पाते हैं. इसको हर व्यक्ति अपने में मूल्यांकन करेगा. इस मूल्यांकन को दूसरा कोई नहीं करेगा. इससे पहले भक्ति-विरक्ति पूर्वक जीने का प्रस्ताव रहस्य में फंस गया. रहस्य से ज्यादा सुलभ सुविधा-संग्रह को मानव ने माना – इसीलिये उसमे लग गए. कुल मिला कर जीव-चेतना में जीने से मानव-परंपरा का सोच-विचार ही गलत हो गया है, उसको सुधारने की आवश्यकता है. जीव-चेतना में जीने से सारी गलतियों को सही मान बैठा है. यहाँ से छूटने के लिए मार्ग है – मानव-चेतना में जिए! मानव-चेतना में जीने से स्वयं में विश्वास होता है. जीव-चेतना में जीने से स्वयं में विश्वास होता नहीं है, दूसरों पर विश्वास होता नहीं है. ऐसे में मानव पतंगे जैसे हिलता ही रहता है.
“मानव का अध्ययन” न आदर्शवाद से हुआ, न भौतिकवाद से हुआ. आदर्शवाद मनोकामना पूरी होने की बात कहा है, ज्ञान होने की बात कहा है, मोक्ष होने की बात कहा है. उसके लिए वेद-विचार की बात मानने को कहा है. आदर्शवाद में भक्ति-विरक्ति लक्ष्य के साथ जीने की बात है. ईश्वर को रिझाना भक्ति है – ऐसा बताया. उसके बाद भौतिकवाद ने वेद-विचार को दर-किनार करके लाभोंमादी, कामोंमादी, भोगोंमादी शिक्षा दिया. भौतिकवाद में सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ जीने की बात है. सामरिक-तंत्रों को बढा दिया, उनको सीमा-सुरक्षा के लिए लगा कर वहाँ सकल कुकर्मो को करने की अनुमति दिया. अब इस लाभोन्माद, कामोन्माद, भोगोन्माद, और सीमा-सुरक्षा से कैसे निकलें? इसमें मानव की चाहत से ही निकलना होगा. अनियंत्रित संवेदनाओं मे उड़ना चाहिए, या संवेदनाएं नियंत्रित रहनी चाहिए? इसके उत्तर में सभी जगह से यही आवाज आता है – संवेदनाएं नियंत्रित रहना चाहिए. संवेदनाएं नियंत्रित रहने की स्थिति में लाभोन्माद कहाँ टिकेगा? कामोन्माद कहाँ टिकेगा? भोगोन्माद कहाँ टिकेगा? अनियंत्रित संवेदनाओं में बहने से तृप्ति-बिंदु कहाँ मिलेगा? अब मानव को निर्णय करना है – भक्ति-विरक्ति लक्ष्य के साथ जीना है, सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ जीना है, या समाधान-समृद्धि लक्ष्य के साथ जीना है? यह स्वयं में शोध करने, निर्णय लेने, और प्रमाणित करने की बात है. प्रमाणित होने के क्रम में अपने प्रतिरूप में संसार को बसाना.
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
Sunday, April 17, 2011
अध्ययन में मन लगना
जीवन-ज्ञान के लिए आशा ही जिज्ञासा है. अध्ययन में मन लगता है तो अनुभव होता है. मन नहीं लगता है, तो पूरा ठीक से सुना भी या नहीं, यह भी कहा नहीं जा सकता. मानव सुनता है या यंत्र सुनता है? – इसका भी निर्णय होना आवश्यक है. हमारे सुनने से कल्याण होगा, या यंत्र के सुनने से कल्याण होगा? – इसका भी निर्णय होना आवश्यक है.
हम सुनते नहीं हैं, हमारा मन दूसरी चीजों में लगा रहता है – इसलिए समझ में नहीं आता है. मन एक साथ तीन दिशाओं में काम करता रहता है. जिस शब्द को सुना उस वस्तु के अर्थ के साथ यदि हमारी कल्पनाशीलता तदाकार होता है, तब सुना. नहीं तो क्या सुना?
प्रश्न: अध्ययन में मन कैसे लगे?
मन कहीं न कहीं लगा ही रहता है. अध्ययन यदि प्राथमिकता में आता है, तो अध्ययन में मन लगता है. समझने के लिए मन लगता है तो समझ में आता है. समझने के लिए मन नहीं लगता है, तो ऊट-पटाँग जगह लगा ही रहता है. अभी चाहे ज्ञानी हों, विज्ञानी हों, अज्ञानी हों – तीनो का मन सुविधा-संग्रह में ही लगा रहता है. उससे छूटे बिना समाधान-समृद्धि के लिए मन कैसे लगेगा? अभी जिस परंपरा में हम हैं, वह झूठ है – कितने लोग इस निर्णय पर पहुँच गए हैं? परंपरा ने जो झूठ दिया उसी का हम अभ्यासी हो गए हैं. जैसे, “आचरण पहले, विचार बाद में” - यह झूठ परंपरा में है. इस झूठ को पालने के लिए संसार में हज़ार उपाय हैं. दूसरा उदाहरण, “सबसे बलशाली को ही जीने का अधिकार है” - यह झूठ भी परंपरा में है.
हम जो चाहते हैं, उसमे हमारा मन लगता ही है. हम किसी वस्तु को चाहें और उसमे हमारा मन न लगे, ऐसा होता नहीं है. हमारे चाहना में ही आनाकानी है. आनाकानी है, क्योंकि हम दूसरी किन्ही चीजों में लगे रहते हैं. मन जिसको ज्यादा मूल्यवान माना रहता है, उसमे लगा रहता है.
प्रश्न: प्राथमिकता कैसे निश्चित होती है?
तुलन पूर्वक. यह बड़ी चीज है, या वह बड़ी चीज है – इसका तुलन.
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
हम सुनते नहीं हैं, हमारा मन दूसरी चीजों में लगा रहता है – इसलिए समझ में नहीं आता है. मन एक साथ तीन दिशाओं में काम करता रहता है. जिस शब्द को सुना उस वस्तु के अर्थ के साथ यदि हमारी कल्पनाशीलता तदाकार होता है, तब सुना. नहीं तो क्या सुना?
प्रश्न: अध्ययन में मन कैसे लगे?
मन कहीं न कहीं लगा ही रहता है. अध्ययन यदि प्राथमिकता में आता है, तो अध्ययन में मन लगता है. समझने के लिए मन लगता है तो समझ में आता है. समझने के लिए मन नहीं लगता है, तो ऊट-पटाँग जगह लगा ही रहता है. अभी चाहे ज्ञानी हों, विज्ञानी हों, अज्ञानी हों – तीनो का मन सुविधा-संग्रह में ही लगा रहता है. उससे छूटे बिना समाधान-समृद्धि के लिए मन कैसे लगेगा? अभी जिस परंपरा में हम हैं, वह झूठ है – कितने लोग इस निर्णय पर पहुँच गए हैं? परंपरा ने जो झूठ दिया उसी का हम अभ्यासी हो गए हैं. जैसे, “आचरण पहले, विचार बाद में” - यह झूठ परंपरा में है. इस झूठ को पालने के लिए संसार में हज़ार उपाय हैं. दूसरा उदाहरण, “सबसे बलशाली को ही जीने का अधिकार है” - यह झूठ भी परंपरा में है.
हम जो चाहते हैं, उसमे हमारा मन लगता ही है. हम किसी वस्तु को चाहें और उसमे हमारा मन न लगे, ऐसा होता नहीं है. हमारे चाहना में ही आनाकानी है. आनाकानी है, क्योंकि हम दूसरी किन्ही चीजों में लगे रहते हैं. मन जिसको ज्यादा मूल्यवान माना रहता है, उसमे लगा रहता है.
प्रश्न: प्राथमिकता कैसे निश्चित होती है?
तुलन पूर्वक. यह बड़ी चीज है, या वह बड़ी चीज है – इसका तुलन.
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
अभिव्यक्ति सम्प्रेश्ना प्रकाशन
सभी मोड-मुद्दे पर समाधान संपन्न होना अनुभव के बाद ही बनता है. उसके लिए जीने में (व्यवहार और कर्म) अभ्यास है. अभ्यास दो ही भागों में है – समाधान के लिए और समृद्धि के लिए. अभ्यास के साथ अभिव्यक्ति को जोड़ा है. अभिव्यक्ति क्रम में ही पता चलता है – हम पूरा हुए या नहीं हुए. अध्ययन विधि में सच्चाई के अभिव्यक्ति, सम्प्रेश्ना, प्रकाशन में हम यदि पूरा पड़ते हैं, तो अनुभव तक पहुँचते हैं.
अभिव्यक्ति है – सर्वतोमुखी समाधान को प्रमाणित करना. जैसे मुझे संसार में कोई समस्या दिखता ही नहीं है. केवल अपने समाधान को प्रमाणित करने की बात है – दूसरों को अपने जैसा बना कर.
सम्प्रेषणा है – पूर्णता के अर्थ में प्रेषित करना. पूर्णता है – गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता. मानव ही पूर्णता को व्यक्त कर सकता है. जीव, वनस्पति, मिट्टी-पत्थर पूर्णता को संप्रेषित नहीं कर सकता.
“जीना” प्रकाशन है. फिर “जीने दे कर जीना” का प्रकाशन है. “जीने देकर जीना” ही “जीने” का प्रमाण है. दूसरे मानव को अपने जैसा समझदार बना देना ही “जीने देना” है. (मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ) स्त्रोत को बनाए रखते हुए उसका उपयोग-सदुपयोग करना (उत्पादन करना या ऊर्जा प्राप्त करना) ही “जीने देना” है.
“मैं समझ सकता हूँ, जी सकता हूँ” – यह पहला घाट है. “मैं समझा सकता हूँ, जीने दे कर जी सकता हूँ” – यह दूसरा घाट है. जीने दिए बिना परंपरा कहाँ से होगा? हमारी संतान को हम जीने न दें – तो परंपरा कैसे होगा?
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
अभिव्यक्ति है – सर्वतोमुखी समाधान को प्रमाणित करना. जैसे मुझे संसार में कोई समस्या दिखता ही नहीं है. केवल अपने समाधान को प्रमाणित करने की बात है – दूसरों को अपने जैसा बना कर.
सम्प्रेषणा है – पूर्णता के अर्थ में प्रेषित करना. पूर्णता है – गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता. मानव ही पूर्णता को व्यक्त कर सकता है. जीव, वनस्पति, मिट्टी-पत्थर पूर्णता को संप्रेषित नहीं कर सकता.
“जीना” प्रकाशन है. फिर “जीने दे कर जीना” का प्रकाशन है. “जीने देकर जीना” ही “जीने” का प्रमाण है. दूसरे मानव को अपने जैसा समझदार बना देना ही “जीने देना” है. (मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ) स्त्रोत को बनाए रखते हुए उसका उपयोग-सदुपयोग करना (उत्पादन करना या ऊर्जा प्राप्त करना) ही “जीने देना” है.
“मैं समझ सकता हूँ, जी सकता हूँ” – यह पहला घाट है. “मैं समझा सकता हूँ, जीने दे कर जी सकता हूँ” – यह दूसरा घाट है. जीने दिए बिना परंपरा कहाँ से होगा? हमारी संतान को हम जीने न दें – तो परंपरा कैसे होगा?
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
Saturday, April 16, 2011
अनुभव के लिए प्रयास
प्रश्न: अनुभव के लिए हमारे प्रयासों में और क्या पैनापन लाया जाए?
उत्तर: अनुभव के लिए एक ही विधि है – वह है अध्ययन। अध्ययन में पारंगत होना ही एक मात्र रास्ता है. पूरा समझना ही एक मात्र रास्ता है। अध्ययन के लिए आपको बताया है - शब्द का अर्थ होता है, अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। वस्तु के साथ हमारा कल्पनाशीलता तदाकार होने पर अध्ययन हुआ। तदाकार होने के बाद वह छूटता नहीं है, हमारा स्वत्व हो जाता है, उसको प्रकट करने के क्रम में अनुभव हो जाता है। अध्ययन विधि में प्रकट होने के क्रम में अनुभव होता है।
अनुसन्धान विधि में पहले अनुभव होता है, उसके बाद हम प्रकट होते हैं। ज्ञान-संपन्न होने की बात अध्ययन विधि से पूरा हो जाता है। अनुसन्धान एक अनिश्चित विधि है. सब कोई अनुसन्धान कर नहीं पायेंगे।
ज्ञान के साथ ही हम आहार, विहार, और व्यवहार में संयत हो पाते हैं। उससे पहले कोई संयत नहीं होगा. ज्ञान के रूप में, विचार के रूप में, और आचरण के रूप में यह प्रस्ताव पूरा पड़ता है या नहीं – आप बताइये। सभी मोड मुद्दे पर समाधान संपन्न होना अनुभव के बाद ही बनता है। उसके लिए जीने में (व्यवहार और कर्म) अभ्यास है। अभ्यास के साथ अभिव्यक्ति को जोड़ा है. अभिव्यक्ति क्रम में ही पता चलता है – हम पूरा हुए या नहीं हुए। अध्ययन विधि में सच्चाई के अभिव्यक्ति, सम्प्रेश्ना, प्रकाशन में हम यदि पूरा पड़ते हैं, तो अनुभव तक पहुँचते हैं। अध्ययन से हमको समझना है. जो समझे हैं, उसकी अभिव्यक्ति होते-होते एक दिन पूरा होने की स्थिति तक पहुँचते हैं। संबोधन में जो अभिव्यक्त किया वह अध्ययन के अनुरूप रहा या नहीं रहा – इसका मूल्यांकन करना। इस तरह, अभिव्यक्ति और अध्ययन के संयोग से हम संसार के साथ पूरा पड़ पायेंगे। केवल अभिव्यक्ति करते रहेंगे, अध्ययन नहीं करेंगे – उससे भी हम पूरा नहीं पड़ेंगे। केवल अध्ययन करते रहेंगे, अभिव्यक्ति नहीं करेंगे – उससे भी हम पूरा नहीं पड़ेंगे। यह दोनों एक साथ हैं।
अध्ययन और अभिव्यक्ति के संयोग से समाधान होता है – जिससे संतुष्टि मिलता है। यही अनुभव तक पहुँचने की विधि है। हम अपने ढंग से चल कर अनुभव तक पहुँच जायेंगे – ऐसा होता नहीं है। अध्ययन और अभिव्यक्ति के संयोग से समाधान होता है। इस तरह समाधान हमको होना है या हमे सुनने वाले को होना है? इसको भी सोचा जाए. समाधान पहले हमको होना है। फिर हमको सुनने वाले को यदि समाधान होता है, तो हमारा समाधानित होना प्रमाणित हो गया। उसके पहले क्या प्रमाण हुआ?
सैंकडो वर्षों से उपदेश विधि से चल कर के हम थोडा भी सुधार तक पहुंचे नहीं हैं, टस से मस नहीं हुए, भ्रम यथावत बना रहा। अब अध्ययन-विधि से स्वयं में बदलाव होता है या नहीं, इसको पहले देखो। अपने स्वयं को सुधार के लिए शामिल किये बिना हम पूरा हो जायेंगे – ऐसा कोई वादा इस विधि से होता नहीं है। “स्व-कृपा” पूर्णता के लिए आवश्यक है। पहले ऐसा सोचा गया था – कोई एक आदमी अच्छा हो जाए, तो उसको देख कर बाकी सब अपने आप अच्छे हो जायेंगे। पर ऐसा हुआ नहीं. “अच्छे लोग” तो हुए हैं। पर “अच्छे लोगों” का अनुकरण हुआ, ऐसा नहीं है।
“सभी समझ सकते हैं” – यहाँ से इस प्रस्ताव की शुरुआत है. अभी तक मानव-इतिहास में ऐसा नहीं था. कोई व्यक्ति यदि समझ गया तो उसको प्रणाम करने से, उसकी सेवा करने से बाकी लोग तर जायेंगे – ऐसा माना गया था. सभी मानव सामरस्यता पूर्वक कैसे जी सकते हैं – यह स्वरूप समझ आने से हमारे “जीने” की शुरुआत होती है. सभी मानवों के सामरस्यता पूर्वक जीने का स्वरूप बना – समाधान-समृद्धि. “समझदारी से समाधान, श्रम से समृद्धि”. समझदारी के लिए पाँच सूत्रों का प्रस्ताव रखा है – सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, सह-अस्तित्व में विकास, सह-अस्तित्व में जागृति क्रम, सह-अस्तित्व में जागृति.
आदर्शवाद में कहा गया – आचरण पहले, विचार बाद में. यहाँ कह रहे हैं – विचार पहले, आचरण बाद में. इसी लिए इस प्रस्ताव को “विकल्प” कहा है. बिना विचार के कोई आचरण होता नहीं है.
वेद-विचार संसार में कुकर्मो को रोकने में समर्थ नहीं रहा. इसके बाद आये भौतिकवादी विचार से कुकर्म सर्वाधिक हुआ.
इसलिए मध्यस्थ-दर्शन के इस प्रस्ताव को इन दोनों के विकल्प स्वरूप में प्रस्तुत किया. इससे निकला – हर मानव स्वेच्छा से समझदार हो सकते हैं. हर मानव किसी आयु के बाद अपने को समझदार मान ही लेता है.
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
उत्तर: अनुभव के लिए एक ही विधि है – वह है अध्ययन। अध्ययन में पारंगत होना ही एक मात्र रास्ता है. पूरा समझना ही एक मात्र रास्ता है। अध्ययन के लिए आपको बताया है - शब्द का अर्थ होता है, अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। वस्तु के साथ हमारा कल्पनाशीलता तदाकार होने पर अध्ययन हुआ। तदाकार होने के बाद वह छूटता नहीं है, हमारा स्वत्व हो जाता है, उसको प्रकट करने के क्रम में अनुभव हो जाता है। अध्ययन विधि में प्रकट होने के क्रम में अनुभव होता है।
अनुसन्धान विधि में पहले अनुभव होता है, उसके बाद हम प्रकट होते हैं। ज्ञान-संपन्न होने की बात अध्ययन विधि से पूरा हो जाता है। अनुसन्धान एक अनिश्चित विधि है. सब कोई अनुसन्धान कर नहीं पायेंगे।
ज्ञान के साथ ही हम आहार, विहार, और व्यवहार में संयत हो पाते हैं। उससे पहले कोई संयत नहीं होगा. ज्ञान के रूप में, विचार के रूप में, और आचरण के रूप में यह प्रस्ताव पूरा पड़ता है या नहीं – आप बताइये। सभी मोड मुद्दे पर समाधान संपन्न होना अनुभव के बाद ही बनता है। उसके लिए जीने में (व्यवहार और कर्म) अभ्यास है। अभ्यास के साथ अभिव्यक्ति को जोड़ा है. अभिव्यक्ति क्रम में ही पता चलता है – हम पूरा हुए या नहीं हुए। अध्ययन विधि में सच्चाई के अभिव्यक्ति, सम्प्रेश्ना, प्रकाशन में हम यदि पूरा पड़ते हैं, तो अनुभव तक पहुँचते हैं। अध्ययन से हमको समझना है. जो समझे हैं, उसकी अभिव्यक्ति होते-होते एक दिन पूरा होने की स्थिति तक पहुँचते हैं। संबोधन में जो अभिव्यक्त किया वह अध्ययन के अनुरूप रहा या नहीं रहा – इसका मूल्यांकन करना। इस तरह, अभिव्यक्ति और अध्ययन के संयोग से हम संसार के साथ पूरा पड़ पायेंगे। केवल अभिव्यक्ति करते रहेंगे, अध्ययन नहीं करेंगे – उससे भी हम पूरा नहीं पड़ेंगे। केवल अध्ययन करते रहेंगे, अभिव्यक्ति नहीं करेंगे – उससे भी हम पूरा नहीं पड़ेंगे। यह दोनों एक साथ हैं।
अध्ययन और अभिव्यक्ति के संयोग से समाधान होता है – जिससे संतुष्टि मिलता है। यही अनुभव तक पहुँचने की विधि है। हम अपने ढंग से चल कर अनुभव तक पहुँच जायेंगे – ऐसा होता नहीं है। अध्ययन और अभिव्यक्ति के संयोग से समाधान होता है। इस तरह समाधान हमको होना है या हमे सुनने वाले को होना है? इसको भी सोचा जाए. समाधान पहले हमको होना है। फिर हमको सुनने वाले को यदि समाधान होता है, तो हमारा समाधानित होना प्रमाणित हो गया। उसके पहले क्या प्रमाण हुआ?
सैंकडो वर्षों से उपदेश विधि से चल कर के हम थोडा भी सुधार तक पहुंचे नहीं हैं, टस से मस नहीं हुए, भ्रम यथावत बना रहा। अब अध्ययन-विधि से स्वयं में बदलाव होता है या नहीं, इसको पहले देखो। अपने स्वयं को सुधार के लिए शामिल किये बिना हम पूरा हो जायेंगे – ऐसा कोई वादा इस विधि से होता नहीं है। “स्व-कृपा” पूर्णता के लिए आवश्यक है। पहले ऐसा सोचा गया था – कोई एक आदमी अच्छा हो जाए, तो उसको देख कर बाकी सब अपने आप अच्छे हो जायेंगे। पर ऐसा हुआ नहीं. “अच्छे लोग” तो हुए हैं। पर “अच्छे लोगों” का अनुकरण हुआ, ऐसा नहीं है।
“सभी समझ सकते हैं” – यहाँ से इस प्रस्ताव की शुरुआत है. अभी तक मानव-इतिहास में ऐसा नहीं था. कोई व्यक्ति यदि समझ गया तो उसको प्रणाम करने से, उसकी सेवा करने से बाकी लोग तर जायेंगे – ऐसा माना गया था. सभी मानव सामरस्यता पूर्वक कैसे जी सकते हैं – यह स्वरूप समझ आने से हमारे “जीने” की शुरुआत होती है. सभी मानवों के सामरस्यता पूर्वक जीने का स्वरूप बना – समाधान-समृद्धि. “समझदारी से समाधान, श्रम से समृद्धि”. समझदारी के लिए पाँच सूत्रों का प्रस्ताव रखा है – सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, सह-अस्तित्व में विकास, सह-अस्तित्व में जागृति क्रम, सह-अस्तित्व में जागृति.
आदर्शवाद में कहा गया – आचरण पहले, विचार बाद में. यहाँ कह रहे हैं – विचार पहले, आचरण बाद में. इसी लिए इस प्रस्ताव को “विकल्प” कहा है. बिना विचार के कोई आचरण होता नहीं है.
वेद-विचार संसार में कुकर्मो को रोकने में समर्थ नहीं रहा. इसके बाद आये भौतिकवादी विचार से कुकर्म सर्वाधिक हुआ.
इसलिए मध्यस्थ-दर्शन के इस प्रस्ताव को इन दोनों के विकल्प स्वरूप में प्रस्तुत किया. इससे निकला – हर मानव स्वेच्छा से समझदार हो सकते हैं. हर मानव किसी आयु के बाद अपने को समझदार मान ही लेता है.
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
त्याग-वैराग्य या समाधान-समृद्धि
त्याग और वैराग्य क्या है?
त्याग और वैराग्य को आदर्शवादी मान्यता में बहुत सम्मान किया है. त्याग और वैराग्य के असली स्वरूप को पहचानने की आवश्यकता है.
त्याग है – अनावश्यकता का विसर्जन. जैसे अभी सर्दी है, तो हम इस कम्बल को ओढ़े हैं. सर्दी लगनी बंद हो गयी तो यह कम्बल अनावश्यक हो गया, और उसको हमने छोड़ दिया. यही त्याग का सही स्वरूप है. जो हमारे लिए अनावश्यक है उसको हमने छोड़ दिया – इससे अधिक त्याग कुछ नहीं है.
राग का मतलब है – संग्रह. वैराग्य या विराग का मतलब है – असंग्रह या समृद्धि. यही वैराग्य का सही स्वरूप है. मानव को समृद्धि चाहिए या विरक्ति चाहिए? पूछने पर यही निकलता है – समृद्धि चाहिए.
प्रश्न: समाधान-समृद्धि की आवश्यकता मुझे अपने लिए स्वीकार होती है, पर यह आवश्यकता सभी की है – इसका मैं कैसे निश्चयन करूं?
समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की आवश्यकता को मैंने अपने लिए स्वीकारा और प्रमाणित किया. फिर ऐसा जीने की आवश्यकता सभी की है या नहीं – इसके बारे में आपसे पूछना शुरू किया. वैसे ही आप भी करोगे. पहले हमको ऐसा जीना है यह सोचें – या सब लोग ऐसे जीने लगेंगे तब हम ऐसा जियेंगे, यह सोचें?
अभी जैसे धरती बीमार हो गयी, प्रदूषण छा गया. अपने-पराये की दूरियां बढ़ गयी, अपराध प्रवृत्ति बढ़ गयी. लोगों से पूछते हैं – धरती बीमार होने के बाद आदमी कहाँ रहेगा? इसके उत्तर में लोग कहते हैं – सब मरेंगे तो हम भी मर जायेंगे!
“सब समझ के लिए तैयार जाएँ, उसके बाद हम समझेंगे” – ऐसा सोचना या “हम अपने समझ के लिए तैयार होंगे” – ऐसा सोचना. क्या ठीक होगा? निष्ठान्वित होने की बात है – हम पहले ठीक होंगे, बाकी लोग ठीक होते रहेंगे. बुचकने की बात है – दूसरे समझ लें, हम बाद में देखेंगे!
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
त्याग और वैराग्य को आदर्शवादी मान्यता में बहुत सम्मान किया है. त्याग और वैराग्य के असली स्वरूप को पहचानने की आवश्यकता है.
त्याग है – अनावश्यकता का विसर्जन. जैसे अभी सर्दी है, तो हम इस कम्बल को ओढ़े हैं. सर्दी लगनी बंद हो गयी तो यह कम्बल अनावश्यक हो गया, और उसको हमने छोड़ दिया. यही त्याग का सही स्वरूप है. जो हमारे लिए अनावश्यक है उसको हमने छोड़ दिया – इससे अधिक त्याग कुछ नहीं है.
राग का मतलब है – संग्रह. वैराग्य या विराग का मतलब है – असंग्रह या समृद्धि. यही वैराग्य का सही स्वरूप है. मानव को समृद्धि चाहिए या विरक्ति चाहिए? पूछने पर यही निकलता है – समृद्धि चाहिए.
प्रश्न: समाधान-समृद्धि की आवश्यकता मुझे अपने लिए स्वीकार होती है, पर यह आवश्यकता सभी की है – इसका मैं कैसे निश्चयन करूं?
समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की आवश्यकता को मैंने अपने लिए स्वीकारा और प्रमाणित किया. फिर ऐसा जीने की आवश्यकता सभी की है या नहीं – इसके बारे में आपसे पूछना शुरू किया. वैसे ही आप भी करोगे. पहले हमको ऐसा जीना है यह सोचें – या सब लोग ऐसे जीने लगेंगे तब हम ऐसा जियेंगे, यह सोचें?
अभी जैसे धरती बीमार हो गयी, प्रदूषण छा गया. अपने-पराये की दूरियां बढ़ गयी, अपराध प्रवृत्ति बढ़ गयी. लोगों से पूछते हैं – धरती बीमार होने के बाद आदमी कहाँ रहेगा? इसके उत्तर में लोग कहते हैं – सब मरेंगे तो हम भी मर जायेंगे!
“सब समझ के लिए तैयार जाएँ, उसके बाद हम समझेंगे” – ऐसा सोचना या “हम अपने समझ के लिए तैयार होंगे” – ऐसा सोचना. क्या ठीक होगा? निष्ठान्वित होने की बात है – हम पहले ठीक होंगे, बाकी लोग ठीक होते रहेंगे. बुचकने की बात है – दूसरे समझ लें, हम बाद में देखेंगे!
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
आहार-विहार-व्यवहार
आहार-विहार-व्यवहार द्वारा मानव अपनी स्वस्थ-मानसिकता का प्रदर्शन करता है. आहार से आशय है – खान-पान, जैसे – शाकाहार-दुग्धपान या मांसाहार-मद्यपान. विहार से आशय है – रहन-सहन, जैसे – ओढना-पहनना, मनोरंजन, व्यायाम, खेल-कूद, घूमना आदि. व्यवहार से आशय है – मानव परस्परता में मूल्यों की पहचान और निर्वाह.
आहार-विहार-व्यवहार को लेकर सभी मानवों में एकरूपता होने की आवश्यकता है या नहीं है? यदि है, तो उस एकरूपता का क्या स्वरूप होगा?
आहार-विहार-व्यवहार की सुनिश्चयता के पश्चात ही मानवीय परंपरा की शुरुआत होता है. इससे पहले मानव समुदाय परंपरा में रहता है. अभी तक मानव समुदाय-चेतना या जीवचेतना में जिया है. इसलिए मानवों में आहार-विहार-व्यवहार की एकरूपता का कोई स्वरूप नहीं है. होना क्या चाहिए? – इस बारे में सोचा जा सकता है. इसको हर व्यक्ति सोच सकते है. हर व्यक्ति में सोचने का अधिकार समान रूप से कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता के रूप में रखा हुआ है.
विकल्प विधि से मानवचेतना पूर्वक आहार-विहार-व्यवहार का निश्चयन होता है. जीवचेतना में मानव का आहार-विहार-व्यवहार का स्वरूप सुनिश्चित होता ही नहीं है. जैसे – हाथी का आहार अलग है, बाघ का अलग है, गाय का अलग है, कुत्ते का अलग है. इसी तरह जीव-चेतना में जीते हुए मनुष्यों का आहार भी अलग-अलग होना स्वाभाविक हुआ. विहार और व्यवहार का स्वरूप भी जीवचेतना में जीते मानवों में अलग-अलग है.
आहार-विहार-व्यवहार की एकरूपता का स्वरूप ही समाज है. आहार-विहार-व्यवहार अलग-अलग रहते तक हम समाज कैसे बनाएंगे? “समाज” की परिकल्पना बहुत पहले से है. जीव-चेतना में जीते हुए मानव समुदाय से ऊपर उठ नहीं पाया. अभी समुदायों को ही समाज माने बैठे हैं. इन समुदायों में संघर्ष और युद्ध भावी हो गया.
संघर्ष और युद्ध को मोलते हुए आदमी सामाजिक कैसे हो पायेगा? अभी तक तो नहीं हुआ. हमको तो नहीं लगता कि संघर्ष और युद्ध के चलते आदमी सामाजिक हो सकता है. पैसे के लिए ही युद्ध होता है. पैसे के लिए ही संघर्ष होता है. पैसे को खा कर किसी का पेट नहीं भरता, फिर भी पैसे पर सभी ज्ञानी, विज्ञानी, अज्ञानी लटटू हैं! पैसे से वस्तु मिलता है, यह सोच कर पैसे पर लटटू हैं. वस्तु मिलना बंद हो गया तो पैसे का क्या करेंगे? हम १० व्यक्तियों में से कोई भी उत्पादन नहीं करे, और दसों के पास भी पैसे हों तो उनको वस्तु कहाँ से मिलेगा? जितना पैसे में पहले वस्तु मिलता था, आज उससे ज्यादा पैसे में मिलता है. तृप्ति वस्तु से ही है, पैसे से तृप्ति मिलती नहीं है. पैसा क्या है? – नोट. नोट क्या है - छापाखाना. छापाखाना क्या है – कागज़. एक माचिस की तीली से कितना भी ढेर कागज़ का हो, राख का ढेर बन जाता है.
यदि यह समझ आता है तो “सुधार” की आवश्यकता स्वीकार होती है. क्या सुधार होना है? जीवचेतना से मानवचेतना में संक्रमित होना है. समझदारी से समाधान और श्रम से समृद्धि को सिद्ध करना है. समझदारी से समाधान होता है, तो श्रम से समृद्धि का रास्ता बनता है. समाधान-समृद्धि पूर्वक ही लफ्फाजी समाप्त होता है, संघर्ष समाप्त होता है, युद्ध समाप्त होता है, शोषण समाप्त होता है. अभी तक आयी दोनों विचारधाराओं – आदर्शवाद और भौतिकवाद – दोनों से व्यक्तिवाद और समुदायवाद ही होता है. आदर्शवादी देवासुर संग्राम की दुहाई देते हैं, भौतिकवादी मानवों के बीच संग्राम की दुहाई देते हैं. इन दोनों विचारधाराओं के तले दबे हुए सभी मानवों में इस “सुधार” की अपेक्षा और आवश्यकता बनी हुई है. “सुधार” के स्वरूप में मानव-चेतना, देवचेतना, दिव्यचेतना को प्रस्तावित किया है. इसका नाम दिया है – “चेतना विकास”. चेतना-विकास के साथ ही है – “मूल्य शिक्षा”.
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
आहार-विहार-व्यवहार को लेकर सभी मानवों में एकरूपता होने की आवश्यकता है या नहीं है? यदि है, तो उस एकरूपता का क्या स्वरूप होगा?
आहार-विहार-व्यवहार की सुनिश्चयता के पश्चात ही मानवीय परंपरा की शुरुआत होता है. इससे पहले मानव समुदाय परंपरा में रहता है. अभी तक मानव समुदाय-चेतना या जीवचेतना में जिया है. इसलिए मानवों में आहार-विहार-व्यवहार की एकरूपता का कोई स्वरूप नहीं है. होना क्या चाहिए? – इस बारे में सोचा जा सकता है. इसको हर व्यक्ति सोच सकते है. हर व्यक्ति में सोचने का अधिकार समान रूप से कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता के रूप में रखा हुआ है.
विकल्प विधि से मानवचेतना पूर्वक आहार-विहार-व्यवहार का निश्चयन होता है. जीवचेतना में मानव का आहार-विहार-व्यवहार का स्वरूप सुनिश्चित होता ही नहीं है. जैसे – हाथी का आहार अलग है, बाघ का अलग है, गाय का अलग है, कुत्ते का अलग है. इसी तरह जीव-चेतना में जीते हुए मनुष्यों का आहार भी अलग-अलग होना स्वाभाविक हुआ. विहार और व्यवहार का स्वरूप भी जीवचेतना में जीते मानवों में अलग-अलग है.
आहार-विहार-व्यवहार की एकरूपता का स्वरूप ही समाज है. आहार-विहार-व्यवहार अलग-अलग रहते तक हम समाज कैसे बनाएंगे? “समाज” की परिकल्पना बहुत पहले से है. जीव-चेतना में जीते हुए मानव समुदाय से ऊपर उठ नहीं पाया. अभी समुदायों को ही समाज माने बैठे हैं. इन समुदायों में संघर्ष और युद्ध भावी हो गया.
संघर्ष और युद्ध को मोलते हुए आदमी सामाजिक कैसे हो पायेगा? अभी तक तो नहीं हुआ. हमको तो नहीं लगता कि संघर्ष और युद्ध के चलते आदमी सामाजिक हो सकता है. पैसे के लिए ही युद्ध होता है. पैसे के लिए ही संघर्ष होता है. पैसे को खा कर किसी का पेट नहीं भरता, फिर भी पैसे पर सभी ज्ञानी, विज्ञानी, अज्ञानी लटटू हैं! पैसे से वस्तु मिलता है, यह सोच कर पैसे पर लटटू हैं. वस्तु मिलना बंद हो गया तो पैसे का क्या करेंगे? हम १० व्यक्तियों में से कोई भी उत्पादन नहीं करे, और दसों के पास भी पैसे हों तो उनको वस्तु कहाँ से मिलेगा? जितना पैसे में पहले वस्तु मिलता था, आज उससे ज्यादा पैसे में मिलता है. तृप्ति वस्तु से ही है, पैसे से तृप्ति मिलती नहीं है. पैसा क्या है? – नोट. नोट क्या है - छापाखाना. छापाखाना क्या है – कागज़. एक माचिस की तीली से कितना भी ढेर कागज़ का हो, राख का ढेर बन जाता है.
यदि यह समझ आता है तो “सुधार” की आवश्यकता स्वीकार होती है. क्या सुधार होना है? जीवचेतना से मानवचेतना में संक्रमित होना है. समझदारी से समाधान और श्रम से समृद्धि को सिद्ध करना है. समझदारी से समाधान होता है, तो श्रम से समृद्धि का रास्ता बनता है. समाधान-समृद्धि पूर्वक ही लफ्फाजी समाप्त होता है, संघर्ष समाप्त होता है, युद्ध समाप्त होता है, शोषण समाप्त होता है. अभी तक आयी दोनों विचारधाराओं – आदर्शवाद और भौतिकवाद – दोनों से व्यक्तिवाद और समुदायवाद ही होता है. आदर्शवादी देवासुर संग्राम की दुहाई देते हैं, भौतिकवादी मानवों के बीच संग्राम की दुहाई देते हैं. इन दोनों विचारधाराओं के तले दबे हुए सभी मानवों में इस “सुधार” की अपेक्षा और आवश्यकता बनी हुई है. “सुधार” के स्वरूप में मानव-चेतना, देवचेतना, दिव्यचेतना को प्रस्तावित किया है. इसका नाम दिया है – “चेतना विकास”. चेतना-विकास के साथ ही है – “मूल्य शिक्षा”.
- अनुभव शिविर, जनवरी २०११, अमरकंटक, बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से
Wednesday, April 13, 2011
भाषा को बदलना विद्वता नहीं है।
भाषा को बदलना विद्वता नहीं है। जो आपने सुना उसको दूसरे शब्दों में बदल दिया तो आप समझे कहाँ? जो मैंने कहा, उसको आपने बदल दिया – वहाँ भ्रान्ति होता ही है। बदली हुई भाषा से वह अर्थ इंगित ही नहीं होता है, तो भ्रान्ति के अलावा क्या होगा? मूल शब्द का छूटने को ही विद्वता मान लिया। जैसा भाषा है, उसको सुना जाए, उससे जो अर्थ इंगित है, उसको अपनाया जाए। इसमें किसको क्या तकलीफ है?
- बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
- बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
अनुभव का प्रभाव
मनुष्य अनुभव पूर्वक संज्ञानीयता के साथ जब जीने लगता है तो जितने भी निरर्थकताएं उसके सामने आते हैं, वे निरस्त हो जाते हैं, उनका प्रभाव नहीं हो पाता। यही भ्रांत-अभ्रांत है। अनुभव में दृष्टा-पद समाई रहती है। दृष्टा-पद विधि से इन सब निरर्थकताओं का निराकरण होता रहता है तथा व्यवहार विधि से जागृति प्रमाणित होती जाती है। प्रमाण का प्रभाव चारों तरफ फ़ैल जाता है। उससे मानव सुरक्षित हो जाता है। अनुभव का प्रभाव बढ़ता ही जाता है, घटता नहीं है। अंततोगत्वा अनुभव-प्रभाव ही जीने का वैभव है। आज की स्थिति में सारी मानव-जाति व्यर्थ की बातें करने में और सुविधा-संग्रह के लिए जान देने में लगे हैं। अब यहाँ प्रस्ताव है – उपयोगिता, सदुपयोगिता और प्रयोजनशीलता के पक्ष में जी-जान लगाया जाए। जिसमे अपराध-मुक्ति का रास्ता है।
सुविधा-संग्रह विधि से अपराध-मुक्ति के लिए कोई रास्ता, कोई द्वार, कोई खिड़की, कोई छेद ही नहीं है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
सुविधा-संग्रह विधि से अपराध-मुक्ति के लिए कोई रास्ता, कोई द्वार, कोई खिड़की, कोई छेद ही नहीं है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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