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Wednesday, March 3, 2010

अवधारणा

अवधारणा = अभ्यास के लिए प्राप्त स्वीकृतियां

अभ्यास किस लिए? अभ्युदय को अपनाने के लिए, अपना स्वत्व बनाने के लिए। अभ्युदय का मतलब है - सर्वतोमुखी समाधान। जैसे किसी झाड के बीज को धरती में हम डालते हैं, उसको सींचते हैं, ताकि उसका वृक्ष हमारा स्वत्व बन सके। उसी तरह अवधारणा अभ्युदय का बीज है।

स्थिति-सत्य, वस्तु-स्थिति सत्य, और वस्तु-गत सत्य की अवधारणा होती है।

साक्षात्कार = शुभ के लिए जितनी भी सूचना (शब्द) मिलती है उससे जो वस्तु (अर्थ) इंगित होता है, उसको कल्पना में भर लेना। साक्षात्कार चित्त में होता है।

अवधारणा प्राप्त होने, साक्षात्कार होने तक ही मनुष्य का पुरुषार्थ है। अवधारणा प्राप्त होने के बाद, साक्षात्कार होने के बाद परमार्थ ही है। स्थिति-सत्य, वस्तु-स्थिति सत्य, और स्थिति सत्य की अवधारणा का बुद्धि में बोध होता है। उसके बाद स्थिति-सत्य अनुभव में आता है। सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति - सह-अस्तित्व ही स्थिति-सत्य है। यह अनुभव में आता है। अनुभव में आने पर इसकी निरंतरता हो जाती है।

स्थिति-सत्य (सह-अस्तित्व) में ही वस्तु-स्थिति सत्य और वस्तु-गत सत्य का प्रगटन होता है। वस्तु मूलतः रासायनिक, भौतिक, और जीवन स्वरूप में है। सम्पूर्ण वस्तुएं सत्ता में भीगी, डूबी, घिरी हैं। भीगे होने से ऊर्जा-सम्पन्नता है, डूबे होने से क्रियाशीलता है, घिरे होने से नियंत्रण है। यही सह-अस्तित्व है। यही नियति है। नियति विधि से ही हम ऊर्जा संपन्न हैं, नियति विधि से ही हम बल-संपन्न हैं, नियति विधि से ही हम नियंत्रित हैं। सह-अस्तित्व नित्य प्रगटन-शील है - यही नियति है। मनुष्य का जीवन और शरीर दोनों नियति-विधि से हैं। नियति विधि से ही हम साक्षात्कार तक पहुँचते हैं।

सह-अस्तित्व (नियति) नित्य प्रगटन-शील होने से अपने प्रतिरूप के स्वरूप में मानव को प्रस्तुत कर दिया - उसका प्रमाण अनुभव-मूलक विधि से ही होता है। इस तरह ईर्ष्या मुक्ति, द्वेष मुक्ति, अपराध-मुक्ति, और भ्रम-मुक्ति हो जाती है। ईर्ष्या, द्वेष, अपराध, और भ्रम से मुक्त हो जाना ही अनुभव संपन्न होने का प्रमाण है। ईर्ष्या, द्वेष, अपराध, और भ्रम से हम सम्बद्ध हैं, मतलब अनुभव हुआ नहीं है। यही "स्व-निरीक्षण" में देखने की बात है।

अनुभव का प्रमाण होता है। प्रमाण है - परंपरा में पीढी से पीढी अनुभव अंतरित होना। इसका नाम है - "अनुभव मूलक विधि"।  अनुभव-मूलक विधि के बिना प्रमाण नहीं है।

सत्ता स्वयं ज्ञान-स्वरूप है। चैतन्य-प्रकृति को सत्ता ज्ञान-स्वरूप में प्राप्त है। ज्ञान का प्रमाण मनुष्य व्यवहार में न्याय-स्वरूप में प्रस्तुत करता है, उत्पादन में नियम-नियंत्रण-संतुलन रूप में प्रस्तुत करता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)

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