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Saturday, March 27, 2010

प्रयोजन पहले विश्लेषण बाद में


हम आँख से कुछ देखते हैं, स्पर्श से कुछ देखते हैं - इस तरह पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से देखने की जो विधि है उसको स्वीकारने पर जीवन में एक कम्पनात्मक गति होती है.  इसके पहले जीवन शरीर को जीवंत बनाये हुए था.  यदि जीवन शरीर को जीवंत न बनाए तो किसी संवेदना का पता नहीं चलेगा.

प्रश्न:  जीवंत बनाने के लिए जीवन क्या करता है?

उत्तर:  शरीर प्राणकोशिकाओं द्वारा रचित एक रचना है.  प्राणकोशिकाएं छलनी जैसे माँस, रक्त आदि सप्त-धातुओं से शरीर रचना रचना किया रहता है.  जीवन परमाणु में इन प्राणकोशिकाओं के आर-पार होने की अर्हता रहता है.  जीवन इनमे से हर जगह घूमता रहता है, जिससे हर प्राणकोशिका जीवंत रहता है.  

शरीर के जीवंत रहने का अर्थ है - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों के संकेतों को ग्रहण करने योग्य रहना.  शरीर यदि जीवंत नहीं है तो इन संकेतों को वह ग्रहण करेगा नहीं.

जीवन जब तक शरीर को बचाने का इच्छुक रहता है तब तक उसको वह जीवंत बनाए रखता है.  जब जीवन यह मान लेता है कि शरीर को नहीं बचाया जा सकता तो उसको छोड़ देता है.  रोजमर्रा में हमको इसकी हज़ारों गवाहियाँ मिलती हैं.  

प्रश्न:  पेड़-पौधों में प्राणकोशिकाएं बिना जीवन के कैसे रह पाते हैं?

उत्तर:  पेड़-पौधों में प्राणकोशिकाएं "जीवंत" नहीं "सप्राणित" रहते हैं.  जीवन के शरीर को चलाने के लिए मेधस की आवश्यकता है जो झाड-पौधों में नहीं पाया जाता.  झाड़-पौधों में जीवन नहीं होता.  

प्रश्न:  जीवन्तता के मूल में जीवन है, इसको हम कैसे मान लें?

उत्तर: जीवन के अस्तित्व पर ध्यान न दें तो यह आपकी ही उदारता है!  आप इसको अपनी आवश्यकता के अनुसार ही इसको स्वीकारोगे.  इसकी विवेचना करना पड़ेगा, यथास्थिति पर विश्वास रखना पड़ेगा.  मनगढ़ंत विवेचना से आपका कोई कल्याण होने वाला नहीं है.  वस्तु जैसा है, उसकी वैसी ही विवेचना कीजिये.

जैसे - झाड़-पौधों, जीवों और मानव को एक ही प्रकार का बताना अपनी ही हवसबाजी है.  इस विवेचना से तो जीव और मानव भी आहार की वस्तु हैं!

मनुष्य अपनी कल्पनाओं से बहुत सारी परेशानियों को ओढ़ा रहता है.  इसको "भ्रम" नाम दिया.  भ्रम का परिहार है - जो वस्तु जैसा है उसको वैसा ही अध्ययन किया जाए.   प्रयोजन समझ के फिर प्रक्रिया को पहचानना या  प्रक्रिया समझ के फिर प्रयोजन को पहचानना - इन दो विधियों से अध्ययन हो सकता है.  किसी भी वस्तु के प्रयोजन को समाधान विधि से, समृद्धि विधि से, अभयता विधि से या सहअस्तित्व विधि से पहचानें - मानव के लिए वांछित उतना ही है. इसके अलावा वांछित कुछ भी नहीं है.  मानव सहज लक्ष्य (वांछा) के अर्थ में किसी भी वस्तु के प्रयोजन को पहचानिए.  मानव लक्ष्य के अर्थ में उस वस्तु के प्रयोजन को पहचानने के बाद (उसकी प्रक्रिया समझने के लिए) उसका विश्लेषण-संश्लेषण, खंड-विखंड जो करना है करिए -  आपको सब स्पष्ट होगा.

प्रयोजन को पहचाने बिना विश्लेषण की काट-पीट किये तो नीम-हकीम खतरे-जान ही होगा.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (१९९७, आन्वरी)

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