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Sunday, March 28, 2010

सम्बन्ध और जीवन





मानव को इन्द्रियों से कुछ ज्ञानार्जन होता है, और कुछ ज्ञानार्जन उसको समझने से होता है.  जो ज्ञानार्जन होता है, उसको वह क्रियान्वित करता है.

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों के सन्निकर्ष होने पर इनका संकेत मेधस में पहुँचता है.  मेधस में एक कम्पन या तरंग होता है जिससे ज्ञानेन्द्रियों में क्या हुआ इसका ज्ञानार्जन या ज्ञानोदय जीवन में होता है.  उस ज्ञानार्जन को जब मेधस में प्रसारित करता है तो शरीर द्वारा क्रिया का संपादन होता है.  

इन्द्रियों से ज्ञानार्जन और निर्वाह की इतनी ही सीमा है.  जैसे - सम्बन्ध का ज्ञान इन्द्रियों से नहीं होता.  यह "समझ" में आता है.  जीवन का संबंधों से, प्रयोजनों से व्यंजित होना = साक्षात्कार होना, बोध होना, अनुभव होना.  ये व्यंजना जीवन में हो जाने पर हम उसको आवश्यकता अनुसार समाधान स्वरूप में प्रमाणित करते रहते हैं.  समझ और व्यवहार के बीच मधुरिम स्थिति का नाम है - समाधान.

प्रत्येक एक सम्पूर्णता से जुड़ा है.  एक परमाणु अंश अनेक परमाणु अंशों से जुड़ा है.  एक अणु अन्य अणुओं से जुड़ा है.  एक जीवन अन्य जीवनों से जुड़ा है.  एक सौरव्यूह अनेक सौरव्यूहों से जुड़ा है.  एक के साथ एक मिलके ये परस्पर नियंत्रित हैं और व्यवस्था को प्रमाणित कर रहे हैं.  यह ज्ञान जीवन में "समझ" स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है.  

 एक मानव का दूसरे मानव के साथ सम्बन्ध है.  जैसे - भाई सम्बन्ध.  भाई सम्बन्ध का अर्थ है - परस्पर अभ्युदय के लिए यत्नशील, प्रयत्नशील, कार्यशील.  यह इसका मूल स्वरूप है.  इस सम्बन्ध की पहचान के लिए ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का कोई वास्ता नहीं है.  यद्यपि सम्बन्ध का निर्वाह करते समय ज्ञानेन्द्रियों/कर्मेन्द्रियों का उपयोग है.  

जीवन और शरीर का भी सम्बन्ध है - जिससे जीवन को संवेदनाओं का ज्ञान होता है.  जीवन यदि शरीर के आधार पर संबंधों को पहचानता है तो अच्छा लगते तक उस "सम्बन्ध" को पहचानता है.  जीवन के आधार पर संबंधों को पहचानता है तो उन संबंधों के प्रयोजनों को जानता है, मानता है, फिर पहचानता है.  जीवन द्वारा सम्बन्ध को जानने, मानने और पहचानने में इन्द्रियों का उपयोग नहीं है.  जीवन में ही सम्बन्ध को पहचानने का सामर्थ्य है. जीवन इन्द्रियों (शरीर) द्वारा निर्वाह करते समय व्यवहार में संबंधों के पहचाने होने का गारंटी दिला देता है!  संबंधों को जानने, मानने और पहचानने के बाद व्यवहार में मूल्यों का निर्वाह स्वयंस्फूर्त होता है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी)

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