शरीर की रचना गर्भाशय में होती है. गर्भाशय में जितना लम्बा-चौड़ा रचना हो पाती है, उसको 'शिशु' हमने नाम दिया है. इस संरचना के मूल में डिम्ब कोषा के डिम्ब सूत्र और शुक्र कोषा के शुक्र सूत्र - इन दोनों के संयोग से भ्रूण बनता है. भ्रूण विकसित हो कर शिशु बनता है. यह कार्य प्रकृति सहज विधि से आदिकाल से होता आया है.
गर्भ में ५ माह का शिशु होने पर मेधस रचना पूरा तैयार हो जाता है. मेधस रचना तैयार होने के बाद ही कोई न कोई जीवन शरीर रचना को संचालित करता है. इसका संकेत गर्भवती माँ को मिलता है - गर्भाशय में शिशु के अपने-आप घूमने लगने के रूप में. इस तरह भ्रूण से शिशु, जीवन और शरीर का संयोग, शरीर का बड़ा होना, फिर शिशु का जन्म. शिशु के जन्म के बाद शरीर का विकास फिर वंशानुषंगीय क्रम में ही होता है - बाल्य, कौमार्य, युवा, प्रौढ़ और फिर वृद्ध अवस्था यह क्रम से होना हमको पता चलता है.
मेधस तंत्र के आधार पर ही जीवन शरीर रचना को संचालित करता है. ज्ञानवाही तंत्र को तंत्रित करता है, संवेदनाएं काम करती हैं और संज्ञानशीलता प्रमाणित होती है. संज्ञानशील कार्यकलापों में जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप प्रमाणित होता है. संज्ञानशीलता विधि से ही जीवन का वैभव स्पष्ट होता है. केवल संवेदनशीलता विधि से जीवन को पहचानना बहुत कठिन है.
जीवों में वंशानुषंगीय विधि से संवेदनशीलता व्यक्त हुई है. यह मनुष्य को भ्रम में डालता है. घोड़ा, गधा, कुत्ता, बिल्ली में संवेदनाएं होती हैं और मनुष्य में भी संवेदनाएं होती हैं - इसलिए भ्रम होता है कि मानव भी उनके सदृश एक जीव ही है. जबकि मनुष्य जीव नहीं है. मनुष्य ज्ञानावस्था की इकाई है. जब मानव अपने कार्यकलापों को संज्ञानशीलता विधि से संपन्न करना शुरू करता है तब जीवन और शरीर का संयुक्त कार्यकलाप प्रमाणित होने लगता है.
प्रश्न: शरीर को कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में तैयार करने की उपयोगिता के बारे में आपका क्या मंतव्य है?
उत्तर: शरीर के बनने की प्रक्रिया को कृत्रिम रूप से घटित कराने के लिए मानव ने प्रयास किया, किन्तु प्राणकोषा को कृत्रिम रूप में रचित करवा पाने में असफल रहा है. इसके स्थान पर शरीर के अन्य स्थान जैसे हाथ-पाँव के चमड़े से कोषाओं को लेकर, उनसे सूत्रों को निकाल कर, भ्रूण को फलित बना कर, पुष्ट बना कर, उनको गर्भाशय या गर्भाशय के सदृश परिस्थितियों में शिशु को तैयार करने का सोचा गया, किया गया. एक ओर तो आप कृत्रिम विधि से शरीर रचना बनाने के प्रयोग करते हैं तो दूसरी ओर जनसँख्या वृद्धि की समस्या को रोते हैं - यह अंतर्विरोध है. व्यापार विधि से पैसा बनाने के लिए आपको इन प्रयोगों की आवश्यकता दिखती होगी, पर मुझे इसकी मानव परंपरा के लिए कोई आवश्यकता दिखती नहीं है.
- श्री ए नागराज के साथ सम्वाद पर आधारित (आन्वरी आश्रम, १९९९)
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