समाधान मानव की एक मूलभूत आवश्यकता है. भय से मुक्ति मानव की एक मूलभूत आवश्यकता है. ये दोनों होने के बाद हम समृद्धि के पास आते हैं. ये तीनो मिलने के बाद सहअस्तित्व प्रमाणित होता है. मानव का सदा-सदा प्राकृतिक और नैसर्गिक स्वरूप में जीने का यही स्वरूप है. मानव द्वारा इसको पहचानने की व्यवस्था है. पहचान करके इसको निर्वाह करने की व्यवस्था है. पहचानने पर मानव समझदार हो जाता है.
जैसे - एक परमाणु दूसरे परमाणु को पहचान कर अणु स्वरूप में हो जाता है, एक अणु दूसरे अणु को पहचान कर अणु रचित रचनाएँ हो जाते हैं, एक प्राणकोषा दूसरे प्राणकोषा को पहचान कर विविध प्रकार की प्राणावस्था की रचनाएँ हो जाते हैं, एक ईंट के दूरी ईंट को पहचानने की विधि से सीधा दीवार हो जाता है - इसी प्रकार अस्तित्व में हरेक वस्तु, हरेक रचना एक दूसरे को पहचानने के क्रम में रखी है.
मनुष्य भी इसी क्रम में अस्तित्व में एक वस्तु है. मनुष्य का दूसरे मनुष्य को पहचानने के क्रम में ही सही-गलती होती है. मनुष्य की चाहत को यदि उससे पूछते हैं तो वह 'सही' का ही पक्ष लेता है. 'सही' को यदि पहचानना है तो सऊर से पहचाना जाए.
हर मनुष्य समाधान चाहता है, इसलिए समाधान से जुड़ा जाए. हर मनुष्य भय से मुक्ति चाहता है, इसलिए अभयता से जुड़ा जाए. हर मनुष्य समृद्धि को चाहता है, इसलिए समृद्धि से जुड़ा जाए. अस्तित्व सहज विधि से हम सहअस्तित्व में हैं - इसलिए सहस्तित्व से जुड़ा जाए. समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व - ये चार विधि से मानव के सुखी होने की संभावना है. इसको प्रयोग करना है या नहीं करना है - यह हर व्यक्ति को निर्णय लेना है. प्रयोग करेंगे तो समझदार होंगे. प्रयोग नहीं करेंगे तो समझदार होंगे नहीं.
समझना वस्तु के रूप में ही होगा, भाषा के रूप में नहीं. समाधान वस्तु के रूप में क्या है? भय मुक्ति वास्तव में या वस्तु के रूप में क्या है? भय मुक्ति विश्वास है - और उसका धारक-वाहक मानव है. सदा-सदा वर्तमान में विश्वास रखना ही मानव के लिए भय मुक्ति का प्रमाण है. भय मुक्त विधि से मानव एक दूसरे से मिलेंगे तभी उनके सुखी होने की संभावना है. भयभीत हो कर एक दूसरे से मिलेंगे तो सुख की संभावना दूर दूर तक नहीं है.
मनुष्य को समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व चाहिए. इन चारों को अपने में संजो कर रखने के लिए मूल मन्त्र समझदारी है. समझदारी के साथ ईमानदारी वर्तता है तो ये चीजें अपने में आने लगती हैं. उसके साथ जिम्मेदारी लेने से प्रमाणित होने के और पास हो जाते हैं. फिर भागीदारी करने पर प्रमाणित हो ही जाते हैं.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी)
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