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Sunday, March 21, 2010

बल और भार



तरल, विरल और ठोस पदार्थ अपने वैभव को सहअस्तित्व में निरंतर प्रकाशित करना चाहते हैं.  तरल तरल के साथ रहना चाहता है, ठोस ठोस के साथ रहना चाहता है, विरल विरल के साथ रहना चाहता है.  सहअस्तित्व सूत्र से सूत्रित हो कर ये अपने भार को व्यक्त करते हैं.  जिसको आप-हम तौल पाते हैं.  धरती पर जितने भी छोटे-बड़े रचनाएँ हैं वे अपने भार को इसी विधि से प्रदर्शित करती हैं.  

ऊपर से ठोस वस्तु जब नीचे गिरता है, उसका कारण भी यही है कि ठोस ठोस के साथ रहना चाहता है.  ढाल की ओर पानी जाता है क्योंकि पानी के पास जाने के लिए पानी जाता है.  धरती के नीचे किसी विरल वस्तु को उत्पादित करें तो कुछ भी आप करें - वह ऊपर ही जाएगा!  विज्ञान संसार के पास कोई ऐसा तरीका नहीं है कि उस विरल पदार्थ में भार नहीं है.  उसमे भार रहता ही है.  विरल वस्तु के साथ विरल वस्तु सहअस्तित्व को प्रकाशित करता है, इस तरह वह अस्तित्व सहज व्यवस्था में भागीदारी करता है.

गुरुत्त्वाकर्षण और भार की व्याख्या सहअस्तित्व सहज व्यवस्था में भागीदारी का प्रदर्शन है.

यह स्वाभाविक है - वियोग के लिए जितने बल की आवश्यकता रहती है, संयोग के लिए उतने ही बल की आवश्यकता रहती है.  सहअस्तित्व को प्रकाशित करने के लिए जो ठोस-ठोस की ओर, तरल-तरल की ओर, विरल विरल की ओर जो दौड़ता है, उसकी गति में अवरोध करने पर उसके भार की गणना हमको मिलता है.  दौड़ने वाली वस्तु को हम कहीं भी रोक लेते हैं वहीं भार का प्रदर्शन होता है.

ठोस, तरल, विरल में भार और गुरुत्त्वाकर्षण का यह स्वरूप सहअस्तित्व सहज विन्यास है.  इसको हम अपने मन-गढ़ंत व्याख्या देते हैं तो हम कितने विज्ञानी हैं, कितने ज्ञानी हैं - इसको आप ही सोचिये, आप ही मूल्यांकन करिए, आप ही संसार का मार्गदर्शन करिए.

एक परमाणु में भी व्यवस्था का स्वरूप मिलता है.  परमाणु अपनी प्रकाशमानता को निरंतर बुलंद बनाए रखना चाहता है.  यह देख कर हमको प्रेरणा मिलती है कि मानव को भी व्यवस्था में जीने की ज़रूरत है.  अभी तक मानव व्यवस्था में जिया नहीं है - यह बात सही है.  मनुष्य ने अभी तक जितना भी किया उसमे आबादी कम और बर्बादी ज्यादा किया है.  आबादी तो केवल जनसँख्या वृद्धि को लेकर ही दिखता है!  दूसरा है - दूरगमन, दूरदर्शन, दूरश्रवण सम्बन्धी यंत्र-तंत्र को हासिल कर लेना.  बाकी सब बर्बादी है.  यदि हमको यह समझ में आता है तो हमको यह पीड़ा होना चाहिए कि हम व्यवस्था में जियें, व्यवस्था में प्रमाणित होवें.  हमारे सुखी होने के लिए दूसरों के सुखी होने की आवश्यकता है, इस बात का निश्चयन करें.  ऐसा मैंने देखा है, समझा है, मैं व्यवस्था में ही जीता हूँ.  मैं स्वयं में प्रमाणित हूँ.  आप प्रमाणित होना चाहते हैं या नहीं - इसका निर्णय आप ही करोगे.

श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी)

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