अध्ययन पूर्वक:
साक्षात्कार हुआ = शब्द से इंगित वस्तु पहचान में आई।
बोध हुआ = पहचान में आई वस्तु स्वीकार हुई।
इस प्रकार हुए साक्षात्कार, बोध के समर्थन में ही अनुभव होता है।
साक्षात्कार केवल सच्चाई का ही होता है - बाकी सब छूटता जाता है। बुद्धि में सच्चाइयाँ परिष्कृत हो कर पहुँचती हैं। जिसका मतलब है, शब्द के अर्थ स्वरूप में वस्तु की पहचान स्वीकार हो गयी। उसी की स्वीकृति जो आत्मा में हुई, उसको हम "अनुभव" कह रहे हैं।
चारों अवस्थाओं के साथ अनुभव होता है। सह-अस्तित्व "में" अनुभव होता है। सह-अस्तित्व चारों अवस्थाओं के साथ है।
अध्ययन विधि से यथास्थितियों और प्रयोजनों का चित्त में "साक्षात्कार" और बुद्धि में "बोध" होता है। साक्षात्कार और बोध जो हुआ, उसके समर्थन में ही अनुभव होता है। बुद्धि में ही अस्तित्व की स्वीकृतियों के समर्थन में ही आत्मा में अनुभव होता है। बोध होने के बाद आत्मा में "अनुभव" होता ही है। उसके लिए कोई अलग से जोर नहीं लगाना पड़ता। जिस बात का बोध हुआ था, उसकी "मुहर" है अनुभव!
आत्मा में अनुभव ही होता है - और कुछ होता ही नहीं है। आत्मा में "अध्ययन-कक्ष" कुछ है ही नहीं! बुद्धि में बोध तक अध्ययन है। बोध होने के बाद सह-अस्तित्व में अनुभव होता है। अनुभव ही प्रमाण होता है।
अनुभव पूर्वक जीवन में प्रामाणिकता आ जाती है।
अनुभव पूर्वक अनुभव-प्रमाण का बोध पुनः बुद्धि में होता है। अनुभव ही प्रमाण स्वरूप में बुद्धि में प्रकाशित होता है। अनुभव-प्रमाण बोध संपन्न बुद्धि फिर पूरे जीवन पर प्रभावित हो जाती है। अनुभव-प्रमाण (प्रामाणिकता) सम्पूर्ण जीवन पर बुद्धि पूर्वक ही प्रभावित होती है। अनुभव-प्रमाण का ही प्रकाशन या प्रभावन पूरे जीवन में हो जाता है - बुद्धि में, चित्त में, वृत्ति में, मन में। पूरा जीवन अनुभव-प्रमाण में तदाकार-तद्रूप हो जाता है। जिससे चित्त में चिंतन, वृत्ति में न्याय-धर्म-सत्य का तुलन, और मन में मूल्यों का आस्वादन होता है।
इस तरह पूरे जीवन में अनुभव प्रकाशित होने पर व्यवहार में भी अनुभव प्रकाशित होने लगता है। यही सत्य में तदाकार-तद्रूप होने का फल है। ऐसे अनुभव-मूलक विधि से जीने के स्वरूप का नाम है - "मानव चेतना"। अनुभव के बाद मानवत्व स्वरूप में जीना बन ही जाता है। मानवत्व स्वरूप में जीने का मॉडल है - समाधान -समृद्धि। मानव-चेतना पूर्वक जीना शुरू करते हैं, तो अखंड-समाज और सार्वभौम-व्यवस्था की सूत्र-व्याख्या होने लगती है। इस तरह "उपकार" करने का अधिकार आ जाता है।
प्रश्न: अध्ययन-बोध (अनुभव-गामी बोध) और अनुभव-प्रमाण बोध (अनुभव-मूलक बोध) में क्या अंतर है?
उत्तर: अध्ययन पूर्वक शब्द से अर्थ और अर्थ से वस्तु तक पहुंचना बनता है। अनुभव में जो अध्ययन पूर्वक सच्चाइयों का बोध हुआ था - उसकी स्वीकृति हो जाती है। अनुभव में इस प्रकार स्वीकृति होने पर प्रामाणिकता आ गयी। जिसके फल-स्वरूप बुद्धि में प्रमाण-बोध होता है। जिसको प्रमाणित करने के लिए बुद्धि, चित्त, वृत्ति, मन सब काम करने लगते हैं।
बुद्धि का वर्चस्व (मौलिकता) बोध ही है। चित्त का वर्चस्व चिंतन ही है। वृत्ति का वर्चस्व न्याय-धर्म-सत्य के आधार पर तुलन ही है। मन का वर्चस्व मूल्यों का आस्वादन करना ही है। इस ढंग से पूरा जीवन "अनुभव-मय" हो जाता है।
अध्ययन विधि से अनुभव में स्वीकृति तक पहुँचते हैं, अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित होने तक पहुँचते हैं। जो अध्ययन कराया - उसको प्रमाणित करना।
प्रमाणित होने की शुरुआत अनुभव-मूलक चिंतन से है। उससे पहले दृष्टापद है। अनुभव पूर्वक मनुष्य दृष्टा पद में हो जाता है। प्रमाणित होने जीने में परंपरा के रूप में ही होता है।
अनुभव तभी होता है जब बोध सही हुआ हो। "सही" के अलावा कुछ बोध होता भी नहीं है। "सही" के अलावा दूसरा कुछ भी मनुष्य के आगे आता है, उसको तर्क फंसा ही लेता है। जब तक "सही-पन" का प्रस्ताव मनुष्य के आगे नहीं आता तब तक तर्क उसे अपने चंगुल में फंसाए ही रखता है। "सहीपन" तर्क के चंगुल में आता नहीं है। तभी सही-पन का बोध होता है। सह-अस्तित्व स्वरूप में अस्तित्व-बोध बुद्धि में होता है। सह-अस्तित्व परम-सत्य है - इसीलिये अनुभव होता है। सह-अस्तित्व बोध होने के बाद ही सह-अस्तित्व में अनुभव होता है। मैं जो साधना-समाधि-संयम पूर्वक जो चला - उसमें भी सह-अस्तित्व बोध होने के बाद ही मुझे अनुभव हुआ।
अध्ययन पूरा होने पर ही अनुभव होता है। अध्ययन की वस्तु सम्पूर्ण सह-अस्तित्व ही है। अध्ययन यदि पूरा होता है तो प्रमाणित करने के संकल्प के साथ तुरंत अनुभव होता है। अनुभव पूर्वक ही प्रमाणित करने का प्यास तत्काल बुझता है। अध्ययन पूरा होने की स्थिति में प्रमाणित होने की तत्परता बनता है।
यदि आत्मा में अनुभव होता है, तो हम स्वयम को प्रमाणित करने के योग्य हो गए।
अनुभव-मूलक विधि से ही प्रमाण होता है। दूसरा कोई प्रमाण होता नहीं है।
अनुभव-मूलक विधि से प्रमाण ही होता है। दूसरा कुछ होता नहीं है। अनुभव ही अंतिम प्रमाण है। अनुभव के बिना प्रमाणित होने का हैसियत तो आएगा नहीं!
अनुभव के प्रकाशन का स्वरूप है - न्याय, धर्म, सत्य। आखिरी बात यही आती है - "जीने देना है, और जीना है। होने देना है, होते ही रहना है।"
इसमें क्या तर्क करोगे - बताओ? हर जीवन न्याय-धर्म-सत्य को चाहता ही है। जन्म से ही बच्चे न्याय के याचक होते हैं, सही कार्य-व्यव्हार करना चाहते हैं, और सत्य वक्ता होते हैं। हर बच्चा न्याय का याचक है - उसमें न्याय-प्रदायी क्षमता को स्थापित करने की आवश्यकता है। हर बच्चा सही कार्य-व्यव्हार करना चाहता है - उसमें कर्म और व्यव्हार के अभ्यास कराने की आवश्यकता है। हर बच्चा सत्य-वक्ता है (जैसा देखा-सुना रहता है, वैसा ही बोलता है) - उसमें सत्य-बोध कराने की आवश्यकता है।
प्रमाणित होने की "प्रवृत्ति" मनुष्य में है ही! प्रमाणित होने की "आवश्यकता" मनुष्य में है ही! लेकिन प्रमाणित होने के लिए "वास्तविकताओं की समझ" मनुष्य में अभी तक नहीं थी, वह स्पष्ट करने के लिए ही मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन है।
जब तक अनुभव नहीं है, तब तक तर्क का झंझट बना ही रहता है। ऐसा तर्क "निश्चयन विधि" से जीने के लिए बाधक है। निश्चयन विधि से जीने के लिए अनुभव ही है। सह-अस्तित्व स्थिर है, विकास और जागृति निश्चित है। इन तीन बातों को ही जीने में प्रमाणित किया जाता है। इन तीन बातों को समझाने के लिए ही पूरा दर्शन, वाद, शास्त्र लिखा है। पूरा वांग्मय संक्षिप्त होने पर पांच सूत्रों में सूत्रित होता है - सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, सह-अस्तित्व में विकास, सह-अस्तित्व में जागृति-क्रम, और सह-अस्तित्व में जागृति।
अनुभव मूलक विधि से जीने की प्रक्रिया है - अभिव्यक्ति, संप्रेषण, और प्रकाशन। इन तीन तरीकों से मनुष्य अपने अनुभव को जीने में प्रस्तुत करता है। प्रकाशन अनुभव की ज्यादा व्याख्या है। सम्प्रेष्णा में सीमित-व्याख्या है। अभिव्यक्ति में संक्षिप्त-व्याख्या है। सामने व्यक्ति के अधिकार के अनुसार व्याख्या होती है। अध्ययन का लक्ष्य है - विस्तार से संक्षिप्त की ओर बढ़ना। स्वयं प्रमाण स्वरूप हो जाना। इससे ज्यादा कुछ होता नहीं है। इससे ज्यादा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कल्पना के आधार पर ही मनुष्य ज्ञान-संपन्न होता है। नियम-नियंत्रण-संतुलन-न्याय-धर्म-सत्य - ये ६ आयामों में ही मनुष्य के प्रमाणित होने की सीमा है। इससे ज्यादा नहीं है।
आप इस बात को पूरा समझ कर मेरे बराबर अच्छा जियोगे, या मुझसे ज्यादा अच्छा जियोगे! आपकी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता इस समझ से जुड़ेगा तो आप हमसे अच्छे हो ही गए! इससे पहले न भौतिकवाद ऐसे सोच पाया, न आदर्शवाद ऐसे सोच पाया। भौतिकवाद का मृत्यु reservation (intellectual property right) और specialization में हुआ। आदर्शवाद रहस्य में जा कर फंस गया। इन दोनों के विकल्प में मध्यस्थ-दर्शन प्रस्तुत हुआ है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
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