This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
ANNOUNCEMENTS
Sunday, March 28, 2010
सम्बन्ध और जीवन
Saturday, March 27, 2010
प्रयोजन पहले विश्लेषण बाद में
उत्तर: जीवन के अस्तित्व पर ध्यान न दें तो यह आपकी ही उदारता है! आप इसको अपनी आवश्यकता के अनुसार ही इसको स्वीकारोगे. इसकी विवेचना करना पड़ेगा, यथास्थिति पर विश्वास रखना पड़ेगा. मनगढ़ंत विवेचना से आपका कोई कल्याण होने वाला नहीं है. वस्तु जैसा है, उसकी वैसी ही विवेचना कीजिये.
जैसे - झाड़-पौधों, जीवों और मानव को एक ही प्रकार का बताना अपनी ही हवसबाजी है. इस विवेचना से तो जीव और मानव भी आहार की वस्तु हैं!
मनुष्य अपनी कल्पनाओं से बहुत सारी परेशानियों को ओढ़ा रहता है. इसको "भ्रम" नाम दिया. भ्रम का परिहार है - जो वस्तु जैसा है उसको वैसा ही अध्ययन किया जाए. प्रयोजन समझ के फिर प्रक्रिया को पहचानना या प्रक्रिया समझ के फिर प्रयोजन को पहचानना - इन दो विधियों से अध्ययन हो सकता है. किसी भी वस्तु के प्रयोजन को समाधान विधि से, समृद्धि विधि से, अभयता विधि से या सहअस्तित्व विधि से पहचानें - मानव के लिए वांछित उतना ही है. इसके अलावा वांछित कुछ भी नहीं है. मानव सहज लक्ष्य (वांछा) के अर्थ में किसी भी वस्तु के प्रयोजन को पहचानिए. मानव लक्ष्य के अर्थ में उस वस्तु के प्रयोजन को पहचानने के बाद (उसकी प्रक्रिया समझने के लिए) उसका विश्लेषण-संश्लेषण, खंड-विखंड जो करना है करिए - आपको सब स्पष्ट होगा.
प्रयोजन को पहचाने बिना विश्लेषण की काट-पीट किये तो नीम-हकीम खतरे-जान ही होगा.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (१९९७, आन्वरी)
समाधान = भय मुक्ति
नाश के भय से मुक्ति
Friday, March 26, 2010
विज्ञान विधि की नासमझी
Sunday, March 21, 2010
बल और भार
Saturday, March 20, 2010
समझदारी के साथ ईमानदारी
समझ के इस प्रस्ताव को लेकर ईमानदारी के साथ ही चला जाता है, या चलना पड़ता है। बेईमानी इस बात के साथ टिक नहीं पाता है। टिकता भी है तो क्षणिक रूप में।
(१) प्रस्ताव की सूचना देने में प्रयासरत होना।
सार्वभौम व्यवस्था में परिवार से विश्व-परिवार तक जीने की व्यवस्था है. समाधान समृद्धि पूर्वक जिए बिना कोई विश्वपरिवार में भागीदारी नहीं करेगा, चोरी ही करेगा! समझने के बाद आदमी चोरी कर नहीं सकता. समझदारी से समाधान संपन्न होने पर समृद्धि भावी हो जाती है.
व्यवस्था का पूरा ढांचा-खांचा दरिद्रों का नहीं है. व्यवस्था समाधान-समृद्धि संपन्न व्यक्तियों से बनती है. समाधान-समृद्धि के बिना एक भी आदमी व्यवस्था में जियेगा नहीं.
Friday, March 19, 2010
ज्ञानवाही तंत्र और क्रियावाही तंत्र का भेद
साँस लेना क्रियावाही तंत्र है. गंध से सुगंध की अपेक्षा करना ज्ञानवाही तंत्र है.
भोजन को मुख से ग्रहण करना, उसको पचाना और मल विसर्जन क्रियावाही तंत्र है. जीभ में रूचि के अपेक्षा करना ज्ञानवाही तंत्र है.
शब्द का कान द्वारा सुनना क्रियावाही तंत्र है. शब्द में सुन्दरता की अपेक्षा करना ज्ञानवाही तंत्र है.
हाथ से छूना क्रियावाही तंत्र है. सुखद स्पर्श की अपेक्षा करना ज्ञानवाही तंत्र है.
क्रियावाही तंत्र के कार्यकलाप के संपादन के लिए भी जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाए रखने का आवश्यकता बना रहता है. ज्ञानवाही तंत्र का कोई भी काम जीवन के बिना हो ही नहीं सकता. जीवन के ओझिल होने पर ज्ञानवाही तंत्र लुप्त प्राय हो जाता है. क्रियावाही तंत्र जीवन के बिना कुछ देर चलता रह सकता है, कुछ देर बाद वह भी बंद हो जाता है.
ज्ञानवाही तंत्र के बंद होने के बाद क्रियावाही तंत्र बंद होता है. शरीर में आये रोगों को ठीक करने के लिए जीवन ज्ञानवाही तंत्र से भरसक प्रयत्न करता ही रहता है. हरेक शरीर को चलाने वाला जीवन यह करता है. अंततोगत्वा जब ठीक नहीं हो पाता है तो शरीर को छोड़ देता है.
संवेदनाओं को व्यक्त कर देना ज्ञानवाही तंत्र का प्रारंभिक स्वरूप है. इस प्रारम्भिक स्वरूप में जीव संसार और मनुष्य संसार में समानता ही रहती है. मनुष्य परंपरा में अभी तक का प्रचलन यही रहा है. भौतिकवाद और आदर्शवाद ने मनुष्य को एक प्रकार का जीव ही कहा है.
ज्ञानवाही तंत्र का सार्थक स्वरूप है - न्याय, धर्म, सत्य को प्रमाणित करना.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित - आन्वरी आश्रम, १९९९
Monday, March 15, 2010
प्रामाणिकता की मुहर
अध्ययन पूर्वक:
साक्षात्कार हुआ = शब्द से इंगित वस्तु पहचान में आई।
बोध हुआ = पहचान में आई वस्तु स्वीकार हुई।
इस प्रकार हुए साक्षात्कार, बोध के समर्थन में ही अनुभव होता है।
साक्षात्कार केवल सच्चाई का ही होता है - बाकी सब छूटता जाता है। बुद्धि में सच्चाइयाँ परिष्कृत हो कर पहुँचती हैं। जिसका मतलब है, शब्द के अर्थ स्वरूप में वस्तु की पहचान स्वीकार हो गयी। उसी की स्वीकृति जो आत्मा में हुई, उसको हम "अनुभव" कह रहे हैं।
चारों अवस्थाओं के साथ अनुभव होता है। सह-अस्तित्व "में" अनुभव होता है। सह-अस्तित्व चारों अवस्थाओं के साथ है।
अध्ययन विधि से यथास्थितियों और प्रयोजनों का चित्त में "साक्षात्कार" और बुद्धि में "बोध" होता है। साक्षात्कार और बोध जो हुआ, उसके समर्थन में ही अनुभव होता है। बुद्धि में ही अस्तित्व की स्वीकृतियों के समर्थन में ही आत्मा में अनुभव होता है। बोध होने के बाद आत्मा में "अनुभव" होता ही है। उसके लिए कोई अलग से जोर नहीं लगाना पड़ता। जिस बात का बोध हुआ था, उसकी "मुहर" है अनुभव!
आत्मा में अनुभव ही होता है - और कुछ होता ही नहीं है। आत्मा में "अध्ययन-कक्ष" कुछ है ही नहीं! बुद्धि में बोध तक अध्ययन है। बोध होने के बाद सह-अस्तित्व में अनुभव होता है। अनुभव ही प्रमाण होता है।
अनुभव पूर्वक जीवन में प्रामाणिकता आ जाती है।
अनुभव पूर्वक अनुभव-प्रमाण का बोध पुनः बुद्धि में होता है। अनुभव ही प्रमाण स्वरूप में बुद्धि में प्रकाशित होता है। अनुभव-प्रमाण बोध संपन्न बुद्धि फिर पूरे जीवन पर प्रभावित हो जाती है। अनुभव-प्रमाण (प्रामाणिकता) सम्पूर्ण जीवन पर बुद्धि पूर्वक ही प्रभावित होती है। अनुभव-प्रमाण का ही प्रकाशन या प्रभावन पूरे जीवन में हो जाता है - बुद्धि में, चित्त में, वृत्ति में, मन में। पूरा जीवन अनुभव-प्रमाण में तदाकार-तद्रूप हो जाता है। जिससे चित्त में चिंतन, वृत्ति में न्याय-धर्म-सत्य का तुलन, और मन में मूल्यों का आस्वादन होता है।
इस तरह पूरे जीवन में अनुभव प्रकाशित होने पर व्यवहार में भी अनुभव प्रकाशित होने लगता है। यही सत्य में तदाकार-तद्रूप होने का फल है। ऐसे अनुभव-मूलक विधि से जीने के स्वरूप का नाम है - "मानव चेतना"। अनुभव के बाद मानवत्व स्वरूप में जीना बन ही जाता है। मानवत्व स्वरूप में जीने का मॉडल है - समाधान -समृद्धि। मानव-चेतना पूर्वक जीना शुरू करते हैं, तो अखंड-समाज और सार्वभौम-व्यवस्था की सूत्र-व्याख्या होने लगती है। इस तरह "उपकार" करने का अधिकार आ जाता है।
प्रश्न: अध्ययन-बोध (अनुभव-गामी बोध) और अनुभव-प्रमाण बोध (अनुभव-मूलक बोध) में क्या अंतर है?
उत्तर: अध्ययन पूर्वक शब्द से अर्थ और अर्थ से वस्तु तक पहुंचना बनता है। अनुभव में जो अध्ययन पूर्वक सच्चाइयों का बोध हुआ था - उसकी स्वीकृति हो जाती है। अनुभव में इस प्रकार स्वीकृति होने पर प्रामाणिकता आ गयी। जिसके फल-स्वरूप बुद्धि में प्रमाण-बोध होता है। जिसको प्रमाणित करने के लिए बुद्धि, चित्त, वृत्ति, मन सब काम करने लगते हैं।
बुद्धि का वर्चस्व (मौलिकता) बोध ही है। चित्त का वर्चस्व चिंतन ही है। वृत्ति का वर्चस्व न्याय-धर्म-सत्य के आधार पर तुलन ही है। मन का वर्चस्व मूल्यों का आस्वादन करना ही है। इस ढंग से पूरा जीवन "अनुभव-मय" हो जाता है।
अध्ययन विधि से अनुभव में स्वीकृति तक पहुँचते हैं, अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित होने तक पहुँचते हैं। जो अध्ययन कराया - उसको प्रमाणित करना।
प्रमाणित होने की शुरुआत अनुभव-मूलक चिंतन से है। उससे पहले दृष्टापद है। अनुभव पूर्वक मनुष्य दृष्टा पद में हो जाता है। प्रमाणित होने जीने में परंपरा के रूप में ही होता है।
अनुभव तभी होता है जब बोध सही हुआ हो। "सही" के अलावा कुछ बोध होता भी नहीं है। "सही" के अलावा दूसरा कुछ भी मनुष्य के आगे आता है, उसको तर्क फंसा ही लेता है। जब तक "सही-पन" का प्रस्ताव मनुष्य के आगे नहीं आता तब तक तर्क उसे अपने चंगुल में फंसाए ही रखता है। "सहीपन" तर्क के चंगुल में आता नहीं है। तभी सही-पन का बोध होता है। सह-अस्तित्व स्वरूप में अस्तित्व-बोध बुद्धि में होता है। सह-अस्तित्व परम-सत्य है - इसीलिये अनुभव होता है। सह-अस्तित्व बोध होने के बाद ही सह-अस्तित्व में अनुभव होता है। मैं जो साधना-समाधि-संयम पूर्वक जो चला - उसमें भी सह-अस्तित्व बोध होने के बाद ही मुझे अनुभव हुआ।
अध्ययन पूरा होने पर ही अनुभव होता है। अध्ययन की वस्तु सम्पूर्ण सह-अस्तित्व ही है। अध्ययन यदि पूरा होता है तो प्रमाणित करने के संकल्प के साथ तुरंत अनुभव होता है। अनुभव पूर्वक ही प्रमाणित करने का प्यास तत्काल बुझता है। अध्ययन पूरा होने की स्थिति में प्रमाणित होने की तत्परता बनता है।
यदि आत्मा में अनुभव होता है, तो हम स्वयम को प्रमाणित करने के योग्य हो गए।
अनुभव-मूलक विधि से ही प्रमाण होता है। दूसरा कोई प्रमाण होता नहीं है।
अनुभव-मूलक विधि से प्रमाण ही होता है। दूसरा कुछ होता नहीं है। अनुभव ही अंतिम प्रमाण है। अनुभव के बिना प्रमाणित होने का हैसियत तो आएगा नहीं!
अनुभव के प्रकाशन का स्वरूप है - न्याय, धर्म, सत्य। आखिरी बात यही आती है - "जीने देना है, और जीना है। होने देना है, होते ही रहना है।"
इसमें क्या तर्क करोगे - बताओ? हर जीवन न्याय-धर्म-सत्य को चाहता ही है। जन्म से ही बच्चे न्याय के याचक होते हैं, सही कार्य-व्यव्हार करना चाहते हैं, और सत्य वक्ता होते हैं। हर बच्चा न्याय का याचक है - उसमें न्याय-प्रदायी क्षमता को स्थापित करने की आवश्यकता है। हर बच्चा सही कार्य-व्यव्हार करना चाहता है - उसमें कर्म और व्यव्हार के अभ्यास कराने की आवश्यकता है। हर बच्चा सत्य-वक्ता है (जैसा देखा-सुना रहता है, वैसा ही बोलता है) - उसमें सत्य-बोध कराने की आवश्यकता है।
प्रमाणित होने की "प्रवृत्ति" मनुष्य में है ही! प्रमाणित होने की "आवश्यकता" मनुष्य में है ही! लेकिन प्रमाणित होने के लिए "वास्तविकताओं की समझ" मनुष्य में अभी तक नहीं थी, वह स्पष्ट करने के लिए ही मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन है।
जब तक अनुभव नहीं है, तब तक तर्क का झंझट बना ही रहता है। ऐसा तर्क "निश्चयन विधि" से जीने के लिए बाधक है। निश्चयन विधि से जीने के लिए अनुभव ही है। सह-अस्तित्व स्थिर है, विकास और जागृति निश्चित है। इन तीन बातों को ही जीने में प्रमाणित किया जाता है। इन तीन बातों को समझाने के लिए ही पूरा दर्शन, वाद, शास्त्र लिखा है। पूरा वांग्मय संक्षिप्त होने पर पांच सूत्रों में सूत्रित होता है - सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, सह-अस्तित्व में विकास, सह-अस्तित्व में जागृति-क्रम, और सह-अस्तित्व में जागृति।
अनुभव मूलक विधि से जीने की प्रक्रिया है - अभिव्यक्ति, संप्रेषण, और प्रकाशन। इन तीन तरीकों से मनुष्य अपने अनुभव को जीने में प्रस्तुत करता है। प्रकाशन अनुभव की ज्यादा व्याख्या है। सम्प्रेष्णा में सीमित-व्याख्या है। अभिव्यक्ति में संक्षिप्त-व्याख्या है। सामने व्यक्ति के अधिकार के अनुसार व्याख्या होती है। अध्ययन का लक्ष्य है - विस्तार से संक्षिप्त की ओर बढ़ना। स्वयं प्रमाण स्वरूप हो जाना। इससे ज्यादा कुछ होता नहीं है। इससे ज्यादा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कल्पना के आधार पर ही मनुष्य ज्ञान-संपन्न होता है। नियम-नियंत्रण-संतुलन-न्याय-धर्म-सत्य - ये ६ आयामों में ही मनुष्य के प्रमाणित होने की सीमा है। इससे ज्यादा नहीं है।
आप इस बात को पूरा समझ कर मेरे बराबर अच्छा जियोगे, या मुझसे ज्यादा अच्छा जियोगे! आपकी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता इस समझ से जुड़ेगा तो आप हमसे अच्छे हो ही गए! इससे पहले न भौतिकवाद ऐसे सोच पाया, न आदर्शवाद ऐसे सोच पाया। भौतिकवाद का मृत्यु reservation (intellectual property right) और specialization में हुआ। आदर्शवाद रहस्य में जा कर फंस गया। इन दोनों के विकल्प में मध्यस्थ-दर्शन प्रस्तुत हुआ है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
Saturday, March 13, 2010
मानव जाति एक है, मानव धर्म एक है.
शरीर रचना बनने की प्रक्रिया
Wednesday, March 3, 2010
अवधारणा
अभ्यास किस लिए? अभ्युदय को अपनाने के लिए, अपना स्वत्व बनाने के लिए। अभ्युदय का मतलब है - सर्वतोमुखी समाधान। जैसे किसी झाड के बीज को धरती में हम डालते हैं, उसको सींचते हैं, ताकि उसका वृक्ष हमारा स्वत्व बन सके। उसी तरह अवधारणा अभ्युदय का बीज है।
स्थिति-सत्य, वस्तु-स्थिति सत्य, और वस्तु-गत सत्य की अवधारणा होती है।
साक्षात्कार = शुभ के लिए जितनी भी सूचना (शब्द) मिलती है उससे जो वस्तु (अर्थ) इंगित होता है, उसको कल्पना में भर लेना। साक्षात्कार चित्त में होता है।
अवधारणा प्राप्त होने, साक्षात्कार होने तक ही मनुष्य का पुरुषार्थ है। अवधारणा प्राप्त होने के बाद, साक्षात्कार होने के बाद परमार्थ ही है। स्थिति-सत्य, वस्तु-स्थिति सत्य, और स्थिति सत्य की अवधारणा का बुद्धि में बोध होता है। उसके बाद स्थिति-सत्य अनुभव में आता है। सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति - सह-अस्तित्व ही स्थिति-सत्य है। यह अनुभव में आता है। अनुभव में आने पर इसकी निरंतरता हो जाती है।
स्थिति-सत्य (सह-अस्तित्व) में ही वस्तु-स्थिति सत्य और वस्तु-गत सत्य का प्रगटन होता है। वस्तु मूलतः रासायनिक, भौतिक, और जीवन स्वरूप में है। सम्पूर्ण वस्तुएं सत्ता में भीगी, डूबी, घिरी हैं। भीगे होने से ऊर्जा-सम्पन्नता है, डूबे होने से क्रियाशीलता है, घिरे होने से नियंत्रण है। यही सह-अस्तित्व है। यही नियति है। नियति विधि से ही हम ऊर्जा संपन्न हैं, नियति विधि से ही हम बल-संपन्न हैं, नियति विधि से ही हम नियंत्रित हैं। सह-अस्तित्व नित्य प्रगटन-शील है - यही नियति है। मनुष्य का जीवन और शरीर दोनों नियति-विधि से हैं। नियति विधि से ही हम साक्षात्कार तक पहुँचते हैं।
सह-अस्तित्व (नियति) नित्य प्रगटन-शील होने से अपने प्रतिरूप के स्वरूप में मानव को प्रस्तुत कर दिया - उसका प्रमाण अनुभव-मूलक विधि से ही होता है। इस तरह ईर्ष्या मुक्ति, द्वेष मुक्ति, अपराध-मुक्ति, और भ्रम-मुक्ति हो जाती है। ईर्ष्या, द्वेष, अपराध, और भ्रम से मुक्त हो जाना ही अनुभव संपन्न होने का प्रमाण है। ईर्ष्या, द्वेष, अपराध, और भ्रम से हम सम्बद्ध हैं, मतलब अनुभव हुआ नहीं है। यही "स्व-निरीक्षण" में देखने की बात है।
अनुभव का प्रमाण होता है। प्रमाण है - परंपरा में पीढी से पीढी अनुभव अंतरित होना। इसका नाम है - "अनुभव मूलक विधि"। अनुभव-मूलक विधि के बिना प्रमाण नहीं है।
सत्ता स्वयं ज्ञान-स्वरूप है। चैतन्य-प्रकृति को सत्ता ज्ञान-स्वरूप में प्राप्त है। ज्ञान का प्रमाण मनुष्य व्यवहार में न्याय-स्वरूप में प्रस्तुत करता है, उत्पादन में नियम-नियंत्रण-संतुलन रूप में प्रस्तुत करता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)