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Sunday, March 28, 2010

साक्षात्कार बोध - भाग २

साक्षात्कार बोध - भाग १

जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना

विचार का प्रभाव

कल्पनाशीलता वास्तविकता को छू सकता है.

सम्बन्ध और जीवन





मानव को इन्द्रियों से कुछ ज्ञानार्जन होता है, और कुछ ज्ञानार्जन उसको समझने से होता है.  जो ज्ञानार्जन होता है, उसको वह क्रियान्वित करता है.

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों के सन्निकर्ष होने पर इनका संकेत मेधस में पहुँचता है.  मेधस में एक कम्पन या तरंग होता है जिससे ज्ञानेन्द्रियों में क्या हुआ इसका ज्ञानार्जन या ज्ञानोदय जीवन में होता है.  उस ज्ञानार्जन को जब मेधस में प्रसारित करता है तो शरीर द्वारा क्रिया का संपादन होता है.  

इन्द्रियों से ज्ञानार्जन और निर्वाह की इतनी ही सीमा है.  जैसे - सम्बन्ध का ज्ञान इन्द्रियों से नहीं होता.  यह "समझ" में आता है.  जीवन का संबंधों से, प्रयोजनों से व्यंजित होना = साक्षात्कार होना, बोध होना, अनुभव होना.  ये व्यंजना जीवन में हो जाने पर हम उसको आवश्यकता अनुसार समाधान स्वरूप में प्रमाणित करते रहते हैं.  समझ और व्यवहार के बीच मधुरिम स्थिति का नाम है - समाधान.

प्रत्येक एक सम्पूर्णता से जुड़ा है.  एक परमाणु अंश अनेक परमाणु अंशों से जुड़ा है.  एक अणु अन्य अणुओं से जुड़ा है.  एक जीवन अन्य जीवनों से जुड़ा है.  एक सौरव्यूह अनेक सौरव्यूहों से जुड़ा है.  एक के साथ एक मिलके ये परस्पर नियंत्रित हैं और व्यवस्था को प्रमाणित कर रहे हैं.  यह ज्ञान जीवन में "समझ" स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है.  

 एक मानव का दूसरे मानव के साथ सम्बन्ध है.  जैसे - भाई सम्बन्ध.  भाई सम्बन्ध का अर्थ है - परस्पर अभ्युदय के लिए यत्नशील, प्रयत्नशील, कार्यशील.  यह इसका मूल स्वरूप है.  इस सम्बन्ध की पहचान के लिए ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का कोई वास्ता नहीं है.  यद्यपि सम्बन्ध का निर्वाह करते समय ज्ञानेन्द्रियों/कर्मेन्द्रियों का उपयोग है.  

जीवन और शरीर का भी सम्बन्ध है - जिससे जीवन को संवेदनाओं का ज्ञान होता है.  जीवन यदि शरीर के आधार पर संबंधों को पहचानता है तो अच्छा लगते तक उस "सम्बन्ध" को पहचानता है.  जीवन के आधार पर संबंधों को पहचानता है तो उन संबंधों के प्रयोजनों को जानता है, मानता है, फिर पहचानता है.  जीवन द्वारा सम्बन्ध को जानने, मानने और पहचानने में इन्द्रियों का उपयोग नहीं है.  जीवन में ही सम्बन्ध को पहचानने का सामर्थ्य है. जीवन इन्द्रियों (शरीर) द्वारा निर्वाह करते समय व्यवहार में संबंधों के पहचाने होने का गारंटी दिला देता है!  संबंधों को जानने, मानने और पहचानने के बाद व्यवहार में मूल्यों का निर्वाह स्वयंस्फूर्त होता है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी)

Saturday, March 27, 2010

प्रयोजन पहले विश्लेषण बाद में


हम आँख से कुछ देखते हैं, स्पर्श से कुछ देखते हैं - इस तरह पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से देखने की जो विधि है उसको स्वीकारने पर जीवन में एक कम्पनात्मक गति होती है.  इसके पहले जीवन शरीर को जीवंत बनाये हुए था.  यदि जीवन शरीर को जीवंत न बनाए तो किसी संवेदना का पता नहीं चलेगा.

प्रश्न:  जीवंत बनाने के लिए जीवन क्या करता है?

उत्तर:  शरीर प्राणकोशिकाओं द्वारा रचित एक रचना है.  प्राणकोशिकाएं छलनी जैसे माँस, रक्त आदि सप्त-धातुओं से शरीर रचना रचना किया रहता है.  जीवन परमाणु में इन प्राणकोशिकाओं के आर-पार होने की अर्हता रहता है.  जीवन इनमे से हर जगह घूमता रहता है, जिससे हर प्राणकोशिका जीवंत रहता है.  

शरीर के जीवंत रहने का अर्थ है - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों के संकेतों को ग्रहण करने योग्य रहना.  शरीर यदि जीवंत नहीं है तो इन संकेतों को वह ग्रहण करेगा नहीं.

जीवन जब तक शरीर को बचाने का इच्छुक रहता है तब तक उसको वह जीवंत बनाए रखता है.  जब जीवन यह मान लेता है कि शरीर को नहीं बचाया जा सकता तो उसको छोड़ देता है.  रोजमर्रा में हमको इसकी हज़ारों गवाहियाँ मिलती हैं.  

प्रश्न:  पेड़-पौधों में प्राणकोशिकाएं बिना जीवन के कैसे रह पाते हैं?

उत्तर:  पेड़-पौधों में प्राणकोशिकाएं "जीवंत" नहीं "सप्राणित" रहते हैं.  जीवन के शरीर को चलाने के लिए मेधस की आवश्यकता है जो झाड-पौधों में नहीं पाया जाता.  झाड़-पौधों में जीवन नहीं होता.  

प्रश्न:  जीवन्तता के मूल में जीवन है, इसको हम कैसे मान लें?

उत्तर: जीवन के अस्तित्व पर ध्यान न दें तो यह आपकी ही उदारता है!  आप इसको अपनी आवश्यकता के अनुसार ही इसको स्वीकारोगे.  इसकी विवेचना करना पड़ेगा, यथास्थिति पर विश्वास रखना पड़ेगा.  मनगढ़ंत विवेचना से आपका कोई कल्याण होने वाला नहीं है.  वस्तु जैसा है, उसकी वैसी ही विवेचना कीजिये.

जैसे - झाड़-पौधों, जीवों और मानव को एक ही प्रकार का बताना अपनी ही हवसबाजी है.  इस विवेचना से तो जीव और मानव भी आहार की वस्तु हैं!

मनुष्य अपनी कल्पनाओं से बहुत सारी परेशानियों को ओढ़ा रहता है.  इसको "भ्रम" नाम दिया.  भ्रम का परिहार है - जो वस्तु जैसा है उसको वैसा ही अध्ययन किया जाए.   प्रयोजन समझ के फिर प्रक्रिया को पहचानना या  प्रक्रिया समझ के फिर प्रयोजन को पहचानना - इन दो विधियों से अध्ययन हो सकता है.  किसी भी वस्तु के प्रयोजन को समाधान विधि से, समृद्धि विधि से, अभयता विधि से या सहअस्तित्व विधि से पहचानें - मानव के लिए वांछित उतना ही है. इसके अलावा वांछित कुछ भी नहीं है.  मानव सहज लक्ष्य (वांछा) के अर्थ में किसी भी वस्तु के प्रयोजन को पहचानिए.  मानव लक्ष्य के अर्थ में उस वस्तु के प्रयोजन को पहचानने के बाद (उसकी प्रक्रिया समझने के लिए) उसका विश्लेषण-संश्लेषण, खंड-विखंड जो करना है करिए -  आपको सब स्पष्ट होगा.

प्रयोजन को पहचाने बिना विश्लेषण की काट-पीट किये तो नीम-हकीम खतरे-जान ही होगा.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (१९९७, आन्वरी)

समाधान = भय मुक्ति



समाधान मानव की एक मूलभूत आवश्यकता है.  भय से मुक्ति मानव की एक मूलभूत आवश्यकता है.  ये दोनों होने के बाद हम समृद्धि के पास आते हैं.  ये तीनो मिलने के बाद सहअस्तित्व प्रमाणित होता है.  मानव का सदा-सदा प्राकृतिक और नैसर्गिक स्वरूप में जीने का यही स्वरूप है.  मानव द्वारा इसको पहचानने की व्यवस्था है.  पहचान करके इसको निर्वाह करने की व्यवस्था है.  पहचानने पर मानव समझदार हो जाता है.

जैसे - एक परमाणु दूसरे परमाणु को पहचान कर अणु स्वरूप में हो जाता है, एक अणु दूसरे अणु को पहचान कर अणु रचित रचनाएँ हो जाते हैं, एक प्राणकोषा दूसरे प्राणकोषा को पहचान कर विविध प्रकार की प्राणावस्था की रचनाएँ हो जाते हैं, एक ईंट के दूरी ईंट को पहचानने की विधि से सीधा दीवार हो जाता है - इसी प्रकार अस्तित्व में हरेक वस्तु, हरेक रचना एक दूसरे को पहचानने के क्रम में रखी है.  

मनुष्य भी इसी क्रम में अस्तित्व में एक वस्तु है.  मनुष्य का दूसरे मनुष्य को पहचानने के क्रम में ही सही-गलती होती है.  मनुष्य की चाहत को यदि उससे पूछते हैं तो वह 'सही' का ही पक्ष लेता है.  'सही' को यदि पहचानना है तो सऊर से पहचाना जाए.

हर मनुष्य समाधान चाहता है, इसलिए समाधान से जुड़ा जाए.  हर मनुष्य भय से मुक्ति चाहता है, इसलिए अभयता से जुड़ा जाए.  हर मनुष्य समृद्धि को चाहता है, इसलिए समृद्धि से जुड़ा जाए.  अस्तित्व सहज विधि से हम सहअस्तित्व में हैं - इसलिए सहस्तित्व से जुड़ा जाए.  समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व - ये चार विधि से मानव के सुखी होने की संभावना है.  इसको प्रयोग करना है या नहीं करना है - यह हर व्यक्ति को निर्णय लेना है.  प्रयोग करेंगे तो समझदार होंगे.  प्रयोग नहीं करेंगे तो समझदार होंगे नहीं.

समझना वस्तु के रूप में ही होगा, भाषा के रूप में नहीं.  समाधान वस्तु के रूप में क्या है?  भय मुक्ति वास्तव में या वस्तु के रूप में क्या है?  भय मुक्ति विश्वास है - और उसका धारक-वाहक मानव है.  सदा-सदा वर्तमान में विश्वास रखना ही मानव के लिए भय मुक्ति का प्रमाण है.  भय मुक्त विधि से मानव एक दूसरे से मिलेंगे तभी उनके सुखी होने की संभावना है.  भयभीत हो कर एक दूसरे से मिलेंगे तो सुख की संभावना दूर दूर तक नहीं है.  

मनुष्य को समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व चाहिए.  इन चारों को अपने में संजो कर रखने के लिए मूल मन्त्र समझदारी है.  समझदारी के साथ ईमानदारी वर्तता है तो ये चीजें अपने में आने लगती हैं.  उसके साथ जिम्मेदारी लेने से प्रमाणित होने के और पास हो जाते हैं.  फिर भागीदारी करने पर प्रमाणित हो ही जाते हैं.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी)

नाश के भय से मुक्ति






प्रश्न:  वस्तु का अपने में नियंत्रण कैसा रहता है?  यह नियंत्रण कैसा दिखता है? 

उत्तर:  वस्तु के सभी ओर आँखों में जो नियंत्रण रेखा दिखती है, वह गवाही देता है कि प्रत्येक - एक चाहे छोटे से छोटे क्यों न हो या बड़े से बड़े क्यों ना हो - इसके सभी ओर सत्ता से घिरा है.  यह आँखों में दिखाई पड़ता है.  ये ही चीज है जो हर इकाई की स्थिति, गति, मुद्रा, भंगिमा, विन्यास की नियंत्रण रेखा है. 


इसी से ये नियंत्रित रहने से और इसमें डूबे रहने से इकाई का संरक्षित रहना पाया जाता है.  इसी एक के संज्ञा में जो कुछ भी इन्हीं में कुल मिलाकर के आकर्षण, प्रत्याकर्षण, विकर्षण ये सारे चीज नियंत्रण रेखा में ही होता रहता है,  नियंत्रण रेखा से बाहर जाकर कुछ नहीं होता. 

अब इकाई के स्वयं में कई क्रियाएँ होते हैं और उसमें परस्पर नियंत्रण संतुलन की बात होती है.  इकाई में जो कुछ भी ताकत है उसे इकाई अपने अंतर्गत क्रियाओं के संतुलन के लिए स्वयं लगाता है.  इकाई के सदा सदा बने रहने के लिए उसे सत्ता में नित्य संरक्षण है ही.  

वस्तु की शाश्वतीयता इसी नियंत्रण वश, ऊर्जासंपन्नता वश नित्य वर्तमान है.  ये उस जगह को ध्वनित करता है.  यह नाश के भय से मुक्ति का काफी अच्छा, सुलझा हुआ मार्ग है.  इसमें किसी का कोई वकालत की जरूरत नहीं है.  स्वयं चिंतन पूर्वक अभयता की जगह को पहचाना जा सकता है.  उसके लिए ये नियंत्रण, संरक्षण की एक झांकी सदा सदा प्रत्येक एक के साथ सजा ही रहती है.


नाश के भय से मुक्ति जीवन का अमरत्व समझ आने पर भी है.

जीवन नित्य है, अक्षय शक्ति - अक्षय बल सम्पन्न है.  जीवन की मृत्यु होती नहीं है ना उसका कोई परिणाम होता है.  अब होगा क्या जीवन में? जागृति होगा या भ्रम होगा.

इसके पहले सारा भौतिक-रासायनिक संसार में श्रम, गति, परिणाम ये तीनों बना रहा.  अब जीवन पद होने के पश्चात परिणाम की बात ही समाप्त हो गई.  परिणाम का बात समाप्त हो गया तो श्रम और गति की निरंतरता हो गई, ऐसे तो गति का निरंतरता पहले भी था लेकिन पहले गति की निरंतरता परिणाम के साथ रहा.  अब जीवन पद में परिणाम विहीन गति की निरंतरता हो गई.  इसी को हम कहते हैं अक्षय शक्ति, अक्षय बल.

ये अक्षय शक्ति-अक्षय बल के साथ जीवन का जो वैभव है उसे उसके अमरत्व के साथ पहचानने की आवश्यकता है.  ये समझ में आने से मृत्यु भय से आदमी छुटकारा पाता है. मरने के भय से सर्वथा मुक्त हो सकता है. 

भय के वशीभूत होकर, पीड़ित रहते हुए हम सही कार्य को भी गलत कर देते हैं.  वो तो सिद्धान्त ही होता है जिसके पास रहता है उसी को आवंटित किए करता है - उस आधार पर मनुष्य को भय से मुक्त होना बहुत आवश्यक है.  भय मुक्ति मानव की एक मूलभूत आवश्यकता है.

समस्या भी एक पीड़ा है.  समस्या को समाधान से तृप्त करने की आवश्यकता है.  समाधानित रहने से मनुष्य-मनुष्य के साथ जितना भी परिस्थितियाँ आता है उसका जवाब हो जाता है, एक दूसरे के संतुष्टि मिलने का तरीका निकलती है और सुखी होना बनता है.  इसलिए समाधान भी मानव की एक मूलभूत आवश्यकता है|


समाधानित रहने से और भयमुक्त रहने से आदमी सभी कार्य को सऊर से करता है.  

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी)

सह-अस्तित्व में गति - भाग २

सह-अस्तित्व में गति - भाग १

Friday, March 26, 2010

विज्ञान विधि की नासमझी





प्रश्न:  विज्ञान की विधि को आप "नासमझी" कैसे कहते हैं?

उत्तर:  पहली बात यह है - आँखों में सम्पूर्णता समाता नहीं है.  जबकि विज्ञान विधि में इन्द्रियगोचर को अंतिम सत्य मानते हैं.

दूसरी बात - विज्ञान विधि में हस्तक्षेप किये बिना, या अपने स्वरूप से विचलित किये बिना, किसी वस्तु को देखना जानते ही नहीं हैं.

तीसरी बात - विज्ञान विधि में स्थिति और गति के अविभाज्य स्वरूप में क्रिया को नहीं देखते.   सर्वाधिक गति के साथ परमाण्वीय अंशों को एक स्थान में देखने की कल्पना आप कैसे करते हैं, फिर मात्रा की अस्थिरता-अनिश्चयता बताते हैं?

अस्तित्व में "अनिश्चयता" नाम की कोई चीज़ होती ही नहीं है.  मनुष्य में निश्चयता को पहचानने में असमर्थता रहती है.  इसलिए मनुष्य में निश्चयता को पहचानने का सामर्थ्य जोड़ा जाए.

अस्तित्व में स्थिरता और निश्चयता है.  अस्तित्व स्थिर है, जागृति निश्चित है.

हरेक परमाणु अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण है.  उसका आचरण निश्चित है.  हर परमाणु का आचरण निश्चित होने के आधार पर ही वह अणु और अणु रचित रचना के वैभव को व्यक्त किया रहता है.  उसी तरह एक प्राणकोषा भी अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण है.  वह अपने सम्पूर्णता के साथ निश्चित आचरण को देता जाता है.  इस आधार पर ही प्राणकोषा वनस्पति रचना से लेकर मनुष्य शरीर रचना तक प्रमाणित किया है.  जीवन अपने वातावरण सहित सम्पूर्णता के साथ अक्षय-बल और अक्षय-शक्ति को प्रमाणित किया रहता है.  यही जीवन यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता में जागृत हो कर क्रियापूर्णता, आचरणपूर्णता को मानव परंपरा में प्रमाणित करता है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी)

Sunday, March 21, 2010

बल और भार



तरल, विरल और ठोस पदार्थ अपने वैभव को सहअस्तित्व में निरंतर प्रकाशित करना चाहते हैं.  तरल तरल के साथ रहना चाहता है, ठोस ठोस के साथ रहना चाहता है, विरल विरल के साथ रहना चाहता है.  सहअस्तित्व सूत्र से सूत्रित हो कर ये अपने भार को व्यक्त करते हैं.  जिसको आप-हम तौल पाते हैं.  धरती पर जितने भी छोटे-बड़े रचनाएँ हैं वे अपने भार को इसी विधि से प्रदर्शित करती हैं.  

ऊपर से ठोस वस्तु जब नीचे गिरता है, उसका कारण भी यही है कि ठोस ठोस के साथ रहना चाहता है.  ढाल की ओर पानी जाता है क्योंकि पानी के पास जाने के लिए पानी जाता है.  धरती के नीचे किसी विरल वस्तु को उत्पादित करें तो कुछ भी आप करें - वह ऊपर ही जाएगा!  विज्ञान संसार के पास कोई ऐसा तरीका नहीं है कि उस विरल पदार्थ में भार नहीं है.  उसमे भार रहता ही है.  विरल वस्तु के साथ विरल वस्तु सहअस्तित्व को प्रकाशित करता है, इस तरह वह अस्तित्व सहज व्यवस्था में भागीदारी करता है.

गुरुत्त्वाकर्षण और भार की व्याख्या सहअस्तित्व सहज व्यवस्था में भागीदारी का प्रदर्शन है.

यह स्वाभाविक है - वियोग के लिए जितने बल की आवश्यकता रहती है, संयोग के लिए उतने ही बल की आवश्यकता रहती है.  सहअस्तित्व को प्रकाशित करने के लिए जो ठोस-ठोस की ओर, तरल-तरल की ओर, विरल विरल की ओर जो दौड़ता है, उसकी गति में अवरोध करने पर उसके भार की गणना हमको मिलता है.  दौड़ने वाली वस्तु को हम कहीं भी रोक लेते हैं वहीं भार का प्रदर्शन होता है.

ठोस, तरल, विरल में भार और गुरुत्त्वाकर्षण का यह स्वरूप सहअस्तित्व सहज विन्यास है.  इसको हम अपने मन-गढ़ंत व्याख्या देते हैं तो हम कितने विज्ञानी हैं, कितने ज्ञानी हैं - इसको आप ही सोचिये, आप ही मूल्यांकन करिए, आप ही संसार का मार्गदर्शन करिए.

एक परमाणु में भी व्यवस्था का स्वरूप मिलता है.  परमाणु अपनी प्रकाशमानता को निरंतर बुलंद बनाए रखना चाहता है.  यह देख कर हमको प्रेरणा मिलती है कि मानव को भी व्यवस्था में जीने की ज़रूरत है.  अभी तक मानव व्यवस्था में जिया नहीं है - यह बात सही है.  मनुष्य ने अभी तक जितना भी किया उसमे आबादी कम और बर्बादी ज्यादा किया है.  आबादी तो केवल जनसँख्या वृद्धि को लेकर ही दिखता है!  दूसरा है - दूरगमन, दूरदर्शन, दूरश्रवण सम्बन्धी यंत्र-तंत्र को हासिल कर लेना.  बाकी सब बर्बादी है.  यदि हमको यह समझ में आता है तो हमको यह पीड़ा होना चाहिए कि हम व्यवस्था में जियें, व्यवस्था में प्रमाणित होवें.  हमारे सुखी होने के लिए दूसरों के सुखी होने की आवश्यकता है, इस बात का निश्चयन करें.  ऐसा मैंने देखा है, समझा है, मैं व्यवस्था में ही जीता हूँ.  मैं स्वयं में प्रमाणित हूँ.  आप प्रमाणित होना चाहते हैं या नहीं - इसका निर्णय आप ही करोगे.

श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी)

रश्मि और ताप

Saturday, March 20, 2010

परमाणु की व्यवस्था

सह-अस्तित्व में अवस्थाएं - भाग २

सह-अस्तित्व में अवस्थाएं - भाग १

जीवन सहज अपेक्षा सुख है.

समझदारी के साथ ईमानदारी



सहअस्तित्व समझ में आए बिना, जीवन समझ में आए बिना - मनुष्य का जीना तो बनेगा नहीं! समझदार होना है, फ़िर समझदारी को जीने में प्रमाणित करना है - इतनी सी बात है। जीवन-जागृति मनुष्य-परम्परा में ही प्रमाणित होती है। मानव परम्परा में यह चार जगह पहुँचता है - आचरण, शिक्षा, संविधान, व्यवस्था। इन चार जगह में यदि जीवन जागृति पहुँचा, तो मानव परम्परा प्रमाणित हुआ।

अभी इस प्रस्ताव पर आधारित व्यवस्था बनी नहीं है, इसलिए "प्रवर्तनशील" होने की आवश्यकता है। प्रवर्तनशील होना = दूसरों तक इस बात को पहुंचाने के लिए प्रयासरत होना। व्यवस्था हो जाने के बाद "स्वभावशील" होना बनेगा। स्वाभाविक रूप में एक पीढी अपनी समझदारी को आगे पीढी को अर्पित करेगा।

प्रश्न: क्या स्वयं अनुभव होने से पहले दूसरों को समझाने निकल पड़ने में कोई परेशानी नहीं है? क्या ऐसा करने से स्वयं के अध्ययन से ध्यान बंटने की सम्भावना नहीं है?

उत्तर: "सम्भावना" के अर्थ में आपकी बात सुनने योग्य है, सोचने योग्य है। उसके साथ यह भी देखने की जरूरत है - मनुष्य व्यक्त होता ही है। छुप कर रहने में कोई मनुष्य राजी नहीं है। मनुष्य जैसा और जितना समझता है, उतना व्यक्त होता ही है। जिसकी जितनी और जैसे व्यक्त होने की प्रवृत्ति है, वह उतना और वैसे व्यक्त होता ही है। उसके साथ ईमानदारी जुडी ही रहती है।

समझ के इस प्रस्ताव को लेकर ईमानदारी के साथ ही चला जाता है, या चलना पड़ता है। बेईमानी इस बात के साथ टिक नहीं पाता है। टिकता भी है तो क्षणिक रूप में।

हमारा लक्ष्य है - अनुभव का जीने में प्रमाणित होना। अभी हम जहाँ हैं - वह हमारी आज की यथा-स्थिति है। लक्ष्य और यथा-स्थिति - इन दोनों के प्रति स्पष्ट हुए बिना आगे बढ़ने का कोई स्पष्ट कार्यक्रम बनता नहीं है।

अधूरे में कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

फ़िर भी जो इस रास्ते पर जो जितना प्रवर्तनशील है, उसके लिए वह धन्यवाद का पात्र है। प्रवर्तन-शील होने की चार stages बनी। इन चार stages में (इस बात से जुड़े) सभी हैं।

(१) प्रस्ताव की सूचना देने में प्रयासरत होना।
(२) पढाने के लिए प्रयासरत होना।
(३) समझाने के लिए प्रयासरत होना।
(४) प्रमाणित करने के लिए प्रयासरत होना।

सूचना दिया, उससे भी व्यवस्था बनने के लिए गति में कुछ योगदान हुआ। जो आज सूचना ही देता है, कल उसकी पढने में प्रवृत्ति बनती है। जो आज पढाता है, उसकी कल समझने में प्रवृत्ति बनती है। जो आज समझाता है, कल उसकी प्रमाणित करने की प्रवृत्ति बनती है। इस तरह एक से एक कडियाँ जुडी हैं।

प्रमाण परम है। प्रमाण के बाद परम्परा बनती ही है। यह बात सही है - प्रमाण के बिना परम्परा नहीं है।  इस बात में जीवन विद्या परिवार में सभी सहमत हैं.  निष्ठा की स्थिति जरूर लोगों की अलग अलग है.  इसको आंकलित किया जा सकता है.

सार्वभौम व्यवस्था में परिवार से विश्व-परिवार तक जीने की व्यवस्था है.  समाधान समृद्धि पूर्वक जिए बिना कोई विश्वपरिवार में भागीदारी नहीं करेगा, चोरी ही करेगा!  समझने के बाद आदमी चोरी कर नहीं सकता.  समझदारी से समाधान संपन्न होने पर समृद्धि भावी हो जाती है.

व्यवस्था का पूरा ढांचा-खांचा दरिद्रों का नहीं है.  व्यवस्था समाधान-समृद्धि संपन्न व्यक्तियों से बनती है.  समाधान-समृद्धि के बिना एक भी आदमी व्यवस्था में जियेगा नहीं.

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Friday, March 19, 2010

ज्ञानवाही तंत्र और क्रियावाही तंत्र का भेद



शरीर में ज्ञानवाही तंत्र और क्रियावाही तंत्र हैं.  ज्ञानवाही तंत्र का सारा कार्यकलाप जीवन द्वारा मेधस के द्वारा संचालित रहता है.  क्रियावाही तंत्र का क्रियाकलाप मेधस द्वारा संचालित नहीं होता, पर वह मेधस से सम्बद्ध रहता है.

 शरीर के अनुसार क्रियावाही तंत्र है, जीवन के अनुसार ज्ञानवाही तंत्र है.

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों का क्रियाकलाप क्रियावाही तंत्र है.  शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों को संचालित करना ज्ञानवाही तंत्र है.

साँस लेना क्रियावाही तंत्र है.  गंध से सुगंध की अपेक्षा करना ज्ञानवाही तंत्र है.

भोजन को मुख से ग्रहण करना, उसको पचाना और मल विसर्जन क्रियावाही तंत्र है.  जीभ में रूचि के अपेक्षा करना ज्ञानवाही तंत्र है.

शब्द का कान द्वारा सुनना क्रियावाही तंत्र है.  शब्द में सुन्दरता की अपेक्षा करना ज्ञानवाही तंत्र है.

हाथ से छूना क्रियावाही तंत्र है.  सुखद स्पर्श की अपेक्षा करना ज्ञानवाही तंत्र है.

क्रियावाही तंत्र के कार्यकलाप के संपादन के लिए भी जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाए रखने का आवश्यकता बना रहता है.  ज्ञानवाही तंत्र का कोई भी काम जीवन के बिना हो ही नहीं सकता.  जीवन के ओझिल होने पर ज्ञानवाही तंत्र  लुप्त प्राय हो जाता है.  क्रियावाही तंत्र जीवन के बिना कुछ देर चलता रह सकता है, कुछ देर बाद वह भी बंद हो जाता है.

ज्ञानवाही तंत्र के बंद होने के बाद क्रियावाही तंत्र बंद होता है.  शरीर में आये रोगों को ठीक करने के लिए जीवन ज्ञानवाही तंत्र से भरसक प्रयत्न करता ही रहता है.  हरेक शरीर को चलाने वाला जीवन यह करता है.  अंततोगत्वा जब ठीक नहीं हो पाता है तो शरीर को छोड़ देता है.

संवेदनाओं को व्यक्त कर देना ज्ञानवाही तंत्र का प्रारंभिक स्वरूप है.  इस प्रारम्भिक स्वरूप में जीव संसार और मनुष्य संसार में समानता ही रहती है.  मनुष्य परंपरा में अभी तक का प्रचलन यही रहा है.  भौतिकवाद और आदर्शवाद ने मनुष्य को एक प्रकार का जीव ही कहा है.

ज्ञानवाही तंत्र का सार्थक स्वरूप है - न्याय, धर्म, सत्य को प्रमाणित करना.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित - आन्वरी आश्रम, १९९९

Monday, March 15, 2010

प्रामाणिकता की मुहर

मध्यस्थ-दर्शन के प्रस्ताव के शब्दों से अस्तित्व में वास्तविकताएं इंगित होती हैं।

अध्ययन पूर्वक:
साक्षात्कार हुआ = शब्द से इंगित वस्तु पहचान में आई।
बोध हुआ = पहचान में आई वस्तु स्वीकार हुई।
इस प्रकार हुए साक्षात्कार, बोध के समर्थन में ही अनुभव होता है।

साक्षात्कार केवल सच्चाई का ही होता है - बाकी सब छूटता जाता है। बुद्धि में सच्चाइयाँ परिष्कृत हो कर पहुँचती हैं। जिसका मतलब है, शब्द के अर्थ स्वरूप में वस्तु की पहचान स्वीकार हो गयी। उसी की स्वीकृति जो आत्मा में हुई, उसको हम "अनुभव" कह रहे हैं।

चारों अवस्थाओं के साथ अनुभव होता है। सह-अस्तित्व "में" अनुभव होता है। सह-अस्तित्व चारों अवस्थाओं के साथ है।

अध्ययन विधि से यथास्थितियों और प्रयोजनों का चित्त में "साक्षात्कार" और बुद्धि में "बोध" होता है। साक्षात्कार और बोध जो हुआ, उसके समर्थन में ही अनुभव होता है। बुद्धि में ही अस्तित्व की स्वीकृतियों के समर्थन में ही आत्मा में अनुभव होता है। बोध होने के बाद आत्मा में "अनुभव" होता ही है। उसके लिए कोई अलग से जोर नहीं लगाना पड़ता। जिस बात का बोध हुआ था, उसकी "मुहर" है अनुभव!

आत्मा में अनुभव ही होता है - और कुछ होता ही नहीं है। आत्मा में "अध्ययन-कक्ष" कुछ है ही नहीं! बुद्धि में बोध तक अध्ययन है। बोध होने के बाद सह-अस्तित्व में अनुभव होता है। अनुभव ही प्रमाण होता है।

अनुभव पूर्वक जीवन में प्रामाणिकता आ जाती है।

अनुभव पूर्वक अनुभव-प्रमाण का बोध पुनः बुद्धि में होता है। अनुभव ही प्रमाण स्वरूप में बुद्धि में प्रकाशित होता है। अनुभव-प्रमाण बोध संपन्न बुद्धि फिर पूरे जीवन पर प्रभावित हो जाती है। अनुभव-प्रमाण (प्रामाणिकता) सम्पूर्ण जीवन पर बुद्धि पूर्वक ही प्रभावित होती है। अनुभव-प्रमाण का ही प्रकाशन या प्रभावन पूरे जीवन में हो जाता है - बुद्धि में, चित्त में, वृत्ति में, मन में। पूरा जीवन अनुभव-प्रमाण में तदाकार-तद्रूप हो जाता है। जिससे चित्त में चिंतन, वृत्ति में न्याय-धर्म-सत्य का तुलन, और मन में मूल्यों का आस्वादन होता है।

इस तरह पूरे जीवन में अनुभव प्रकाशित होने पर व्यवहार में भी अनुभव प्रकाशित होने लगता है। यही सत्य में तदाकार-तद्रूप होने का फल है। ऐसे अनुभव-मूलक विधि से जीने के स्वरूप का नाम है - "मानव चेतना"। अनुभव के बाद मानवत्व स्वरूप में जीना बन ही जाता है। मानवत्व स्वरूप में जीने का मॉडल है - समाधान -समृद्धि। मानव-चेतना पूर्वक जीना शुरू करते हैं, तो अखंड-समाज और सार्वभौम-व्यवस्था की सूत्र-व्याख्या होने लगती है। इस तरह "उपकार" करने का अधिकार आ जाता है।

प्रश्न: अध्ययन-बोध (अनुभव-गामी बोध) और अनुभव-प्रमाण बोध (अनुभव-मूलक बोध) में क्या अंतर है?

उत्तर: अध्ययन पूर्वक शब्द से अर्थ और अर्थ से वस्तु तक पहुंचना बनता है। अनुभव में जो अध्ययन पूर्वक सच्चाइयों का बोध हुआ था - उसकी स्वीकृति हो जाती है। अनुभव में इस प्रकार स्वीकृति होने पर प्रामाणिकता आ गयी। जिसके फल-स्वरूप बुद्धि में प्रमाण-बोध होता है। जिसको प्रमाणित करने के लिए बुद्धि, चित्त, वृत्ति, मन सब काम करने लगते हैं।

बुद्धि का वर्चस्व (मौलिकता) बोध ही है। चित्त का वर्चस्व चिंतन ही है। वृत्ति का वर्चस्व न्याय-धर्म-सत्य के आधार पर तुलन ही है। मन का वर्चस्व मूल्यों का आस्वादन करना ही है। इस ढंग से पूरा जीवन "अनुभव-मय" हो जाता है।

अध्ययन विधि से अनुभव में स्वीकृति तक पहुँचते हैं, अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित होने तक पहुँचते हैं। जो अध्ययन कराया - उसको प्रमाणित करना।

प्रमाणित होने की शुरुआत अनुभव-मूलक चिंतन से है। उससे पहले दृष्टापद है। अनुभव पूर्वक मनुष्य दृष्टा पद में हो जाता है। प्रमाणित होने जीने में परंपरा के रूप में ही होता है।

अनुभव तभी होता है जब बोध सही हुआ हो। "सही" के अलावा कुछ बोध होता भी नहीं है। "सही" के अलावा दूसरा कुछ भी मनुष्य के आगे आता है, उसको तर्क फंसा ही लेता है। जब तक "सही-पन" का प्रस्ताव मनुष्य के आगे नहीं आता तब तक तर्क उसे अपने चंगुल में फंसाए ही रखता है। "सहीपन" तर्क के चंगुल में आता नहीं है। तभी सही-पन का बोध होता है। सह-अस्तित्व स्वरूप में अस्तित्व-बोध बुद्धि में होता है। सह-अस्तित्व परम-सत्य है - इसीलिये अनुभव होता है। सह-अस्तित्व बोध होने के बाद ही सह-अस्तित्व में अनुभव होता है। मैं जो साधना-समाधि-संयम पूर्वक जो चला - उसमें भी सह-अस्तित्व बोध होने के बाद ही मुझे अनुभव हुआ।

अध्ययन पूरा होने पर ही अनुभव होता है। अध्ययन की वस्तु सम्पूर्ण सह-अस्तित्व ही है। अध्ययन यदि पूरा होता है तो प्रमाणित करने के संकल्प के साथ तुरंत अनुभव होता है। अनुभव पूर्वक ही प्रमाणित करने का प्यास तत्काल बुझता है। अध्ययन पूरा होने की स्थिति में प्रमाणित होने की तत्परता बनता है।


यदि आत्मा में अनुभव होता है, तो हम स्वयम को प्रमाणित करने के योग्य हो गए।

अनुभव-मूलक विधि से ही प्रमाण होता है। दूसरा कोई प्रमाण होता नहीं है।

अनुभव-मूलक विधि से प्रमाण ही होता है। दूसरा कुछ होता नहीं है। अनुभव ही अंतिम प्रमाण है। अनुभव के बिना प्रमाणित होने का हैसियत तो आएगा नहीं!

अनुभव के प्रकाशन का स्वरूप है - न्याय, धर्म, सत्य। आखिरी बात यही आती है - "जीने देना है, और जीना है। होने देना है, होते ही रहना है।"

इसमें क्या तर्क करोगे - बताओ? हर जीवन न्याय-धर्म-सत्य को चाहता ही है। जन्म से ही बच्चे न्याय के याचक होते हैं, सही कार्य-व्यव्हार करना चाहते हैं, और सत्य वक्ता होते हैं। हर बच्चा न्याय का याचक है - उसमें न्याय-प्रदायी क्षमता को स्थापित करने की आवश्यकता है। हर बच्चा सही कार्य-व्यव्हार करना चाहता है - उसमें कर्म और व्यव्हार के अभ्यास कराने की आवश्यकता है। हर बच्चा सत्य-वक्ता है (जैसा देखा-सुना रहता है, वैसा ही बोलता है) - उसमें सत्य-बोध कराने की आवश्यकता है।

प्रमाणित होने की "प्रवृत्ति" मनुष्य में है ही! प्रमाणित होने की "आवश्यकता" मनुष्य में है ही! लेकिन प्रमाणित होने के लिए "वास्तविकताओं की समझ" मनुष्य में अभी तक नहीं थी, वह स्पष्ट करने के लिए ही मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन है।

जब तक अनुभव नहीं है, तब तक तर्क का झंझट बना ही रहता है। ऐसा तर्क "निश्चयन विधि" से जीने के लिए बाधक है। निश्चयन विधि से जीने के लिए अनुभव ही है। सह-अस्तित्व स्थिर है, विकास और जागृति निश्चित है। इन तीन बातों को ही जीने में प्रमाणित किया जाता है। इन तीन बातों को समझाने के लिए ही पूरा दर्शन, वाद, शास्त्र लिखा है। पूरा वांग्मय संक्षिप्त होने पर पांच सूत्रों में सूत्रित होता है - सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, सह-अस्तित्व में विकास, सह-अस्तित्व में जागृति-क्रम, और सह-अस्तित्व में जागृति।

अनुभव मूलक विधि से जीने की प्रक्रिया है - अभिव्यक्ति, संप्रेषण, और प्रकाशन। इन तीन तरीकों से मनुष्य अपने अनुभव को जीने में प्रस्तुत करता है। प्रकाशन अनुभव की ज्यादा व्याख्या है। सम्प्रेष्णा में सीमित-व्याख्या है। अभिव्यक्ति में संक्षिप्त-व्याख्या है। सामने व्यक्ति के अधिकार के अनुसार व्याख्या होती है। अध्ययन का लक्ष्य है - विस्तार से संक्षिप्त की ओर बढ़ना। स्वयं प्रमाण स्वरूप हो जाना। इससे ज्यादा कुछ होता नहीं है। इससे ज्यादा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कल्पना के आधार पर ही मनुष्य ज्ञान-संपन्न होता है। नियम-नियंत्रण-संतुलन-न्याय-धर्म-सत्य - ये ६ आयामों में ही मनुष्य के प्रमाणित होने की सीमा है। इससे ज्यादा नहीं है।

आप इस बात को पूरा समझ कर मेरे बराबर अच्छा जियोगे, या मुझसे ज्यादा अच्छा जियोगे! आपकी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता इस समझ से जुड़ेगा तो आप हमसे अच्छे हो ही गए! इससे पहले न भौतिकवाद ऐसे सोच पाया, न आदर्शवाद ऐसे सोच पाया। भौतिकवाद का मृत्यु reservation (intellectual property right) और specialization में हुआ। आदर्शवाद रहस्य में जा कर फंस गया। इन दोनों के विकल्प में मध्यस्थ-दर्शन प्रस्तुत हुआ है।


- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Saturday, March 13, 2010

चिकित्सा विज्ञान

आदर्शवाद और भौतिकवाद का विकल्प

मानव जाति एक है, मानव धर्म एक है.



भौतिकवादी ऐसा बताते हैं - मानव की शरीर रचना के आधार पर उसके गुणों का प्रकाशन होता है.  रचना (रूप) के आधार पर गुण होता है - ऐसा वे मानते हैं.  यह सर्वथा गलत सिद्ध हो गया.  ऐसा कोई कार्य नहीं है जो एक नस्ल वाला आदमी कर सकता हो पर दूसरे नस्ल वाला आदमी न कर सकता हो.  ऐसा कोई उपलब्धि नहीं है जो एक नस्ल वाला आदमी पा सकता हो पर दूसरे नस्ल वाला आदमी न पा सकता हो.  ऐसा कोई समझ नहीं है जो एक नस्ल वाला आदमी समझ सकता हो पर दूसरे नस्ल वाला आदमी न समझ सकता हो.  मानव में रंग और नस्ल की भिन्नता मिलती है, यह बात तो सही है लेकिन जो कुछ भी एक आदमी कर सकता है, पा सकता है, समझ सकता है - उसको सभी नस्ल वाले, रंग वाले, सम्प्रदाय वाले पा सकते हैं.  कोई सम्प्रदाय, रंग या नस्ल "विशेष" नहीं है.  अतः सभी रंग, नस्ल, संप्रदाय वाले समझदार हो सकते हैं, ईमानदार हो सकते हैं, जिम्मेदार हो सकते हैं, भागीदार हो सकते हैं.  किसी भी तरह का पुरोहितवाद या आरक्षणवाद मानव जाति की छाती का पीपल ही होगा.  

इन सभी नजीरों के आधार पर हम निर्णय पर पहुँच सकते हैं कि "मानव जाति एक है".

मानव जाति एक है - इसी आधार पर मानव धर्म के एक होने को भी हम पहचान सकते हैं.  मानव धर्म सुख है.  सभी रंग, नस्ल, सम्प्रदाय वालों में सुखी होने का आशय (चाहना) समान रूप से निहित है.   गर्भाशय में रंग और नस्ल के आधार पर शरीर बनता है.  सुखी होने का आशय जीवन में निहित है.  रंग-नस्ल शरीर के साथ है, जीवन के साथ नहीं.

अतः सभी मानवों के सुखी होने की विधि को हम पहचान सकते हैं और उसका लोकव्यापीकरण कर सकते हैं.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी आश्रम, १९९९)

शरीर रचना बनने की प्रक्रिया



शरीर की रचना गर्भाशय में होती है.  गर्भाशय में जितना लम्बा-चौड़ा रचना हो पाती है, उसको 'शिशु' हमने नाम दिया है.  इस संरचना के मूल में डिम्ब कोषा के डिम्ब सूत्र और शुक्र कोषा के शुक्र सूत्र - इन दोनों के संयोग से भ्रूण बनता है.  भ्रूण विकसित हो कर शिशु बनता है.  यह कार्य प्रकृति सहज विधि से आदिकाल से होता आया है.

गर्भ में ५ माह का शिशु होने पर मेधस रचना पूरा तैयार हो जाता है.  मेधस रचना तैयार होने के बाद ही कोई न कोई जीवन शरीर रचना को संचालित करता है.  इसका संकेत गर्भवती माँ को मिलता है - गर्भाशय में शिशु के अपने-आप घूमने लगने के रूप में.  इस तरह भ्रूण से शिशु, जीवन और शरीर का संयोग, शरीर का बड़ा होना, फिर शिशु का जन्म.  शिशु के जन्म के बाद शरीर का विकास फिर वंशानुषंगीय क्रम में ही होता है - बाल्य, कौमार्य, युवा, प्रौढ़ और फिर वृद्ध अवस्था यह क्रम से होना हमको पता चलता है.  

मेधस तंत्र के आधार पर ही जीवन शरीर रचना को संचालित करता है.  ज्ञानवाही तंत्र को तंत्रित करता है, संवेदनाएं काम करती हैं और संज्ञानशीलता प्रमाणित होती है.  संज्ञानशील कार्यकलापों में जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप प्रमाणित होता है.  संज्ञानशीलता विधि से ही जीवन का वैभव स्पष्ट होता है.  केवल संवेदनशीलता विधि से जीवन को पहचानना बहुत कठिन है.  

जीवों में वंशानुषंगीय विधि से संवेदनशीलता व्यक्त हुई है.  यह मनुष्य को भ्रम में डालता है.  घोड़ा, गधा, कुत्ता, बिल्ली में संवेदनाएं होती हैं और मनुष्य में भी संवेदनाएं होती हैं - इसलिए भ्रम होता है कि मानव भी उनके सदृश एक जीव ही है.  जबकि मनुष्य जीव नहीं है.  मनुष्य ज्ञानावस्था की इकाई है.  जब मानव अपने कार्यकलापों को संज्ञानशीलता विधि से संपन्न करना शुरू करता है तब जीवन और शरीर का संयुक्त कार्यकलाप प्रमाणित होने लगता है.  

प्रश्न:  शरीर को कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में तैयार करने की उपयोगिता के बारे में आपका क्या मंतव्य है? 

उत्तर:  शरीर के बनने की प्रक्रिया को कृत्रिम रूप से घटित कराने के लिए मानव ने प्रयास किया, किन्तु प्राणकोषा को कृत्रिम रूप में रचित करवा पाने में असफल रहा है.  इसके स्थान पर शरीर के अन्य स्थान जैसे हाथ-पाँव के चमड़े से कोषाओं को लेकर, उनसे सूत्रों को निकाल कर, भ्रूण को फलित बना कर, पुष्ट बना कर, उनको गर्भाशय या गर्भाशय के सदृश परिस्थितियों में शिशु को तैयार करने का सोचा गया, किया गया.  एक ओर तो आप कृत्रिम विधि से शरीर रचना बनाने के प्रयोग करते हैं तो दूसरी ओर जनसँख्या वृद्धि की समस्या को रोते हैं - यह अंतर्विरोध है.  व्यापार विधि से पैसा बनाने के लिए आपको इन प्रयोगों की आवश्यकता दिखती होगी, पर मुझे इसकी मानव परंपरा के लिए कोई आवश्यकता दिखती नहीं है.

- श्री ए नागराज के साथ सम्वाद पर आधारित (आन्वरी आश्रम, १९९९)


Wednesday, March 3, 2010

अवधारणा

अवधारणा = अभ्यास के लिए प्राप्त स्वीकृतियां

अभ्यास किस लिए? अभ्युदय को अपनाने के लिए, अपना स्वत्व बनाने के लिए। अभ्युदय का मतलब है - सर्वतोमुखी समाधान। जैसे किसी झाड के बीज को धरती में हम डालते हैं, उसको सींचते हैं, ताकि उसका वृक्ष हमारा स्वत्व बन सके। उसी तरह अवधारणा अभ्युदय का बीज है।

स्थिति-सत्य, वस्तु-स्थिति सत्य, और वस्तु-गत सत्य की अवधारणा होती है।

साक्षात्कार = शुभ के लिए जितनी भी सूचना (शब्द) मिलती है उससे जो वस्तु (अर्थ) इंगित होता है, उसको कल्पना में भर लेना। साक्षात्कार चित्त में होता है।

अवधारणा प्राप्त होने, साक्षात्कार होने तक ही मनुष्य का पुरुषार्थ है। अवधारणा प्राप्त होने के बाद, साक्षात्कार होने के बाद परमार्थ ही है। स्थिति-सत्य, वस्तु-स्थिति सत्य, और स्थिति सत्य की अवधारणा का बुद्धि में बोध होता है। उसके बाद स्थिति-सत्य अनुभव में आता है। सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति - सह-अस्तित्व ही स्थिति-सत्य है। यह अनुभव में आता है। अनुभव में आने पर इसकी निरंतरता हो जाती है।

स्थिति-सत्य (सह-अस्तित्व) में ही वस्तु-स्थिति सत्य और वस्तु-गत सत्य का प्रगटन होता है। वस्तु मूलतः रासायनिक, भौतिक, और जीवन स्वरूप में है। सम्पूर्ण वस्तुएं सत्ता में भीगी, डूबी, घिरी हैं। भीगे होने से ऊर्जा-सम्पन्नता है, डूबे होने से क्रियाशीलता है, घिरे होने से नियंत्रण है। यही सह-अस्तित्व है। यही नियति है। नियति विधि से ही हम ऊर्जा संपन्न हैं, नियति विधि से ही हम बल-संपन्न हैं, नियति विधि से ही हम नियंत्रित हैं। सह-अस्तित्व नित्य प्रगटन-शील है - यही नियति है। मनुष्य का जीवन और शरीर दोनों नियति-विधि से हैं। नियति विधि से ही हम साक्षात्कार तक पहुँचते हैं।

सह-अस्तित्व (नियति) नित्य प्रगटन-शील होने से अपने प्रतिरूप के स्वरूप में मानव को प्रस्तुत कर दिया - उसका प्रमाण अनुभव-मूलक विधि से ही होता है। इस तरह ईर्ष्या मुक्ति, द्वेष मुक्ति, अपराध-मुक्ति, और भ्रम-मुक्ति हो जाती है। ईर्ष्या, द्वेष, अपराध, और भ्रम से मुक्त हो जाना ही अनुभव संपन्न होने का प्रमाण है। ईर्ष्या, द्वेष, अपराध, और भ्रम से हम सम्बद्ध हैं, मतलब अनुभव हुआ नहीं है। यही "स्व-निरीक्षण" में देखने की बात है।

अनुभव का प्रमाण होता है। प्रमाण है - परंपरा में पीढी से पीढी अनुभव अंतरित होना। इसका नाम है - "अनुभव मूलक विधि"।  अनुभव-मूलक विधि के बिना प्रमाण नहीं है।

सत्ता स्वयं ज्ञान-स्वरूप है। चैतन्य-प्रकृति को सत्ता ज्ञान-स्वरूप में प्राप्त है। ज्ञान का प्रमाण मनुष्य व्यवहार में न्याय-स्वरूप में प्रस्तुत करता है, उत्पादन में नियम-नियंत्रण-संतुलन रूप में प्रस्तुत करता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)