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Sunday, November 29, 2009

कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिन्दु

(जीव चेतना में) जब ४.५ क्रिया की सीमा में मनुष्य जीता है, तो उसे लगता रहता है - "यह पूरा नहीं है।" "यह पूरा नहीं है।" - यह स्वयं में पीड़ा के रूप में प्रेरणा पाने का अधिकार है। इस "पीड़ा" को अन्तः प्रेरणा कह सकते हैं। अनुभव-संपन्न व्यक्ति के संयोग में आने पर बाह्य-प्रेरणा से "पूर्णता की अपेक्षा" बन जाती है। अध्ययन करने वाले और अध्ययन कराने वाले के संयोग पूर्वक यह "अपेक्षा" बनती है। अध्ययन कराने वाला अध्ययन करने वाले के लिए पूर्णता के लिए "प्रेरणा स्त्रोत" होता है। "पूर्णता" है - क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता।

अध्ययन करने वाला अपनी कल्पनाशीलता के प्रयोग से अनुभव-मूलक विधि से अध्ययन कराने वाले की प्रेरणा से सत्य को पहचानने का प्रयास करता है।

इस प्रस्ताव को अपना स्वत्व बनाने के लिए कल्पनाशीलता को प्रयोजन के साथ लगाना पड़ता है। कल्पना से वास्तविकता में जाने के लिए यदि प्रयत्न होता है तो अध्ययन के लिए प्रवृत्त होना होता है। अध्ययन के लिए प्रवृत्ति को क्रियान्वयन करने से साक्षात्कार होता है। आशा-विचार-इच्छा की स्पष्ट-गति साक्षात्कार है। यह अध्ययन पूर्वक ही होता है। साक्षात्कार के आधार पर अनुभव की सम्भावना बनती है। अनुभव के बाद प्रमाण।

कल्पनाशीलता ही अनुभव-प्रमाण में परिवर्तित होती है। कल्पना में अनुभव-प्रमाण समाता नहीं है। अध्ययन पूर्वक कल्पना अनुभव-प्रमाण में परिवर्तित हो जाती है। इसी का नाम है - "गुणात्मक परिवर्तन"। यही कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिन्दु है।

प्रश्न: आप कहते हैं, मनुष्य या तो ४.५ क्रिया में भ्रमित जीता है, या १० क्रिया में जागृत जीता है। ४.५ क्रिया और १० क्रिया के बीच क्या स्थितियां हैं?

उत्तर: साक्षात्कार, बोध, और अनुभव। ये तीन स्थितियां हैं।

साक्षात्कार के लिए पुरुषार्थ है - जिसका नाम है "अध्ययन"। साक्षात्कार के बाद बोध और अनुभव स्वयं-स्फूर्त है। उसमें मनुष्य का कोई पुरुषार्थ नहीं है। साक्षात्कार तक पहुंचना ही पुरुषार्थ का अन्तिम स्वरूप है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

2 comments:

Roshani said...

राकेश जी आपने बिलकुल सही कहा "इस प्रस्ताव को अपना स्वत्व बनाने के लिए कल्पनाशीलता को प्रयोजन के साथ लगाना पड़ता है। कल्पना से वास्तविकता में जाने के लिए यदि प्रयत्न होता है तो अध्ययन के लिए प्रवृत्त होना होता है।"
राकेश जी मै बाबा जी से कई बार मिली हूँ पर बहुत गहरे में नहीं लिया था अभी तक बाबा जी मेरे लिए पूज्यनीय थे . कल अचानक ही ब्लॉग पोस्ट करते वक्त मेरी आँखे नम हो आयी लगा दौड़ कर बाबा के चरणों पर नतमस्तक हो जाऊं.
अब समझ आया की आप सब इतनी मेहनत क्यों कर रहे हैं?

Rakesh Gupta said...

मैं इस बात को ऐसे समझा हूँ -

यह प्रस्ताव अपनी कल्पनाशीलता को वास्तविकता को अनुभव करने के लिए प्रेरित करता है. वास्तविकता का जो अनुभव किया हो - उसी की "प्रेरणा" से अध्ययन हो सकता है. हम वास्तविकता से कट गए हैं - यह प्रस्ताव हमको वास्तविकता से जोड़ने के लिए है. भ्रम हमारी कल्पना में ही है. वास्तविकता अपनी जगह ठीक है. कल्पनाशीलता जीवन का स्वत्व है - और वही हमारा एक मात्र साधन है, अध्ययन करने के लिए, वास्तविकता को अनुभव करने के लिए. कल्पनाशीलता से हम अनुमान करते हैं - वास्तविकता "ऐसा" होगा! अनुभव-संपन्न व्यक्ति के मार्ग-दर्शन से हम कल्पनाशीलता में अपने इस अनुमान को पुष्ट बनाते हैं. इसी को "तदाकार" होना कहा है. कल्पनाशीलता के वास्तविकता में तदाकार होने पर कल्पनाशीलता अनुभव-प्रमाण में परिवर्तित हो जाती है. यही फिर स्वयं में विश्वास का ठोस आधार बन जाती है.

शुभ कामनाएं

राकेश