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Sunday, August 10, 2008

हर मनुष्य समझने योग्य है।

प्रश्न: आप भय, प्रलोभन, और आस्था के स्थान पर आत्म-विश्वास से जीने की बात करते हैं। लेकिन आज की स्थिति में विश्वास की परम्परा नहीं बनी है। ऐसे में क्या हम अपने वातावरण के प्रति विरोधाभास में जीने के लिए बाध्य नहीं हो जायेंगे?

उत्तर: इसमें समझदारी को center में लाने की आवश्यकता है। परिवार में एक आदमी को प्रमाणित होना होगा। उस आदमी के प्रति सबको विश्वास होता है कि "यह आदमी ठीक है!" या "इस आदमी के प्रति हमको कोई शंका नहीं है।" मेरा उदाहरण लें - तो मैं पहला आदमी था, मेरा जीना-रहना सभी के लिए विश्वास का आधार बन गया। यह इस आधार पर है - जब जागृति होती है, तो उससे वातावरण बदलता है। वातावरण हमारे अनुसार बदल जाता है। हमारा जीना यदि बदल जाता है - तो उसका प्रभाव होता ही है। हम जागृति पूर्वक यदि जीते हैं तो क्या परिवार में हमारा कोई विरोध भी करता है?

जागृति पूर्वक जीना = समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। इस पर प्रहार कौन कर सकता है? इस पर अविश्वास कौन कर सकता है? यह आदमी से बनता ही नहीं है। जागृति को अपनाएं या न अपनाएं - यह दूसरे की स्वेच्छा पर निर्भर है। अपनाओ, चाहे न अपनाओ! इसका विरोध, या इस पर अविश्वास तो कोई कर नहीं पायेगा!

foundation work यही से है। जो मैंने ऊपर कहा - यदि जो व्यक्ति उसमें टिक पाता है, वह foundation work कर सकता है। जो टिक नहीं पाता - वह foundation work तो नहीं करेगा। Super-structure बनने के बाद तो सभी सहमत होते ही हैं, समर्पित होते ही हैं। परम्परा बनने के बाद हर व्यक्ति समर्पित होता ही है।

प्रश्न: समझदार होने में वातावरण का क्या योगदान है?

उत्तर: हमारी स्वीकृतियां ही हमारा वातावरण हैं। गोविंदपुर में हम एक स्कूल शुरू किए थे - वहाँ के बच्चे अपने माता-पिता, और गाँव के वातावरण को सकारात्मक रूप में प्रभावित करने लगे। मनुष्य किस समय कैसे समझदारी के लिए करवट ले ले, इसका कोई अंदाजा नहीं लगा सकता। आज गलती करने वाला कल कितना सही हो सकता है - इसको कोई सोच नहीं सकता।

आदमी के सुधरने की सम्भावना सदा-सदा बना है। हर अवस्था में बना है। हम यदि सटीक रहते हैं तो हमारा वातावरण भी प्रभावित होता है। हम यदि सटीक नहीं रहते - तो हमारा वातावरण हम पर दबाव डालता ही है। यह भी उसी विधि से है - "गुरु-मूल्य में लघु-मूल्य समाता है।"

प्रश्न: आप हमारी जिस भी बात का उत्तर देते हैं, उसको जागृत मानव से ला कर जोड़ते हैं। ऐसा क्यों?

उत्तर: सह-अस्तित्व रुपी अस्तित्व से सम्बंधित कोई भी बात होगी - तो उसको हम बताएँगे। उसको अधर में छोड़ा नहीं जा सकता। सह-अस्तित्व को समझने वाला जागृत मानव है। इसलिए जागृत मानव को छोड़ा नहीं जा सकता। इन दो ध्रुवों के बीच में ही सारा दर्शन है। एक तरफ़ सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व - दूसरी तरफ़ जागृत मानव। सह-अस्तित्व का दृष्टा, कर्ता, ज्ञाता, और भोक्ता जागृत-मानव ही है।

प्रश्न: समझने की प्रक्रिया में communication सही होना जरूरी है...

उत्तर: communication ठीक होने में दो basic needs हैं।
(१) समझाने वाला अपनी पूरी समझ को प्रकाशित कर सके।
(२) समझने वाला व्यक्ति उसको ग्रहण कर सके।
ये दोनों होने पर ही communication पूरा होता है। पूरे मन से सुनने के लिए आप आए हो - यह मेरा स्वीकृति है।

हर मनुष्य समझने योग्य है। हर मनुष्य समझना चाहता है। इसके साथ ही - हर मनुष्य किसी आयु के बाद अपने को समझदार मान लेता है। "मैं समझदार हो गया हूँ" - जब यह मान लेता है, तब उसके लिए समझने के दरवाजे बंद हो जाते हैं। इसके बाद सटीक बात उस तक पहुँचने में तकलीफ होती है। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति जैसा उसने अपना life-style बनाया है, उसके अनुकूल बातों को सुनता है - और जो उसके अनुकूल नहीं हैं, उनको अपने सहूलियत के अनुसार तर्जुमा कर लेता है।

प्रश्न: व्यवहार की सीमा क्या है?

उत्तर: व्यवहार की सीमा है - सम्बन्ध। संबंधों में न्याय प्रमाणित होना। सम्बन्ध का प्रयोजन के आधार पर पहचान हो जाना, उसकी ईमानदारी के साथ निर्वाह होना, मूल्यों की परस्पर अनुभूति होना, परस्परता में उनका मूल्यांकन होना - फलन में उभय-तृप्ति होना। व्यवहार में उभय-तृप्ति ही standard है।

नियति विधि वैभव = न्याय।

सम्बन्ध नियति विधि से होते हैं। सम्बन्ध को आदमी पैदा नहीं करता। आदमी केवल संबंधों को पहचान सकता है। न्याय में "संबंधों की पहचान" के बारे में कहा है। "संबंधों का निर्माण" नहीं कहा है। संबंधों को प्रयोजन के रूप में पहचाना - वहां से न्याय का शुरुआत होता है। प्रयोजन = सह-अस्तित्व में प्रमाण।

प्रश्न: अनुभव से पहले हमसे अन्याय न हो - क्या यह सम्भव है?
उत्तर: नहीं। अन्याय करने से ही अस्मिता (ego) बनती है। परस्परता में कहीं न कहीं अन्याय होता ही है। जागृति के पहले न्याय का कोई स्थान ही नहीं है।
आज की स्थिति में एक छत के नीचे अनेक लोग हो जाते हैं, साथ में रह नहीं पाते। अपना-पराया का दीवार बना ही रहता है - चाहे छोटा हो, या बड़ा हो। थोड़ा दीवार बढ़ गया तो द्वेष भी दिखता है। कम दीवार रहता है तो द्वेष दिखता नहीं है। अनुभव के पहले कोई न्याय नहीं है, कोई समाधान नहीं है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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