प्रश्न: "मैं सुख चाहता हूँ" - यह तो मुझे निश्चित है। मैं सुखी हूँ, या नहीं - यह मुझे पता नहीं। निरंतर सुखी तो नहीं हूँ। इस जगह से आगे कैसे बढें?
उत्तर: शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन्द्रियों में सुख जैसा भासता तो है - पर सुख रहता नहीं है। सुख उनमें रहता नहीं है। सुख यदि उनमें "होता" - तो उसकी निरंतरता होती। यह कसौटी है। इन्द्रियों से हमको जितनी भी चीजों में सुख भासता है - उनमें अनुकूलता-प्रतिकूलता ही होती है। इनमें सुख नहीं होता। अनुकूलता को हम सुख मान लेते हैं। पर वह सुख रहता नहीं है! यही वह स्थली है जहाँ सारा आदमी जात बुदधू बना है। बुदधूपन की दूसरी ऊंचाई है - बेवकूफ होना। तीसरी ऊंचाई है - अपराधी होना। इन तीनो ऊंचाइयों में ही खड़े हैं सभी!
यदि सुख चाहिए तो ज्ञानगोचर वस्तुओं को पहचानने की ज़रूरत है। मनुष्य परस्परता में विश्वास ज्ञानगोचर है। संबंधों का प्रयोजन ज्ञान-गोचर है। धरती की अखंडता ज्ञानगोचर है। आदमी के जीने के अधिकाँश भाग ज्ञानगोचर हैं, न्यूनतम भाग इन्द्रियगोचर हैं।
अभी आप सहमति दे रहे हैं - ज्ञानगोचर वस्तुएं पहचान में आनी चाहिए। लेकिन सहमति होना भर पर्याप्त नहीं है। सहमति के साथ निष्ठा होता है तब हम प्रमाण के पास आयेंगे - यह आशा होती है। जैसे रोज चार किलोमीटर दौड़ने के लिए सब लोगों की सहमति हो सकती है। लेकिन कई लोग नहीं दौड़ पाते हैं। इसमें अक्षमता व्यक्त करते हैं। कई लोग चल भी पाते हैं। उसी तरह ज्ञानगोचर भाग के प्रति सहमत होते हुए भी उसको लेकर चल नहीं पाने की कमजोरी प्रौढ़ लोगों में रखा ही है।
सहमति के साथ यदि निष्ठा नहीं होती है तो हम प्रमाण के पास आयेंगे, ऐसी कल्पना भी नहीं किया जा सकता। सहमति के साथ निष्ठा जोड़ने पर ही अध्ययन हुआ। अध्ययन होने से सच्चाई को हमने पहचान लिया। सच्चाई को पहचानने के बाद हमारे जीने के लिए सरल मार्ग निकल गया। उसके बाद कोई रुकता नहीं है। सहमति के साथ निष्ठा होना ही link है। निष्ठा होने पर हम यदि अध्ययन में लग गए तो मानिए हम सिलसिले में हैं।
अध्ययन में लगना ही निष्ठा का प्रमाण है। प्रमाणित होने के लिए अध्ययन आवश्यक है। अध्ययन के बिना हम प्रमाणित नहीं हो सकते हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
उत्तर: शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन्द्रियों में सुख जैसा भासता तो है - पर सुख रहता नहीं है। सुख उनमें रहता नहीं है। सुख यदि उनमें "होता" - तो उसकी निरंतरता होती। यह कसौटी है। इन्द्रियों से हमको जितनी भी चीजों में सुख भासता है - उनमें अनुकूलता-प्रतिकूलता ही होती है। इनमें सुख नहीं होता। अनुकूलता को हम सुख मान लेते हैं। पर वह सुख रहता नहीं है! यही वह स्थली है जहाँ सारा आदमी जात बुदधू बना है। बुदधूपन की दूसरी ऊंचाई है - बेवकूफ होना। तीसरी ऊंचाई है - अपराधी होना। इन तीनो ऊंचाइयों में ही खड़े हैं सभी!
यदि सुख चाहिए तो ज्ञानगोचर वस्तुओं को पहचानने की ज़रूरत है। मनुष्य परस्परता में विश्वास ज्ञानगोचर है। संबंधों का प्रयोजन ज्ञान-गोचर है। धरती की अखंडता ज्ञानगोचर है। आदमी के जीने के अधिकाँश भाग ज्ञानगोचर हैं, न्यूनतम भाग इन्द्रियगोचर हैं।
अभी आप सहमति दे रहे हैं - ज्ञानगोचर वस्तुएं पहचान में आनी चाहिए। लेकिन सहमति होना भर पर्याप्त नहीं है। सहमति के साथ निष्ठा होता है तब हम प्रमाण के पास आयेंगे - यह आशा होती है। जैसे रोज चार किलोमीटर दौड़ने के लिए सब लोगों की सहमति हो सकती है। लेकिन कई लोग नहीं दौड़ पाते हैं। इसमें अक्षमता व्यक्त करते हैं। कई लोग चल भी पाते हैं। उसी तरह ज्ञानगोचर भाग के प्रति सहमत होते हुए भी उसको लेकर चल नहीं पाने की कमजोरी प्रौढ़ लोगों में रखा ही है।
सहमति के साथ यदि निष्ठा नहीं होती है तो हम प्रमाण के पास आयेंगे, ऐसी कल्पना भी नहीं किया जा सकता। सहमति के साथ निष्ठा जोड़ने पर ही अध्ययन हुआ। अध्ययन होने से सच्चाई को हमने पहचान लिया। सच्चाई को पहचानने के बाद हमारे जीने के लिए सरल मार्ग निकल गया। उसके बाद कोई रुकता नहीं है। सहमति के साथ निष्ठा होना ही link है। निष्ठा होने पर हम यदि अध्ययन में लग गए तो मानिए हम सिलसिले में हैं।
अध्ययन में लगना ही निष्ठा का प्रमाण है। प्रमाणित होने के लिए अध्ययन आवश्यक है। अध्ययन के बिना हम प्रमाणित नहीं हो सकते हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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