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Sunday, August 10, 2008

मनुष्य और प्रकृति

प्रश्न: मनुष्य और बाकी सारी प्रकृति में क्या फर्क है?

उत्तर: मनुष्य अनंत और असीम अस्तित्व के साथ सोचने, समझने, और जीने योग्य वस्तु है। बाकी सब वस्तुएं प्रकटन क्रम में "होने" के रूप में हैं। इस तरह मानव ही अस्तित्व में दृष्टा है। मानव ही अस्तित्व को समझेगा, व्यापक को समझेगा, और स्वयं को भी समझेगा। फलस्वरूप मानव का अस्तित्व में "रहने" का बात बनेगा। अभी हम न स्वयं को समझे हैं, न अस्तित्व को समझे हैं - इसलिए जीने का रास्ता ही बंद हो गया। आदि-काल से अभी तक मनुष्य अपने "रहने" के स्वरुप को पहचान नहीं पाया।

प्रश्न: अभी तक मनुष्य क्या जीता नहीं रहा क्या?

उत्तर: मनुष्य अभी तक जीव चेतना में जिया है। जीव-चेतना में जीते हुए भी जीवों से अच्छा जीने के लिए सोचा। क्योंकि मनुष्य को कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता विरासत में मिला ही था। उसी के रहते मनुष्य ने सामान्य-आकांक्षा (आहार, आवास, अलंकार) और महत्त्वाकांक्षा (दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, दूर-गमन) संबन्धी सभी वस्तुओं को प्राप्त कर लिया। इस तरह मनुष्य अपनी परिभाषा के अनुरूप मनाकार को साकार करने के चौखट में आ गया। मनः स्वस्थता का चौखट टटोला तो देखा खाली पड़ा है! मनः स्वस्थता को लेकर हम bankrupt हैं। मनाकार को साकार करने के पक्ष में हम समृद्ध हैं। यह आज तक की समीक्षा है। बिना मनः स्वस्थता के मनाकार को साकार करने के क्रम में ही यह धरती बीमार हो चुकी है। आगे की पीढी कहाँ रहेगा? मनः स्वस्थता का चौखट कैसे भरेगा? - इन्ही प्रश्नों के उत्तर में यह विकल्प है।

प्रश्न: मानव के "होने" और "रहने" से क्या आशय है?

उत्तर: मानव अपने "होने" को कल्पनाशीलता पूर्वक पहचान चुका है। कैसे रहना है? - यह तय नहीं कर पाया है। मानव में संस्कार परम्परा के अनुरूप ही "रहना" बनता है। मानव का रहना इस तरह जीवों से भिन्न है। जीवों में वंश परम्परा के अनुरूप रहना बन जाता है। "मानव-परम्परा" जैसी कोई चीज होती है, यह जागृति से पहले भी स्वीकृति रहती है। पर मानव-परम्परा को कैसे रहना है? - यह जागृति के बाद ही होता है।


- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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