ANNOUNCEMENTS



Saturday, August 9, 2008

अनुभवगामी विधि

प्रश्न: संयम के बाद आपने अनुभवगामी विधि को कैसे तैयार किया?

उत्तर: इससे पहले मैंने आपको बताया था - साधना, समाधि, संयम ने अनुभव के योग्य पात्रता को मुझमें तैयार कर दिया - फलस्वरूप अस्तित्व में मुझे अनुभव हो गया। अनुभव होने का प्रमाण व्यक्ति ही हो सकता है - दूसरा कुछ हो नहीं सकता। अनुभव संपन्न होने के बाद मैंने सोचा - हर व्यक्ति साधना तो करेगा नहीं। हर व्यक्ति के लिए साधना करने के लिए उद्देश्य ही नहीं बन सकता। हर व्यक्ति के लिए समाधि-संयम विधि से गुजरने के लिए संभावना भी नहीं है। इसकी आवश्यकता ही नहीं बनता तो सम्भावना भी नहीं बनता। ऐसा तय करने के बाद - इस फल के लोकव्यापीकरण के लिए क्या विधि हो?

अनुभव मूलक विधि से व्यक्त होने और अनुभवगामी विधि से उसे पहचान लेने पर अध्ययन पूरा हो जाता है। ऐसा मैंने स्व-विवेक से सोचा। इसमें किसी दूसरे का सलाह नहीं रहा, और उस वर्तमान में कोई ऐसा घटना नहीं रहा - जो मुझे ऐसा करने के लिए suggest करे। यह मैंने अपने स्व-विवेक से ही तय किया।

मनुष्य जाति पठन तक तो पहुँच चुकी है - यह तो मुझे पता था। निबंध, कथा, इतिहास - ये सब पठन करते हुए देखा ही था मैंने। इसके लिए मेरे परिवार-परम्परा में "श्रुति" के नाम से वेदाभ्यास करते ही रहे। इससे मैंने निश्चय किया - मनुष्य जाति पठन तक अध्ययन कार्य को स्वीकारा है। इसके बाद ईश्वर-वादी विधि से दो विधियां बनी थी - साधना और अभ्यास। इसको तप, उपासना, साधना, जप, अभ्यास आदि नाम दिया है। अब मेरे मन में यह बात आयी - क्या पठन कराना और पढाना - इससे अनुभव होता है? इसमें निकला - नहीं! पठन कोई अनुभव का आधार नहीं हो सकता। पठन एक सूचना का उच्चारण मात्र होगा। सूचना का उच्चारण प्रमाण नहीं हो सकती। अभी हम जितने भी किताब पढ़ते हैं - वे केवल सूचना का उच्चारण ही है। अभी आप और हम जो रिकॉर्ड कर रहे हैं - वह भी सूचना के रूप में ही होगी। प्रमाण नहीं होगा। प्रमाण आदमी ही होगा। ऐसा मैंने तय किया। मैं साधना-समाधि-संयम पूर्वक जो अनुभव को पाया तो उसका प्रमाण मैं ही हूँ, न कि मेरे द्वारा लिखी हुई कोई किताब। किताब केवल सूचना है।

इसी तरह मेरे द्वारा यदि कोई व्यक्ति अध्ययन पूर्वक इस फल को पाता है तो वह स्वयं ही प्रमाण होगा। इस निष्कर्ष पर मैं आ गया। मैंने जो कुछ भी लिखा है - वह किसी वस्तु को इंगित करने के लिए है। वह वस्तु सामने व्यक्ति के समझने के लिए है - न कि केवल पढने के लिए! जीवन समझता है। जीवन को समझने के लिए क्या चाहिए? इसका शोध करने पर निकला - शरीर के साथ जो उच्चारण करते हैं भाषा का - उसके साथ परिभाषा को भी पढने के लिए प्रावधानित कर दिया। परिभाषा विधि से वस्तु का वर्णन स्वीकार होता है। हर व्यक्ति के पास जो कल्पनाशीलता है - वह उस वर्णन के साथ जुड़ता है। वह जुड़ने से कल्पनाशीलता उस वर्णन से जो अर्थ निर्धारित हुई - उस आकार तक मन को पहुँचा देता है। उस आकार की वस्तु को जब अस्तित्व में मन पहचानने जाता है - तो उसे अस्तित्व में वस्तु के रूप में पाता है। जैसे - "पानी" एक शब्द है, और पानी एक वस्तु है। "पानी" शब्द से पानी कैसा है, उसको मन तक पहुंचाने की व्यवस्था है। मन तक पहुँचने के बाद मन पानी को अस्तित्व में पहचान लेता है। प्यास बुझा देता है।

कल्पना से हम वस्तु को अस्तित्व में पहचानने जाते हैं। वस्तु मिल गया तो प्रमाण हो गया। नहीं मिला तो कल्पना ही रह गया। हर व्यक्ति कल्पनाशील है। यह प्रकृति प्रदत्त है।

पहचानने की वस्तुएं दो तरह की हैं - कुछ वे हैं, जो इन्द्रियों द्वारा आंशिक रूप में पहचानी जाती हैं। इनको इन्द्रिय-गोचर नाम दिया। दूसरी वे वस्तुएं हैं - जो ज्ञान द्वारा ही पहचानी जाती हैं। इनको ज्ञान-गोचर नाम दिया।

पानी, पेड़-पौधे, पत्थर आदि वस्तुओं को हम इन्द्रियों से प्राप्त संवेदनाओं के आधार पर पहचानते हैं। "पानी से प्यास बुझती है" - यह ज्ञान हमको इन्द्रियगोचर विधि से हुआ है। ऐसी बहुत सी चीजों का ज्ञान मनुष्य को हो चुका है। लेकिन जो वस्तुएं केवल ज्ञान विधि से पहचानी जाती हैं - वे करीब-करीब सभी मनुष्य की पहचान से रह गए। जैसे जीवन ज्ञान विधि से ही पहचाना जाता है। व्यापक ज्ञान विधि से ही पहचाना जाता है। वस्तुओं का स्वभाव और धर्म ज्ञान विधि से ही पहचाना जाता है।

प्रश्न: इन्द्रियगोचर विधि से जो वस्तुएं मनुष्य ने पहचानी - क्या उनका ज्ञान उसमें पूरा हो गया?

उत्तर: नहीं! केवल संवेदनाओं के अर्थ में ही उनकी पहचान हुई। वह शरीर संरक्षण के लिए पर्याप्त हुआ। शरीर के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता थी - उस तरह से पूरी हुई। किंतु जीवन की जो आवश्यकता रही - उसके लिए ज्ञानगोचर विधि से पहचानने की आवश्यकता रही। वह भाग यूँ का त्यूं चुप ही रहा। ज्ञान-गोचर विधि से जो वस्तुओं को पहचानना था - वह परम्परा में पहचान में नहीं आया। इसी लिए जीवन-तृप्ति की बात प्रमाणित नहीं हुई। जीवन-तृप्ति क्या है, उसको मैंने देखा है। वह है - सुख, शान्ति, संतोष, और आनंद। यह मैंने अनुभव पूर्वक पाया।

अनुकूलता - प्रतिकूलता इन्द्रियगोचर है।
सुख-शान्ति-संतोष-आनंद ज्ञान-गोचर ही है।

इसकी आपको जरूरत है या नहीं, पहले यह तय ही कर लो! इसमें hotch-potch न रहे! इस पर सोचा जाए, चर्चा किया जाए, निष्कर्ष निकाला जाए। इसमें यही निकलता है - हर व्यक्ति सुखी होना चाहता ही है।

प्रश्न: ज्ञान-गोचर वाला भाग मनुष्य-जाति के पहचान में आने से कैसे छूट गया?

उत्तर: उस तरफ़ मनुष्य गया ही नहीं! ज्ञान-गोचर वाला पक्ष ही प्रमाण से सम्बंधित है। प्रमाण को लेकर विज्ञान ने यंत्र को अपनी विद्वता का प्रमाण माना। उससे मनुष्य कट गया। ईश्वर-वादी विधि से विद्वता का प्रमाण किताब को माना। उससे भी मनुष्य कट गया। ज्ञान और विद्वता का ध्रुवीकरण अभी तक यंत्र और किताब के साथ ही हुआ है। मनुष्य के साथ विद्वता का ध्रुवीकरण अभी तक हुआ ही नहीं। यह चर्चा ही नहीं हुई! जबकि आदमी का ही अधिकार है - ज्ञान-गोचर विधि! सुख-शान्ति-संतोष-आनंद की अपेक्षा मनुष्य में ही है। कितना हम बुद्धुपन से चले हैं, नालाकियत से चले हैं, या बुद्धिमानी से चले हैं - आप ही सोचो!

हर व्यक्ति आदि-काल से सुखी होने की अपेक्षा रखता है, पर मनुष्य को प्रमाण का आधार नहीं माना।

यह कितने बड़े अपराध का आधार हुआ है - आप सोच लो!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

No comments: