मध्यस्थ-दर्शन के अनुसार: नियति-विधि ही नियम है। सम्पूर्ण नियम अस्तित्व में हैं ही।
नियम से ही अस्तित्व में पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था, प्राण-अवस्था से जीव-अवस्था, और जीव-अवस्था से ज्ञान-अवस्था प्रकट हुई।
भौतिकवाद या विज्ञान ने अपनी हवस के अनुसार नियम प्रतिपादित किए या बना दिए। जबकि नियम होते हैं, बनते नहीं हैं। ये जो नियम बनाए - वे नियति-विरोधी थे, उन पर चलने से धरती बीमार हो गयी। इन नियमो के रहते मानव का धरती पर बने रहना खतरे में है।
उसके पहले आदर्शवाद ने "ईश्वरीय नियम" बताये। सभी ईश्वरीय नियम ऐसे ही हैं - ईश्वर के अधीन में रहो, ईश्वर को रिझाओ, तुम्हारा कल्याण होगा! ईश्वर क्या है? - यह पूछा तो बताया "तुम समझोगे नहीं!" अब करो! परम्परा में सामान्य आदमी का फंसावट यहीं रहा।
अब मध्यस्थ-दर्शन से जो उपरोक्त दोनों विचारधाराओं का विकल्प जो आया - उससे यह स्पष्ट होता है:
प्राकृतिक रूप में गवाहित रहना ही नियम है।
प्राकृतिक रूप में प्रमाणित रहना ही नियम है।
प्राकृतिक रूप में वर्तमान रहना ही नियम है।
अध्ययन के लिए इन तीनो बातों को reference में रखना आवश्यक है। पदार्थावस्था, प्राणावस्था, और जीवावस्था नियम को गवाहित, प्रमाणित, और वर्तमानित करती रहती हैं। ज्ञान-अवस्था के मानव को भी अपने नियमो को पहचानने की आवश्यकता है। मानव ज्ञान-अवस्था में होने के कारण मानव में ज्ञान ही गवाहित, प्रमाणित, और वर्तमानित होगा। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, और भागीदारी - ये चारों जगह पर जब मानव पूरा हुआ, तभी मानव ने अपनी गवाही को प्रस्तुत किया। इस विधि से मनुष्य का ज्ञान-अवस्था में होने का qualification पूरा हो जाता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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