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Friday, August 8, 2008

अध्ययन - तृप्ति का मार्ग


न्याय-धर्म-सत्य को लेकर "सूचना" है.  यह सूचना अध्ययन पूर्वक मन को स्वीकार होती है, फिर तुलन में स्वीकार होती है, फिर चित्त में स्वीकार होती है, फिर बुद्धि में बोध हो जाती है. सत्ता में संपृक्त प्रकृति का बोध बुद्धि में ही होता है - मन में नहीं होता, चित्त में यह चित्रित नहीं हो पाता.  इसका बुद्धि में ही बोध होता है. यह बोध होने से बाकी सब संतुष्ट हो जाते हैं.

इसके लिए स्वयं में निरीक्षण-परीक्षण करने की आवश्यकता है.  सर्वप्रथम स्वयं में न्याय-धर्म-सत्य का निरीक्षण-परीक्षण होता है.  इसके लिए जिज्ञासा होती है - सत्य क्या है?  कहाँ है?  धर्म क्या है?  कहाँ है?  न्याय क्या है? कहाँ है?  उसके लिए इस प्रस्ताव से सूचना मिलती है - "सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व ही परम सत्य है.  सर्वतोमुखी समाधान ही धर्म है.  मूल्यों का निर्वाह करना ही न्याय है."  यह साक्षात्कार होकर बुद्धि में पहुँच जाता है.  पहुँच जाने पर यह अनुभव मूलक विधि से प्रमाण बोध होता है.  प्रमाण बोध होता है तो वह हमारे आचरण में आने लगता है.  इसको मैं सही मानूं या बाकी किसी बात को मानूं?  आप सोचो!


प्रश्न:  न्याय-धर्म-सत्य को लेकर जिज्ञासा जीवन में कहाँ होती है?

उत्तर:  तुलन में.  न्याय, धर्म और सत्य के नाम के प्रति पहले से ही सहमति है.  न्याय क्या है?  धर्म क्या है?  सत्य क्या है? - यह जिज्ञासा है.  सत्य के लिए पहले (आदर्शवाद में) कहा गया था कि सत्य अनिर्वचनीय है और यह समाधि में समझ आता है.  समाधि को मैंने स्वयं देखा है - समाधि में कोई सत्य मिला नहीं.  सत्य संयम करने पर मिला.  समाधि-संयम पूर्वक प्राप्त उस सत्य को शिक्षा विधि से कैसे पाते हैं, वह सीढ़ी आपको बता रहे हैं.  अध्ययन द्वारा जिज्ञासा पूर्वक सत्य-बोध होने की जगह में चले जाते हैं.

प्रश्न: भ्रम से जागृति के इस मार्ग को सिलसिले से और फ़िर से बताइये।

उत्तर: भ्रमित अवस्था में भी जीवन में न्याय, धर्म, और सत्य की अपेक्षा रहती है।  तुलन में न्याय-धर्म-सत्य मध्यस्थ-दर्शन द्वारा न्याय-धर्म-सत्य का प्रस्ताव शब्द के रूप में विचार में पहुँचा। इससे न्याय-धर्म-सत्य की अपेक्षा की पुष्टि हुई। इस शब्द से सम्बंधित वस्तु वहाँ नहीं रहा। शब्द द्वारा सह-अस्तित्व "होने" के रूप में वृत्ति में स्वीकार हो जाता है।  शब्द से इतना भारी उपकार हो जाता है.  सत्य का "होना" स्वीकार है तभी तो लोग उसके लिए अब तक प्राण देते रहे हैं!  न्याय , धर्म, सत्य "कुछ होता है" यह वृत्ति में स्वीकृत है - तभी तो यह न्याय है यह अन्याय है, यह धर्म है यह अधर्म है, यह सत्य है यह असत्य है - ऐसा तोलने की भाषा प्रयोग करता है.  लेकिन जीने जब जाते हैं तो शब्द भर पर्याप्त नहीं होता।  शब्द सुनने के बाद शब्द के अर्थ में जाने की आवश्यकता बन जाती है.   शब्द का अर्थ अस्तित्व में वस्तु है.  जैसे - पानी एक शब्द है, और पानी एक वस्तु है. उसी तरह "सहअस्तित्व" एक शब्द है -  "सहअस्तित्व" शब्द से इंगित वस्तु क्या है?  सहअस्तित्व के बारे में प्राप्त सूचना के आधार पर हम सहअस्तित्व वस्तु को पहचानने की जगह पहुँच जाते हैं।  सहअस्तित्व सत्ता में संपृक्त प्रकृति स्वरूप में है.  सत्ता व्यापक है.  एक एक इकाइयों के रूप में अनंत प्रकृति है.

 


सहअस्तित्व के बारे में सूचना का परिशीलन करने हम चित्त में गए। जिसके फलन में सहअस्तित्व चित्त के चिंतन क्षेत्र में साक्षात्कार होता है। अध्ययन की शुरुआत चित्त से ही है। साक्षात्कार का यथावत बुद्धि में बोध हो जाता है। बुद्धि में जो बोध हुआ उसका तुंरत अनुभव हो ही जाता है।  चित्त में साक्षात्कार होने के बाद बोध, बोध के बाद अनुभव सिद्ध!  अनुभव ही प्रमाण है.


आत्मा में हुए अनुभव का परावर्तन बुद्धि में अनुभव-प्रमाण बोध हो जाता है। उसके साथ प्रमाणित होने का संकल्प पूरा होता है।  अनुभव प्रमाण बोध होने के पश्चात तुरंत हमारा चिंतन शुरू हो जाता है.  चिंतन चित्रण की पृष्ठभूमि है.  संकल्प प्रमाणित करने का दवाई है!  संकल्प के अनुरूप चित्त काम करने के लिए चिंतन एक आवश्यक क्रिया है.  जिससे वृत्ति संतुष्ट हो जाती है यही न्याय है! यही धर्म है! यही सत्य है!  वृत्ति के इस प्रकार सहमत होने के लिए अनुभव आवश्यक रहा।

इस प्रकार अनुभव-मूलक विधि से तुलन में न्याय घंटी बजाने लगा, धर्म घंटी बजाने लगा, सत्य घंटी बजाने लगा। वृत्ति में न्याय-धर्म-सत्य पूर्ण दृष्टियों से प्रमाण-पूर्ण तुलन होने लगा।  इस विश्लेषण के अनरूप मन में आस्वादन हुआ मूल्यों का - और उन मूल्यों को प्रमाणित करने के लिए मन चयन करने लगा। अब मन में जो संवेदनाओं से जो सूचना प्राप्त होती है वह इसमें नियंत्रित हो गयी। उसके लिए कोई बाहर से बल नहीं लगाना पड़ा। मन में मूल्यों के आस्वादन के आधार पर जब चयन करने लगे - तो प्रमाणित होने लगे। प्रमाणित करने के लिए एक तरफ़ संकल्प बुद्धि में, और दूसरी तरफ़ मन में चयन। ये दोनों मिल कर प्रमाण परम्परा बन गयी।

शिक्षा विधि से अध्ययन
अध्ययन विधि से बोध
बोध विधि से अनुभव
अनुभव विधि से प्रमाण
प्रमाण विधि से प्रमाण-बोध का संकल्प
प्रमाण-बोध के संकल्प से चिंतन और चित्रण
चिंतन और चित्रण से तुलन और विश्लेषण
तुलन और विश्लेषण के आधार पर मूल्यों का आस्वादन - और उसी के लिए चयन


इस पैकेज को अच्छे से अपने में सुदृढ़ बनाओ - इसको यदि प्रमाणित करना शुरू कर दिया आपने, फ़िर जो होना है वह हो ही जायेगा। अपने में प्रमाणित होने के बाद अपने आगे जो होने वाला प्रक्रिया है - वह होगा ही। उसके लिए हमको अलग से सोचने की ज़रूरत नहीं है। इस तरह छोड़ने पकड़ने का पूरा झंझट ही समाप्त हो गया। समझ के करने हम जैसे जाते हैं तो प्रमाण ही प्रवाहित होता है।

यह जो मैंने समझाया - यदि आपको समझ में आता है, उसमें आपका निष्ठा होता है, तो फ़िर उसको अनुभव करने में आपको क्या तकलीफ है? अनुभव के बाद प्रमाणित करने का जो हमारा प्रवृत्ति बनता है - उसके अनुसार हमारा आचरण बनता है। अनुभव के बाद आचरण में न आए - ऐसा कोई बाँध नहीं है। आचरण में उसको आना ही है।


- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अमरकंटक, अगस्त २००६)

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