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Saturday, August 16, 2008

४.५ या १०

प्रश्न: आप कहते हैं - मनुष्य जीने में दो ही स्थितियों में हो सकता है। या तो भ्रम में जीता है, या जागृति में जीता है। भ्रम में जीवन की ४.५ क्रिया प्रकाशित होती हैं। जागृति में जीवन की १० क्रियाएं प्रकाशित होती हैं। अध्ययन-क्रम में जीवन की क्रियाओं की क्या स्थिति होती है?

उत्तर: भ्रमित जीने में हम अपने जीवन की ४.५ क्रियाओं को शरीर के साथ लगाए रहते हैं। ऐसे समस्याओं में जीते हुए, हमारा अनुमान हुआ - यह पर्याप्त नहीं है। इससे जिज्ञासा जो उदय हुई - उसके आधार पर हमको दसों क्रियाओं को चालू करने का स्त्रोत (मध्यस्थ-दर्शन के प्रमाण के रूप में) मिल गया। उसका हम अध्ययन करने में लग गए। ऐसे अध्ययन करने में हमको लगा - कुछ भाग हमको बोध हो गया है, कुछ बोध होना अभी शेष है। तब तक हमारे जीवन की ४.५ क्रियाओं का समर्पण दसों क्रियाओं को चालित करने के लिए हो गया। इससे ४.५ क्रिया से उत्थान की ओर गति हुई। उत्थान हो गया - तब कहेंगे, जब दसों क्रिया प्रमाणित हुआ।

प्रश्न: क्या अध्ययन-क्रम में कोई निश्चित पड़ाव (या माइलस्टोन) हैं?

उत्तर: पड़ाव कुछ नहीं हैं। वरीयता क्रम की बात है। समझ कर जीने की वरीयता स्वयं में बनती है - तो हम जल्दी अध्ययन पूरा कर लेते हैं। यदि दूसरे-तीसरे नम्बर पर यह वरीयता रहती है - तो हम धीरे-धीरे अध्ययन पूरा करते हैं। इतना ही है।

भाषा से पठन को पूरा करने तक हम पहुँच जाते हैं। उसके बाद वस्तु का अनुभव ही है। यह जिए बिना होता नहीं है। बातों से यह नहीं होता। भाषा से पठन को पूरा करने के बाद दो ही स्थितियों में आदमी मिल सकता है - (१) जीने का प्रयत्न करते हुए। (२) अनुभव को जीने में प्रमाणित करते हुए। ये दो ही स्थितियाँ हैं - उसके अलावा तीसरा स्थिति नहीं है। यह हर व्यक्ति के साथ प्राण-संकट है - या सौभाग्य है। शरीर के साथ जोड़ते हैं - तो प्राण-संकट है। जीवन के साथ इसको जोड़ते हैं - तो सौभाग्य है!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

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